सुकून – लघु कथा

सुकून – लघु कथा 

घर के लोग अपने -अपने काम पर चले गये ,दोनो बच्चे स्कूल और प्रतीक ऑफ़िस , रोज की तरह प्रणति बाकी का काम खतम करके आँगन मे कुर्सी लेकर बैठ गयी ।सर्दियो की मीठी-सी धूप मे आराम से बैठ कर चाय पीना उसे सुकन दे रहा था। सुबह पाँच से उसकी जिंदगी शुरु होती तो अब जाकर थोडी-सी चैन मिलती।
सुकून
सुकून
वह चाय खतम करके वही स्टूल पर रखा अखबार उठाती है कि इतने मे फोन की घंटी सुनाई दी,प्रणति अखबार रखकर जुठे कप लेकर अंदर कमरे मे गयी ।सुबह से फोन बेडरूम मे ही पड़ा था।फुर्सत किसे थी कि कोंन-सी चीज कहा है जब खुद का ही खयाल नही । उसने फोन खोला तो देखा माँ का फोन था ।माँ रोज इसी समय फोन करती थी ,पर आज उनकी आवाज कुछ बुझी-सी थी।प्रणति ने पुछा,“क्या हुआ माँ,आज आपकी आवाज ऐसी क्यों है; मेरी बात सुनते ही वो रोने लगी `फिर थोडा शान्त होकर बोली ,वो  ‘छोटी नही रही,प्रनु ।ये क्या कह रही हैं आप,कल तो सभी कह रहे थे कि इलाज चल रहा है और आज !आप शांत हो जाईये माँ ओर अपनी सेहत का ध्यान रखिये इतना कहकर प्रणति ने फोन रख दिया।और पास मे पड़े सोफे पर बैठ गयी ।
सोफे पर गर्दन टीकाए कही दूर चली गयी वह,जहाँ आठ वर्ष की एक लड़की अपने सूनी -सी आँखो से कुछ देखने का प्रयास कर रही थी , बार बार उसे छोटी का पति क्यों दिख रहा था । छोटी का पति अभी पैतालीस वर्ष का ही था,न नौकरी थी कि दुसरी शादी भी कर सकता था, बचपन सेही आवारा की तरह फिरता रहता ।छोटी प्रणति की रिश्तेदार के साथ-साथ सहेली भी थी उसके मरने का अत्यधिक दुख था उसे,पर उसका मन न जाने कुछ और ही सोच रहा था , ` कहते है जो मर जाता है वो नहीं मरता ,जो जीता है वो मरता है, और ये सोचकर उसने एक लम्बी साँस ली ।                               
                                        
– प्रतिभा किरण , 
अहमदाबाद,गुजरात

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