अंकुर

अंकुर

ज़ोहरा
अधिकांश समय गुमसुम रहती थी. किसी से ना मिलना ना जुलना. बस काम से मतलब.
इस उम्र में ऐसी संजीदगी सभी को अखरती थी. भाईजान ने कितनी बार समझाया
ज़िंदगी किसी के लिए रुकनी नही चहिए. लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना नही चाहती
थी. कभी जिसकी खिलखिलाहट सारे मोहल्ले में गूंजती थी अब बिना टोंके उसके
मुंह से एक लफ़्ज नही निकलता. अपनी लाडली बहन की इस दशा पर भाईजान के सीने
में आरियां चलती थीं. गांव के छोटे से स्कूल में टीचर थी ज़ोहरा. छोटे
बच्चों का साथ उसे अच्छा लगता था.
भाईजान ने पढ़ने के लिए उसे शहर के
कॉलेज में भेजा था. वहाँ उसकी मुलाकात इरफान से हुई.

आशीष कुमार त्रिवेदी

इरफान बाकी लड़कों से
अलग था. सबकी तरह उसका मकसद पढ़ लिख कर एक अच्छी नौकरी पाना नही था. अपने
आस पास के माहौल में व्याप्त भ्रष्टाचार, अशिक्षा अन्याय तथा इन सबके प्रति
युवा वर्ग की उदासीनता को लेकर वह बहुत दुखी था. इस पूरी व्यवस्था को बदल
देना चाहता था. उसके क्रांतिकारी विचारों से वह उसकी तरफ आकर्षित हो गई. यह
आकर्षण समय के साथ प्रेम में बदल गया.
इरफान ने छात्र राजनीति में कदम
रखा. वह तेजी से आगे बढ़ने लगा था. भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध उसकी
आवाज़ और भी मुखर हो गई थी. यह बात बहुत से लोगों को गंवारा नही थी. अतः उस
आवाज़ को शांत कर दिया गया.
ज़ोहरा टूट गई. वह वापस गाँव आ गई. यहाँ
गाँव के स्कूल में पढ़ाने लगी. भाईजान ने विवाह की कोशिश किंतु वह तैयार
नही हुई. उन्होंने भी प्रयास छोड़ दिया.
पूरी वादी बर्फ की सफेद चादर
ओढ़े थी. इस बार ठंड भी अधिक थी. ज़ोहरा कहीं से लौटी थी. देर हो गई थी. वह
जल्दी जल्दी खाना बनाने लगी. वह सोंचने लगी कि वह खाने के इंतज़ार में
भूखा बैठा होगा. उसके ह्रदय में करुणा जागी. वह तेजी से हाथ चलाने लगी.
ज़ोहरा
खाना लेकर गई तो देखा कि दोपहर की थाली यूं ही ढकी रखी थी. उसने छुआ भी
नही था. सर से पांव तक लिहाफ ओढ़े सिकुड़ा हुआ पड़ा था.  शाकिब सरकारी
मुलाजिम था. नदी पर बन रहे पुल का सुपरवाइज़र. भाईजान ने उसे कमरा किराए पर
दिया था. उसका यहाँ कोई नही था. नर्म दिल भाईजान के कहने पर ही उसे दोनों
वक्त खाना दे आती थी. उसने बताया था कि जहाँ से वह आया है वहाँ बर्फ नही
पड़ती. मौसम गर्म रहता है. इसीलिए शायद बीमार हो गया था.
अक्सर वह उससे
बात करने की कोशिश करता था. लेकिन ज़ोहरा को पसंद नही आता था. वह टाल जाती
थी. लेकिन आज उसे इस हालत में देख कर ज़ोहरा को अच्छा नही लग रहा था. क्यों
वह नही जानती थी. वह उसकी तीमारदारी करने लगी. धीरे धीरे वह ठीक होने लगा.
वह उससे अपने शहर अपने परिवार के बारे में बातें करता था. और भी कई बातें
बताता था. पहले ज़ोहरा केवल सुनती रहती थी. फिर धीरे धीरे वह भी कुछ कुछ
बोलने लगी.
शाकिब के भोलेपन ने उसके दिल मे जगह बनानी शुरू कर दी थी.
वह उसकी तरफ खिंचने लगी. इरफान के जाने के बाद उसका दिल किसी बंजर जमीन की
तरह हो गया था. अब उस जमीन में शाकिब के प्रेम के अंकुर फूटने लगे थे.
शाकिब ठीक हो गया था. पुल का काम बस पूरा होने वाला था. वादी का मौसम खुशनुमा हो गया था. ज़ोहरा की हथेलियां हिना से रंगी थीं.

यह
कहानी आशीष कुमार त्रिवेदी जी द्वारा लिखी गयी है . आप लघु कथाएं लिखते
हैं . इसके अतिरिक्त उन लोगों की सच्ची प्रेरणादाई कहानियां भी लिखतें हैं
 जो चुनौतियों का सामना करते हुए भी कुछ उपयोगी करते हैं.
Email :- omanand.1994@gmail.com

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