अधर्मी स्त्री

अधर्मी स्त्री

मैं धर्म के अंक में बैठी
इस युग की सबसे 
अधर्मी स्त्री हूँ। 
मेरे चरित्र के अन्वेषण में
तुम मुझे गहनतम , सूक्ष्म
सघनतम होते देखोगे। 
तुम देखोगे कि 
स्त्री का कोई प्रतिद्वंदी नहीं
उसके मौनता में
विलाप की कोई लाली नहीं। 
अब तुम्हारे आहट पर 
सर का पल्लू नहीं खिसकता
अधर्मी हूँ कि 
अपने कोख में धर्म पालती हूँ
जिसे तुम करते हो संबोधित 
अपनी महत्वाकांक्षा अनुसार
संस्कृति और परम्परा। 
                 
         

सम्पूर्ण लगती हो

सुनो 
अल्हड़ लड़की
जब तुम होती हो 
बहुत बुजुर्ग 
मोलभाव की पक्की 
 बांधती हो चवन्नी
पल्लू के कोर में
जब भी
इठलाती हो
अपने पोपलेपन पर
और बाँटती हो
अनुभव के हर्फ़ 
तुम सम्पूर्ण लगती हो। 
रखती हो ढेरों शौक
सुबह की अंगड़ाई को
समझती हो शाम
अधर्मी स्त्री
स्त्री

जब लगाती हो किसी

पैहरन पर लाल बिंदी
रिश्तों की किस्त
भरती हो और 
दागती हो जब भी
सवालों का ढेर
अपने अनुसार 
गढ़ती हो परिभाषाएं
जब इतराती हो अपनी
सुघड़ता पर
तुम सम्पूर्ण लगती हो। 
नहीं समझती हो जब
भावों का क. ख. ग
होती हो भेद से परे 
उछलने पर नहीं होती
कोई पाबंदी
जब करती हो कोशिश
पहचानने की कोई
आहट
अपने होने के एहसास को 
टटोलती हो
जब शुरू करती हो निहारना
समयान्तराल को
तुम सम्पूर्ण लगती हो। 
                             
  

फफोलें 

हथेलियों के फफोले 
ह्रदय पर पड़े फफोलों से
कहीं अधिक इमानदार होतें हैं
उनमें नहीं होता कोई
दृष्टिदोष और ना ही भटकाव का विकल्प
क्षेत्र विस्तार से मिलों दूर। 
लिख देते हैं
वे कागज़ों की सफ़ेदी पर
ह     रि    या    ली
यथार्थ में वे नहीं लिख सकते 
इससे कुछ अधिक
फफोलें फूट उठते हैं। 
उनकी जंघाओं की मज़बूती
लोकतंत्र है
और उसकी जुबान कुल्हाड़ी 
ह्रदय के फफोलें 
निर्दयी वृत्त हैं और केंद्र कुल्हाड़ी । 
                        

– अंजलि मिश्रा (कवितांजलि )
काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी

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