अनंत चतुर्दशी व्रत पूजा विधि और व्रत कथा अनंत चतुर्दशी व्रत कथा एवं पूजा विधि Anant Chaturdashi 2018 date, Vrat Katha, Pooja Vidhi In Hindi Anant chaturdashi Vrat Puja Vidhi & Vrat Katha अनंत चतुर्दशी व्रत पूजा विधि और व्रत कथा – भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है।अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान श्री विष्णु की पूजा की जाती है । इस दिन अनन्त भगवान की पूजा कर संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है।चौदह सूत्रों से निर्मित चौदह गांठ वाले अनंत सूत्र को विधिवत धारण करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और भौतिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।
अनंत चतुर्दशी व्रत पूजन सामग्री Anant Chaturdashi –
कदली खर्भ,पल्लव, पंच पल्लव, कलश, यज्ञोपवीत, लाल वस्त्र, सफेद वस्त्र, तन्दुल, कुंकुम (रोली) गुलाल, मंगलीक (गुड़), धूप, पुष्पादि, तुलसीदल, श्रीफल, ताम्बूल, नाना फलानी (मौसम के फल), माला, पंचामृत, नैवेद्यार्थ प्रसाद पदार्थ, गोधन चूर्ण, गुणान्न, रंगीन आटा, दीपक, भगवान की मूर्ति, लौंग, इलायची, दूर्वा (दूब),कर्पूर (कपूर), केशर, मण्डप उपयोगी साहित्य, द्रव्य दक्षिणा।
अनन्त व्रत कथा पूजा विधि Anant Chaturdashi
व्रत वाले दिन सूर्योदय से पहले ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर अपने नित्य कर्म से निवृत्त होवें तथा फिर विद्वान् आचार्य को बुलाकर भगवान का एकाग्रचित्त से पूजन करना चाहिए। श्रद्धापूर्वक पंचामृत से स्नान कराकर भगवान् को नैवेद्य अर्पण करें तथा समस्त पूजन की सामग्रियों से यथा विधि पूजन करें। बाद में भगवान् का प्रसाद बन्धु-बान्धवों तथा कथा श्रवण करने वालों को दें फिर स्वयं प्रसाद पावें। व्रत के दिन जागरण करना अनिवार्य है। इस प्रकार नियम पूर्वक व्रत कथा पूजन करने से सर्व सुख, आरोग्यता, समृद्धि, वंश, धनधान्य, सन्तान वैभव तथा विजय की प्राप्ति होती है। अन्त में सायुज्य मोक्ष प्राप्त होता है।
अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा Anant Chaturdashi
श्रीसूतजी बोले- नैमिषारण्य में पूर्व समय में गंगा तट पर महाराज युधिष्ठिर ने जरासंध के वध के लिए राजसूर्य यज्ञ किया।राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन के साथ यज्ञशाला में जो।अनेकों प्रकार के रत्नों से सुशोभित
भगवान विष्णु
मोती के समान कांति वाली इन्द्र सभा के सदृश शोभायमान हो रही थी, उसमें यज्ञ के निमित्त सभी राजाओं को बुला।उसी समय गांधारी का पुत्र दुर्योधन उस यज्ञशाला में आया। दुर्योधन वहाँ सूखे आँगन को जल से भरा देख वस्त्रों को उठाकर धीरे-धीरे चला। उसे देख द्रोपदी आदि स्त्रियाँ हँसी और आगे जल के स्थान को सूखा समझकर दुर्योधन चलते हुए जल में गिरा।