विपर्यय – एक भिखारी की कहानी

विपर्यय – एक भिखारी की कहानी

मैने उसे सबसे पहले न्यायालय परिसर के बाहर सिमेंट की बोरी पर बैठे देखा था। पर आज वही मेरे सामने था यह कहना मुशकिल था क्यांेकि सभी भिखारी प्रायः एक से दिखते हैं। शायद हमारा नजरिया ही ऐसा होता है कि हम भिखारी को देखकर नाक-भों सिकोड़ लेते हैं। उन्हें गौर से देखना और उनका हुलिया अपने दिलो-दिमाग में स्कैच करना हमारे लिये कठिन होता है।परन्तु न्यायालय के बाहर लगी भिखारियों की भीड़ को देखकर तो यही लगता है कि यदि न्याय पाना हो तो केवल ईश्वर के दरबार की तरफ देखना चाहिये — वहीं कुछ हो सकता है। न्यायालय की सीट पर बैठा कठपुतला कुछ नहीं कर सकता। वह तो वही करता है जो चमगादड़ की तरह गाऊन धारे वकील चाहते हैं। वकील चाहते भी क्या हैं? यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ क्योंकि मैं भी वकील हूँ और न्यायालय के ‘मैरी गो राऊंड’ में मेरी भी एक जगह है। मेरी भी नजर मुअव्किल पर होती है और केस लेने के पहले मैं भी पैसा सूँघता हूँ। पैसे में बदबू होती है तो बड़ी तेज। खुशबू हो तो वह बड़ी मंद होती है। इसकारण बड़े प्रतिष्ठानों में पैसे की बदबू भरी रहती है। खुशबू दुबक कर बाहर खिसक जाती है – भिखारियों की तरह। इन भिखारियों को जो पैसा दान में दिया जाता है उसमें खुशबू होती है। कहते हैं कि इसी खुशबू में न्याय लिपटा होता है और यह खुशबू सीधे ईश्वर के दरबार में पहुँचती है। दान देनेवाला पुण्य कमा लेता है। बेचारे भिखारी के पास तो यह खुशबू क्षणिक मात्र ही रह पाती है। वह हर तरह से गरीब बना रहता है — पैसे से, प्रतिष्ठा से, पुण्य से। 

खैर, जब मैने उसे वहाँ देखा था तो मन में कोई उत्सुकता नहीं जगी थी। फिर भी एक क्षण यह अहसास हुआ था कि उसका चेहरा आम भिखारियों की तरह नहीं था। एकदम सपाट चेहरा जिस पर दरिद्रता की दरारें नहीं थी, दुख के दाग नहीं थे, कष्ट की किरचियों के खरोंचें नहीे थी, पीड़ा के प्रहार के निशान नहीं थे, चिन्ता की चिपचिपाहट के चिन्ह नहीं थे। मैंने पाँच रुपये का सिक्का उसकी तरफ उछाला। उसने मेरी तरफ देखा और एक मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आते आते झिझक गई। मैं आगे बढ़ा और सोचने लगा कि उसे मुस्कुराहट से परहेज क्यों था? मुस्कुराहट से ही आदमी अमीर बनता है। किसी की मुस्कुराहट छीन लो तो वह यकायक गरीब हो जाता है। उस भिखारी को तो गरीब बने रहना था ताकि उसे भिक्षा मिलती रहती। वह क्यों मुस्कुरायेगा? अगर गरीब मुस्कुराना सीख जाावे तो अमीर खीज उठेंगे। गरीबों की मुस्कुराहट में उन्हें व्यंग दिखता है। व्यंग तीखा होता है। अहंकारी को वह तीर-सा चुभता है। अहंकारी के शरीर में खून नहीे होता इसलिये जब उन्हें तीर चुभता है तो घाव में से मवाद बाहर आती है। इस मवाद को घमंड कहते हैं। घमंड फूट फूट कर बाहर निकलता है — हर जगह, हर समय। वह भिखारी पाँच रुपये का सिक्का देखकर भी नहीे मुस्कुराया। लोग एक रुपये का सिक्का देकर अपने दान पर सिर ऊँचा कर लेते हैं। एक रुपये का सिक्का पाकर भिखारी भी करोड़ों रुपये की दुआ देने लगते हैं। पर मेरा पाँच रुपये का सिक्का उसे मूक बनाये रहा। एक कौड़ी की मुस्कुराहट भी उसके चेहरे पर नहीं आयी। मैंने सोचा वह शायद धमंड़ी था। पर भिखारी को किस बात का घमंड़ हो सकता है? धमंड़ तो सौंदर्य, साधन, पद, पैसा और कभी कभी उम्र में बड़ा होने पर आता है। इसके पास तो ये पाँचों चीजें नहीें थी। क्या इसके पास सद्व्यवहार भी नहीे है? सद्व्यवहार बड़प्पन देता है और घमंड़ को बड़प्पन नहीं कहा जाता। परन्तु सद्व्यवहार के लिये शिक्षा, सुसंस्कृति और संस्कार की आवश्यकता होती है। क्या ये सब उस भिखारी में मौजूद थीं? 

