शहरी आदमी पर कविता

शहरी आदमी

रोज़ का प्रक्रम है उस शहरी आदमी का
शहर से गांव और गांव से शहर की ओर भागना
यद्यपि गांव सालों पहले बहुत पीछे छूट चुका है
किंतु कहां मन मानता है उस शहरी आदमी का ?
फिर भी वह अपने गांव की गलियों और चौबारे 
का चक्कर लगा आता है अपनी स्मृतियों के लोक में ही,  
गांव  की सीमा में प्रवेश करते ही 
वह तालाब के किनारे बरगद की छांव में बैठकर
छपोड़कर अपना मुंह धुलता है,
बहती  हुई धार वाले मुंह से ही बरगद के पेड़ की ओर 
ऊपर ताककर गिनता है वह असंख्य चिड़ियाओं के घोंसले 
जो पहले से और भी ज़्यादा बढ़ गये हैं
गांव की ओर बढ़ते हुए गलियों में चलते हुए 
नथुनों में घुसती है उसके मिट्टी से पुती हुई दीवारों
और छप्पर पर फैली हुई लौकी,तोरी की बेलों की सुगंध
मां के साथ बूढ़ा हो गया घर राह तक रहा है उस शहरी का
शीघ्र ही घर के ओसारे में पहुंचकर वह चप्पल उतार देता है,
मां घर के बाहर  कोने में पानी भरी 

शहरी आदमी पर कविता
लोहे की बाल्टी से मुंह-हाथ धुलवाती है, 
वह शहरी आदमी मां के पल्लू से मुंह पोंछकर 
बैठ जाता है गोबर से लीपे हुए ओसारे में 
मिट्टी के चूल्हे पर उबलती हुई धुंआ मिली 
चाय सुड़कता है पीतल के कप में
भाता है उसको पूरे घर में चप्पल उतार कर नंगे पांव चलना
चाय का कप जमीन पर रखकर 
लौट आता है वह अपने बहुमंजिला फ्लैट में
तोलता है गांव और शहर को अपने अंतर्द्वंद के तराजू में
अजीब सी टीस महसूस होती है ना!
शहरी आदमी के हृदय में
सारी प्रगतिशीलता के बावजूद भी
वह रोज़ जुड़ता है गांव की मुख्यधारा से
स्मृतियों में ही सही 
टूटते-टूटते हुए भी बचा हुआ है
वह शहरी आदमी गांव से जुड़ा रहकर


– सुनीता भट्ट पैन्यूली
लेखन- कविताएं,संस्मरण,गद्य,आलेख

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