उस समय सम्पूर्ण तपस्वी राजा तथा द्रोपदी स्त्रियों ने दुर्योधन का उपहास किया। यह देख दुर्योधन अत्यन्त क्रोधित हो अपने माता के साथ हस्तिनापुर को चला गया। उस समय शकुनि ने दुर्योधन से मधुर वचन कहा-हे राजन्! आप अपने क्रोध को अपने कार्य के लिये छोड़ दें क्योंकि जुआ खेलने से आप सारे राज्य को पा सकते हैं, हे राजेन्द्र यज्ञ मण्डप में चलने के लिए उठिए, “ऐसा ही हो” कहकर दुर्योधन यज्ञ अण्डप में आये। इतने में सभी राजा यज्ञ समाप्त कर अपने-अपने देश को चले गये। इसके पश्चात् राजा दुर्योधन ने हस्तिनापुर में आकर युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि पाण्डु पुत्रों को बुलाकर जुआ खेलना आरम्भ किया। कपट से उनके राज्य को स्वयं हड़प लिया और निरपराधी पांडवों को जीतकर वन में भेज दिया। अब पांडव वन-वन घूमने लगे। यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण पांडवों को देखने की इच्छा करके उनके पास वन में पहुँचे। श्री सूतजी बोले-हे ऋषियों! वन में रहने पर दुःख से दुर्बल पांडव जगदीश्वर कृष्ण को देख उन्हें प्रणाम करने लगे। युधिष्ठिर बोले-हे जगदीश्वर! परिवार सहित मैं । बहुत दुःखी हूँ। इस दुःख के सागर से मुक्ति का उपाय बतलाइये।
हे भगवान् !किस देवता की पूजा से हम अपना राज्य प्राप्त कर सकते हैं। अथवा किस व्रत को करू जिससे आपके प्रसाद से मेरा हित हो? श्री कृष्ण जी बोले-हे युधिष्ठिर! श्री अनन्त भगवान् का पूजन, व्रत पुरुषों । तथा स्त्रियों को करना चाहिए, सभी मनोरथों को पूर्ण होने के साथ सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तब युधिष्ठिर बोले-हे श्रीकृष्णजी ! आपके कहे हुए ये अनन्त भगवान् कौन हैं? क्या शेषनाग हैं? क्या तक्षक सर्प हैं?अथवा परमात्मा को अनन्त कहते हैं? हे केशव! यह अनन्त कौन हैं? कृपा कर हमें यथार्थ कहिये, श्रीकृष्ण बोले अनन्त रूप मेरा ही है, सूर्यादि ग्रह और यह आत्मा जो कहे जाते हैं और पल-विपल, दिन-रात, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष, युग यह सब काल कहे जाते हैं, जो काल कहे जाते हैं, वही अनन्त कहा जाता है। मैं वही कृष्ण हूँ जो पृथ्वी का भार उतारने के लिए अवतार धारण किया है और दुष्टों का नाश तथा । शाओं की रक्षा करने को वासुदेव के अंश उत्पन्न हुआ हूँ आदि, ईश्वर तथा सृष्टि जो नाश करने वाले विश्वरूप महाकाल इत्यादि रूपों को मैंने अर्जुन के ज्ञान के लिए दिखलाया था। सोगियों के ध्यान करने योग्य और संसार रूप अनन्त जिसमें चतुर्दश इन्द्र हैं अष्टावसु, बारह सूर्य एकादश रुद्र और नारद आदि सात षि तथा समुद्र, विंध्याचल है ।आदि पर्वत गंगा आदि नदी तथा वृक्ष और नक्षत्र एवं दसों दिशा भूमि, पाताल, भूलोक, भुवः इत्यादि लोक हैं। हे युधिष्ठिर! यह सब मैं ही हूँ इसमें कोई संदेह नहीं है। युधिष्ठिर बोले-हे विद्ववर! अब आप अनन्त व्रत का माहात्म्य और विधि कहिये तथा अनन्त व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्राणी को क्या पुण्य होता है और उसका क्या फल मिलता है सो ! कहिये। मैं यह जानता चाहता हूँ।