विपर्यय - एक भिखारी की कहानी

यह प्रश्न मैं उससे करना चाहता था। पर तभी विचार आया कि कहीे वह अंधा तो नहीं था। पर अंधा तो सिक्के के गिरने की आवाज से परिचित होता है। खोटा सिक्का भी पहचान लेता है। उसने पाँच रुपये का सिक्का अवश्य पहचान लिया होगा। यदि नहीे पहचान पाया है तो मैने उसे जाकर बताना चाहिये। पर क्यों? क्या मैं यह साबित करना चाहता हूँ मैं आम आदमियों से पाँच गुना दानी हूँ। या फिर मैं दान देकर व्यापार करना चाहता हूँ। यदि इस पर भी वह दुआ न दे तो क्या मैं उसे घमंड़ी कहूँगा? कहीं वो ही पलट कर मुझे ही घमंड़ी कह दे तो ! ऐसे आदमी को मैं मनहूस भी कह सकता हूँ। पर यदि वह मनहूस है तो न्यायालय के बाहर यूँ बैठा वह लोगों को क्यूँ सुहाता था। सच तो यह है कि जिस आदमी ने मुझे इतना सब सोचने के लिये मजबूर कर दिया हो वह मनहूस नहीं हो सकता है। कदापि नहीं। 

मैने फिर कभी उस भिखारी को देखने की कोशिश नहीं की। लेकिन एक दिन वह मुझे दिख ही गया। मैं शाम के वक्त पार्क में दौड़ लगाकर विश्राम करने अपनी पूर्व निश्चत बैंच पर बैठा सुस्ता रहा था कि अचानक वह मेरे सामने आ धमका। वह कहने लगा,‘ क्या मैं इस बैंच पर बैठ कर आपके साथ कुछ समय बिता सकता हूँ?’ मेरी रगों में अचानक खटमल किलबिला उठे। एक भिखारी की यह मजाल कि वह मुझे अपनी बिरादरी का समझे और मेरे साथ बैठने की पेशकश करे। मेरे अंदर से उभरे अहंकार ने मेरे लिये एक चुनौती भरा क्षण खडा कर दिया था। मुझे अहंकार से बहुत नफरत है, खासकर उस अहंकार से जो मेरे अंदर से बाहर आकर मेरे सामने फन फैलाये खडा हो जावे। दूसरांे के अहंकार को तो बर्दास्त किया जा सकता है — उससे कन्नी काटना बहुत सरल है। पर स्वतः का अहंकार अपने खुद के व्यक्तित्व को झकझोर देने वाला होता है। इस पर विजय पाना तो देवताओं के भी वश में नहीं रहा। सभी देवतागण कायर रहे हैं। ईश्वर के अवतार भी इससे अछूते नहीं रहे। जब कभी इनके अहंकार को चोट लगी वे क्रोधित हो उठे। ये बातें पुराणों में लिखी हैं। मेरी समस्या को देख कर शायद वेद के पन्ने फड़फड़ाने लगे थे। अहंकार के शिकंजे से बस एकमात्र परब्रम्ह ही बच सके हैं। ब्रम्ह का एक अंश मैं हूँ और एक वह भिखारी। यही वह समानता की बैंच है जिसपर मैं बैठा था और मेरे करीब वह भिखारी। 

मैने हमेशा महसूस किया है कि हर क्षण ईश्वर की उपस्थिति का आभास होना अपने आप में बड़ी चीज है। यह जागरुकता है — आध्यात्मिक जागरुकता — एक फरिस्ताई संपर्क — एक निखालिस प्रेम का बंधन जिससे जीवन निरर्थक प्रतीत न होकर सृजनात्मक सौंदर्य का प्रतीक बन जाता है। सच में मानव और ईश्वर के बीच एक रिश्ता है। हम माने या न माने पर ईश्वर इस रिश्ते को मानता है– निभाता है। यह वह रिश्ता है जिससे पृथ्वी का स्वर्ग से रिश्ता बनता है। आध्यात्मिक आवरण एक सुरक्षा का घेरा है जिसके अंदर जिन्दगी हरी भरी रहती है, खिलती है, महकती है। वास्तव में ईश्वर के अस्तित्व का होना या न होना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना उस आस्था का पनपना जो हमें ईश्वर से जोड़ती है। हमें अपने अकेलेपन के अहसास से दूर करती है और हमें जोड़ देती है उससे जिससे हम भले ही परिचित न हों पर वह जो हमारे साथ है वह हमें परिचित-सा लगे। शायद इसी ईश्वर के कारण मैं उस भिखारी से जुड़ता गया। 

