हिंदी हैं हम – मंगल ज्ञानानुभाव

भाषा भाव  की अभिव्यक्ति के मार्ग को सुगम और सरल बनाता है. शब्द जो मैंने सर्वप्रथम उच्चारित किया माँ था और हिंदी मेरे भाव विचार वाणी और क्रिया का स्वतः विस्तार बना. आज हिंदी भाषा अपने ही देश में विकलांग की तरह है यहाँ यह बता दूँ की भारत की अधिकारिक भाषा भले ही हिंदी है पर राष्ट्रीय भाषा नहीं ये विडम्बना नहीं तो और क्या है . एक महान विचारक केविन ने कहा था ‘ भारत एक समृद्ध राष्ट्र है जहाँ निर्धन लोग रहते हैं ’ सच ही तो है १९४७ में हम आजाद कहाँ हुए मात्र सत्ता हस्तानान्तरण ही तो हुआ और शोषक एवं शोषण की नयी पद्धति का उदगम भी जहाँ अपनी ही भाषा अपने ही संस्कार को तिलांजलि दे दी हमने. समसामयिक परिदृश्य में इंडिया हिन्दुस्तान पर हावी है और भारत के सनातन नींव को खोखली करने पर  व्यंग  भी. किसी ने ठीक ही कहा है की किसी महान सभ्यता को धराशायी करनी हो तो बस उसकी भाषा एवं संस्कृति को बर्बाद करो बाकी स्वयं हो जाएगा. वाल्टर चैनींग के ये शब्द कितने सटीक हैं “किसी भी स्वतंत्र देश के लिए ये सांस्कृतिक त्रासदी ही तो है जब उसकी अधिकारिक एवं शिक्षण की भाषा कोई विदेशी भाषा हो”. विकास की जो राह पर हम चल रहे हैं वस्तुतः सामूहिक विनाश के ओर हमे ले जा रहा है. हम भूटान से सीख सकते हैं जिसने आधुनिकता के साथ अपने सांस्कृतिक जड़ों को कमजोर होने नहीं दिया है.
रीटा ब्राउन ने कहा है “भाषा किसी भी संस्कृति का एक बहुमूल्य मानचित्र है. ये हमे बताती है की वहाँ के लोग कहाँ से आ रहे हैं और उनकी यात्रा किस ओर हो रही है” आज हम अपनी भाषा अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं कैसे कोई पुष्प जीवंत हो सकता है अपने जड़ों को तिरस्कृत कर के. कमलापति त्रिपाठी ने सच ही व्यक्त किया है की हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा है. सवाल ये नहीं की हम आधुनिकता के परिपाटी पे हिंदी की बलि चढ़ा रहे हैं पर ये की हम अपने आने वाले पीढ़ी के लिए क्या सन्देश छोड़ जायेंगे. आज डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का वो वक्तव्य “जिस देश को अपने भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता” मेरे विचारों को जागृत कर देता है.

हिंदी दिवस पर हिंदी  भाषा के विभूतियों एवं समस्त हिन्दुस्तान को मेरा मौन दंडवत.

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