पूर्वकाल में यह अनन्त व्रत किसने में किया और मृत्युलोक में किसने प्रकाशित किया, यह सब विस्तार से कहिये? तब श्रीकृष्णजी बोले-हे युधिष्ठिर! पहले सतयुग में एक सुमन्त नाम का ब्राह्मण था। उसने वशिष्ठ गोत्र में उत्पन्न भृगु की सुन्दर कन्या दीक्षा का वेदोक्त विधि से विवाह किया। थोड़ा समय बीतने पर उसके | गर्भ से उन्नत लक्षणों वाली कन्या उत्पन्न हुई। वह सुशीला शीला नाम वाली कन्या पिता के घर बढ़ने लगी। उसी समय शीला की माता ज्वर से पीडित हो पवित्र नदी के जल में गिरकर मर गई। उसके पश्चात् सुमन्त ने ब्राह्मण की कन्या से जिसका नाम कर्कशा था विधि पूर्वक विवाह किया। दुष्ट स्वभाव कर्कशा नित्य झगड़ा करने वाली थी। | उसकी सौतेली शीला नाम की कन्या अपने पिता के घर में भीत पर और खम्बा पर तथा देहली पर चित्रकला में, तोरण आदि में चतुर थी। नीले, पीले, सफेद, काले इत्यादि रंगीन चित्र विचित्र से सतिये, शंख, कमल । बारम्बार बनाया करती थी। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत हुआ और इस प्रकार वह कौमार्य अवस्था वाली शीला पिता के घर में बड़ी हुई। स्त्रियों के युवावस्था चिन्ह से युक्त शीला को देख सुमन्त ने चिन्ता की | कि यह कन्या मैं किसको दें और इस विचार से दुःखी हुआ। उसी समय वेद के जानने वालों में श्रेष्ठ और स्त्री की इच्छा करने वाला कांतियुक्त मुनियों में श्रेष्ठ कौडिन्य ऋषि वहाँ आये और बोले-हे सुमन्त! तुम्हारी सुन्दर कन्या शीला को मैं वरण करना चाहता हूँ। तब सुमन्त ने शुभ दिन में श्रेष्ठ मुनि, एक धर्म पुरुष कौडिन्य नामक ऋषि से कन्या का विवाह कर दिया। श्रीकृष्णजी बोले-हे युधिष्ठिर! गृहस्थसूत्र की कही ! १ हुई विधि से विवाह किया। उस समय मांगलिक कार्य किए गये तथा स्त्रियों ने मंगल-गान किया। ब्राह्मणों ने स्वस्ति-वाचन तथा बन्दीजनों ने तुम्हारी जय हो’ घोष किया। यह विवाह कर्म सम्पन्न होने पर ब्राह्मण ने अपनी पत्नी कर्कशा से सुमन्त बोले-हे प्रिये! दामाद को संतोष के लिए कुछ दहेज देना उचित है। ऐसे वचन सुनकर कर्कशा ने क्रुद्ध हो | अपने घर के सम्पूर्ण पदार्थों को एकत्र कर उन्हें पेटी में बन्द कर अपने पिता के घर जाने को कहा और भोजन से बचे हुए पदार्थ मार्ग में भोजन के लिए रख लिये।
सुमन्त से बोली कि घर में धनादि कुछ भी नहीं है। जो हो देख लो, हे युधिष्ठिर! ऐसे वचनों को सुन वह महा दुःखी हुआ। विवाह के पश्चात् कौडिन्य अपनी पत्नी शीला को रथ में बिठाकर वहाँ 1 से धीरे-धीरे चले। मार्ग में पुण्यरूपा यमुना नदी को देख उसके किनारे । रथ खड़ा कर नित्य कर्म करने को चल दिए। दोपहर को भोजन के समय उसी यमुना तट पर उतर शीला ने लाल वस्त्र पहने हुए बहुत-सी हैं स्त्रियों को देखा, जो अनन्त चतुर्दशी में भक्तिपूर्वक जनार्दन भगवान् । की पूजा कर रहीं थीं। उन स्त्रियों के समीप जाकर धीरे से पूछा-हे। भार्याओं! कृपा कर आप मुझसे