‘ये मेरी बद्किस्मती है कि मैं एक भिखारी हूँं,’ उसने इन शब्दों से बातचीत प्रारंभ की। उसने शायद सोचा कि मैं पूछूँगा ‘कैसी बद्किस्मती’ और वह अपनी राम कथा सुनाना चालू कर देगा। एक वकील होने के नाते मुझे दिलचस्पी रही है किसी की भी राम कथा सुनने की, पर मैं चुप रहा। 

‘मेरा नाम नहीं पूछेंगे’, उसने फिर सन्नाटे का तोड़ने की कोशिश की। भिखारी का भी कोई नाम होता है, यह मुझे पहली बार मालूम हुआ। पर यह जिज्ञासा को भी मैने तत्क्षण दबोच दिया। इसतरह शायद मैने उसे ‘निग्लेक्ट’ किया। किसी को अपमानित करने का यह बड़ा हथियार है। इसका अर्थ है किसी के अस्तित्व को नकारना। या फिर उसके अस्तित्व को बासी अखबार समझकर रद्दी के ढे़र पर फेंक देना। 

मुझे चुप देखकर वह उठा और जिस दिशा से आया था उसी ओर चल पड़ा। मुझे लगा वह पत्थर पर दो-चार हथौड़ा जड़ कर चल पड़ा हो — एक शिल्पकार की तरह –जो पत्थर पर हथौड़े चलाकर देखता है कि पत्थर तराशने लायक है या नहीं और फिर उसे बेकार जानकर उसे त्याग कर चल देता है। पर मैं संतुष्ट था। हथौड़े की चोट खाकर बुत बनने की मुझे कभी ख्वाईश नहीं रही। मैं एक जीता जागता इन्सान हूँ। फिर बुत क्यूँ बनूॅ? बुत बनाने का अधिकार शिल्पकार के हाथ में होता है। वह चाहे तो पत्थर काटकर भगवान बना दे या फिर कोई नरकासुर। मैं अपनी किस्मत का लेखा-जोखा दूसरे के अधिकार में जाने देना नहीं चाहता। मैं सक्षम हूँ। अपनी किस्मत का शिल्पकार स्वयं मैं हूँ। मैं – मैं हूँ – और मैं अपने सिवा और कुछ बनना भी पसंद नहीं करता हूँ। मेरा मानना है कि मेरी सहमति के बिना कोई मुझे सुखी नहीं बना सकता और मेरे सहयोग के बिना कोई मुझे दुखी भी नहीं बना सकता। 

इस घटना के बाद उसने आगे फिर कभी मुझसे मिलने की कोशिश नहीं की। मैं बैंच पर बैठा होता तो वह मुझे देखकर चुपचाप आगे खिसक जाता। पर एक दिन उसे देखकर मैं ही कह पड़ा, ‘सुनिये क्या आप ही…’ उसने मेरी बात को काट कर कहा,‘हूँ’ और वह आगे बढ़ गया। मैं विस्मित हो उसे देखता रहा। वह भिखारी के चिथड़ों में नहीं था बल्कि सभ्य लोगों से भी ऊँची कीमत के कपड़ों में सजा हुआ था। वह जल्दी में था या फिर पैसे वाले व्यक्ति की तरह उसके पास वक्त की कमी थी। वह तेजी से पार्क के बाहर चल पड़ा, जहाँ उसकी चमचमाती कार खड़ी थी। यह देखकर मैं अपनी ‘नर्व्ह’ टटोलने लगा। पर मैं कोई सपना नहीं देख रहा था। 

बस उस दिन से वह मेरी जिज्ञासा का मूलबिन्दु बन गया और मैं उससे मिलने के लिये उत्सुक रहने लगा। लेकिन क्या यह मुमकिन था? शायद नहीं। मैंने तो उसका परिचय तक लेना उचित नहीं समझा था। हाँ, याद आया, मैंने ही सोचा था कि भिखारी का भी कोई नाम होता है। मैं न्यायालय में जब भी प्रवेश करता तो एक बार भिखरियों की ओर अवश्य नजर ड़ालता। पाँच का सिक्का देने के लिये अपना पाकिट टटोलता। पर अचानक सारे के सारे भिखारी एकदम सूट-बूट में सजे दिखने लगते और मैं जेब में रखे पाँच के सिक्के को चुपचाप छूकर ही रह जाता था। मैं जेब में रखे पाँच के सिक्के को घंटों टटोलता फिरता। मेरे वकील मित्र मुझसे पूछते, ‘ क्यों भाई, क्या परेशानी है?’ कभी कोई कहता, ‘किस उधेड़ बुन में लगे रहते हो?’ ‘क्यों तबीयत तो ठीक है ना?’ 

