सरहदें

सरहदें

कई सरहदें बनी लोग बँटते गए।
हम अपनों ही अपनों से कटते गए।

उस तरफ कुछ हिस्से थे मेरे मगर।
कुछ अजनबी से वो सिमटते गए।

सरहदें

दर्द बढ़ता गया दूरियां भी बढ़ी।
सारे रिश्ते बस यूं ही बिगड़ते गए।

दर्द अपनों ने कुछ इस तरह का दिया।
वो हँसता रहा मेरे सिर कटते गए।

खून बिखरा हुआ है सरहदों पर मगर।
वो भी लड़ते गए हम भी लड़ते गए।

एक जमीन टुकड़ों में बंटती गई।
हम खामोशी से सब कुछ सहते गए।

सरहदों की रेखाएं खिंचती गईं।
देश बनते रहे रिश्ते मिटते गए।

एक आवाज़

मिल कर सब अन्यायों से अब लड़ बैठो।
अब सब मिल जाओ तन तन के यूं मत बैठो।

बीस बरस से भोग रहें है हम भैया।
अब तो न्याय दिला दो अब न यूं चुप बैठो।

शासन की कठपुतली तो सब कुई हैं।
तुम विरोध तो करलो गोदी में अब न बैठो।

एक विधायक बन गयो एक फिराक में है।
जो अध्यापक घर मे जा क्यों घुस बैठो।

जग्गू शिल्पी भैरव बिज्जू तुम सब सुन लो।
एक न भये तो भाड़ में तुम जा घुस बैठो।

संघ संघ मत खेलो ने तो मर जेहो।
अध्यापक गर गुस्सा हो के उठ बैठो।

अश्रु

अश्रु जो ढलक गए
स्वप्न जो ललक गए
जीवन के सब रास्ते
चले तुम्हारे वास्ते।

प्यार जो तुमने किया
हृदय जो तुमने दिया
भले करो न प्यार तुम
करेंगे इंतजार हम।

उम्र बीतती गई
रात रीतती गई
सुबह का इंतजार है।
शायद यही तो प्यार है।

आज भी वहीं खड़े
रास्ते में पड़े
छोड़ कर गए थे तुम
कर रहे इंतजार हम।

प्रेम जो कभी तुमने किया
अपना हृदय मुझे दिया।
आज भी इंतजार है।
कहो न मुझ से प्यार है।

काश मेरी भी एक बहिन होती

काश मेरी भी एक बहन होती
रोती हँसती और गुनगुनाती
रूठती ऐंठती खिलखिलाती।
मुझ से अपनी हर जिद मनवाती।
राखी बांध मुझे वो खुश होती
काश मेरी भी एक बहन होती।

घोड़ा बनता पीठ पर बैठाता।
उसको बाग बगीचा घुमाता।
लोरी गा गा कर उसे सुलाता।
मेरी बाहों के झूले में वो सोती
काश मेरी भी एक बहन होती।

सपनों के आकाश में उड़ती
सीधे दिल से वो आ जुड़ती
रिश्तों को परिभाषित करती
होती वो हम सबका मोती।
काश मेरी भी एक बहन होती।

कभी दोस्त बन मन को भाँती
कभी मातृवत वो बन जाती
कभी पुत्री बन खुशियां लाती।
जीवन की वो ज्योति होती।
काश मेरी भी एक बहिन होती।

रक्षाबंधन के दिन आती
मेरे माथे पर टीका लगाती
स्नेह सूत्र कलाई पर सजाती
आयु समृद्धि का वो वर देती।
काश मेरी भी एक बहिन होती।

– सुशील शर्मा

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