कहो कि यह आप किसका व्रत कर रही के ऐसे वचन हो और इस व्रत का क्या नाम है? शीलवती सुर्श सुनकर सम्पूर्ण स्त्रियाँ बोलीं-हे शीला! इसका नाम अनन्त व्रत है। इस व्रत में अनन्त देव की पूजा की जाती है। यह वचन सुन शीला बोली- मैं भी इस उत्तम व्रत को करूंगी और स्त्रियों से पूछा कि इस व्रत का क्या विधान है और इसमें क्या दानादि होगा? तथा किस देवता की पूजा होती है? उसके यह वचन सुन सब स्त्रियाँ बोलीं-हे शीला! अच्छे अन्न का एक सेर मालपुआ बनवावें जिसमें से आधा भाग ब्राह्मण को दें, में आधा आप भोजन करें और कृपणता को त्यागकर शक्तिनुसार ब्राह्मण को दक्षिणा दें, किसी नदी के किनारे अनन्त का पूजन करें, कुशा का । शेषनाग बनाकर बांस की टोकरी में स्थापित करें, फिर उस शेष का आवाहन प्राण-प्रतिष्ठा करके स्नान करावें और वेदी पर चंदन, पुष्प, धूप, दीप और बहुत प्रकार के नैवेद्य, अनेकों प्रकार के पकवानों से उनकी पूजा करें, उस शेष के आगे कुंकुम से रंग कर उसमें चौदह गाँठ लगाकर उस डोरे का पूजन कर पुरुष अपने दाँये हाथ में और स्त्री अपने बाँये हाथ में बाँधते हैं। बाँधते समय यह मन्त्र पढ़ें-हे वासुदेव! इस संसाररूपी सागर में हाथ डूबते हुए मेरा उद्धार करें, ऐसा श्री अनन्त सूत्र है उसके लिये मेरा नमस्कार है।
तदनन्तर सूत्र को हाथ में बाँधकर अनन्त की इस कथा को सुने और संसार रूपी नारायण अनन्त का ध्यान करें, हे शीला इस प्रकार हमने तुमसे इस व्रत का विधान कहा, । श्रीकृष्णजी बोले-हे युधिष्ठिर! उस शीला ने स्त्रियों के ऐसे वचन सुन अति आनन्द को प्राप्त हो, हाथ में चौदह ग्रन्थि युक्त डोरा बाँधकर इस व्रत को किया, मार्ग के अर्थ जो भोजन दिया गया था आधा ब्राह्मण को खिलाया शेष आप दोनों ने भोजन कर आनन्द से पति के साथ बैलगाड़ी में बैठघर गई। उस समय से शीला को व्रत का प्रभाव मालूम हुआ। अब अनन्त व्रत करने से गौ, धन और लक्ष्मी से उसका घर परिपूर्ण हो गया। अतिथि के सत्कार में शीला सदा लगी रहती थी और । माणिक्य स्वर्ण मोतियों के हारों से सुसज्जित हो गई, देवताओं की स्त्रियों के समान धन पुत्रादि से युक्त हो सावित्री के समान पतिव्रत हो । पति के साथ आनन्द से रहने लगी। किसी समय उसके पति ने शीला के । हाथ में अनन्त का डोरा बँधा देखा और पूछा-हे शीला! इस डोरे को तूने मुझे वश में करने को बाँधा है, सत्य कह किसके अर्थ तूने यह डोरा धारण किया है? शीला बोली-हे स्वामी! जिसके प्रसाद से मनुष्य इस लोक में धनधान्यादि संपदाओं को पाते हैं उसी अनन्त के डोरे को मैंने धारण किया है। शीला के ऐसे वचन सुनकर उसके पति कौडिन्य ऋषि ने लक्ष्मी के मद से अनन्त के डोरे को तोड़ डाला और बोला यह अनन्त कौन है? उस मूढ़ ने डोरे को जलती हुई आग में डाल दिया। तब हायहाय कर दौड़ती हुई शीला ने अनन्तसूत्र को अग्नि से निकाल कर दूध में | डाल दिया। इन कर्मों के फल से कौडिन्य के सब ऐश्वर्य नष्ट हो गये। चोर उसकी गौ चुरा ले