पर जब एक दिन मैं इसी तरह बेसुध-सा न्यायालय में घूम रहा था कि पीछे से आवाज आई, ‘मेरा नाम नहीं पूछोगे?’ हाँ, यह वही आवाज थी जो हर समय मेरे कानों में गूँजती चली आ रही थी। मैंने पलटकर देखा। वही भिखारी था। वह अपने फटे-पुराने चिथड़े तो पहले ही उतार फैंक चुका था। पर वह उस समय मेरे सामने सिपाहियों से घिरा खड़ा था। मैंने उससे कुछ कहना चाहा पर शब्द तलुए से चमगादड की तरह उल्टे लटके रह गये। उसका चेहरा ठीक रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में रखे गोल ‘फ्लास्क-सा’ नजर आया जिसके अंदर ‘टाइट्रेशन’ के कारण रंग बदलते रहतेे हैं — एक के बाद दूसरा रंग और अंत में चिपका-सा रह जााता है मटमैला-सा पीला रंग — गहरा पीलापन लिया, उदास रंग। 

मैंने उससे एकांत में बात करना चाही। उस समय मेरे मन में कतई विचार नहीं था कि मैं उसका केस स्वतः लूँ। मैं सिर्फ उन घटनाक्रमों को जानना चाहता था जो उस व्यक्ति को नचा रहे थे। यह उसी के शब्दों में सुनना बेहतर होगा। उसने बताया, ‘ जिस दिन आपने पाँच का सिक्का मुझे दिया उस दिन तो न जाने क्या हुआ कि लोग दस बीस ही नहीं सौ के नोट तक मुझे देने लगे। फिर मैं आपसे पार्क में मिला। उस शाम जब सूरज को पश्चिम में समाये काफी समय हो चुका था और धरती की आँखों पर अंधेरा काजल की तरह फैलता जा रहा था, मुझे उसी पार्क में एक बैग मिला। बैग में लाखों नोट भरे पड़े थे। हर नोट पाँच सौ रुपये का था। मैंने पहले तो उस बैग को उठाकर पार्क के दूसरे कोने में रख दिया और फिर रात भर झाड़ियों के पीछे छिपा उसकी निगरानी करता रहा। किन्तु करीबन पूरी रात उस बैग की खोज खबर लेने वाला कोई नहीं आया। सुबह होने ही वाली थी तब मैंने अपना मन पक्का किया और वह बैग लेकर पार्क के बाहर हो लिया। आपसे मेरी इस दूसरी मुलाकात ने मेरी जिन्दगी ही बदल कर रख दी। सच मानिये, जब जब आप मिले हैं मुझे ईश्वर ने कुछ ना कुछ तोहफा अवश्य दिया है। अब मेरे पास खुद का मकान, गाड़ी और सब कुछ हो गया। मैंने एक बड़ी होटल भी खरीद ली और मेरा वहाँ कारोबार भी शानदार चलने लगा। इतनी जल्दी यह सब कुछ हो गया कि मैं खुद आश्चर्य चकित-सा या फिर किं-कर्तव्य-विमूढ-सा कठपुतले की तरह इन बातों में उलझता गया।’ 

इतना कहकर वह एकदम भावुक हो उठा। भावुकता मस्तिष्क में विद्यमान सुप्त दार्शनिकता को जगा देती है। वह कहने लगा, ‘जीवन में कई बार ऐसा कुछ गुजर जाता है कि हम उसे न तो समझ पाते हैं और न ही उस पर अंकुश लगा पाने के सक्षम खुद को पाते हैं। वह सारा समय सिकुड़ कर एक पल के रूप में बदल जाता है, जो भुलाये नहीं भूलता। उसकी सुहावनी यादें भर शेष रह जाती हैं — एक अमिट छाप रह जाती है उन पलों की और उनकी स्मृृतियाँ मन में आल्हाद उत्पन्न करने के लिये काफी होती हैं तथा जीवन भर उसी याद में खुश होकर जिया जा सकता है, बशर्ते ऐसी कोई कड़वाहट जीवन में अनायाास न आ जावे जो स्मृति-पटल पर कालिख पोत जावे। मेरे जीवन में यही घटित होना था। ना तो पहले की गरीबी और ना बाद की अमीरी पर मेरा वश था। एक दिन मेरे घर पर छापा पड़ा और देखते ही देखते मैं गुनहगार बन गया। मेरे घर की तलाश में उन्हें वह बैग मिलना ही था। वह बैग जिसे मैंने पार्क में पाया था — जिसमें लाखें नोट भरे पड़े थे और प्रत्येक नोट पॉच सौ रुपये का था– वही मेरी मुसीबत का कारण बन गया क्योंकि वे सारे नोट नकली थे। 

               

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैंआपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँबूंद- बूंद आँसू आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र  भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.        

You May Also Like