गये, आग से उसका घर जल गया और जो । पदार्थ जिस प्रकार से आया उसी प्रकार से गया, अपने स्वजनों से कलह तथा बन्धुओं से नित्य प्रति झगड़ा होने लगा। उसी अनन्त के डोरे को । तोड़ने से घर में दरिद्रता आ गई। भगवान् बोले-हे युधिष्ठिर! उससे कोई मनुष्य बोलता भी न था, पीड़ित शरीर से अत्यन्त दु:खी होकर वह । बोला-हे शीले! मुझे अकस्मात् शोक होने का क्या कारण है? मेरा सब धन नष्ट हो गया, कोई मुझसे बात नहीं करता और देह में नित्य प्रति पीड़ा होती है। हे शीले! मुझसे क्या अपराध हुआ है और क्या करने से मेरा कल्याण हो सकता है? पति के ऐसे वचन सुन शीला बोली हे। स्वामी! आपने जो अनन्त के डोरे का आक्षेप किया उसी के पाप का यह फल है। हे महाभाग! भविष्य में द्रव्य आदि सब होंगे परन्तु उसके लिए उपाय करो।
शीला के वचन सुन वह अति दुःखी हो तप करने का संकल्प ले वन में जा आयुलक्षित करके तप का विचार करने लगा कि ऐसे जगदीश्वर अनन्त का दर्शन जिसकी प्रसन्नता से द्रव्यादि पदार्थ । । मिलते हैं और उसके हस्तक्षेप से सब पाप नष्ट हो जाते हैं, कहाँ पर मिलेंगे। धनादि पदार्थ होने के सुख तथा दु:ख से यह विचार करता हुआ वह निर्जन वन में घूमने लगा। वहाँ उसने फलों से सम्पन्न वृक्ष देखा जिसमें कीड़े पड़ गये। यह देख कौडिन्य ने वृक्ष से पूछा तूने किसी स्थान में अनन्तदेव को देखा है? हे सज्जन! देखा हो तो मुझे बताओ क्योंकि उन्हें न देखने से मेरे चित्त में बड़ा दु:ख हो रहा है। यह सुन वृक्ष ने कहा-हे कौडिन्य मैंने अनन्त को कहीं नहीं देखा। ऐसे उत्तरको सुनकर कौडिन्य ऋषि महा दुःखी होकर आगे को चले। श्रीकृष्ण जी बोले-हे युधिष्ठिर! अनन्त के दर्शन की
भगवान विष्णु
लालसा करते हुए ऋषि ने वन । में इधर-उधर घूमती हुई बछड़ों सहित गौ को देखकर उसने गाय से । पूछा-हे धेनु! तूने अनन्त को देखा हो तो बता? यह सुन गाय ने कहा-हे द्विज! मैं अनन्त को नहीं जानती हूँ आगे चलकर एक बैल को देखा, ऋषि ने उससे भी पूछा-हे गौ-स्वामिन् तूने अनन्त को देखा है? बैल बोला मैंने अनन्त को नहीं देखा है। तब कौडिन्य ऋषि ने आगे चलकर दो पुष्कर्णियों को देखा, जिनके कल्लोल से परस्पर लहरें मिल रही हैं और कमल, कुमुदिनी बहुत प्रकार से शोभा दे रही हैं तथा भ्रमर, हंस, ॥ चकवा तथा सारस-बगुला जाति के पक्षी क्रीड़ा कर रहे हैं। उस कौडिन्य ने पुष्कर्णियों से पूछा तुम दोनों ने अनन्त को देखा है? यह सुन पुष्कर्णियों ने उत्तर दिया, हे द्विज! हमने अनन्त को नहीं देखा। आगे चल उसने । गधा तथा हाथी को देखकर उनसे पूछा तुमने अनन्त को देखा है।उनसे भी संतोषजनक उत्तर न मिलने पर उसकी आशा नष्ट हो जाने से वह वन में बैठ गया। हे युधिष्ठिर! कौडिन्य जीवन की आशा छोड़कर विह्वल हो बहुत गर्म श्वांस छोड़ता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। थोड़े समय में सावधान होने पर, हेअनन्त! ऐसा कहते हुए कौडिन्य ने उठकर संकल्प किया कि प्राणों को छोड़ दूंगा। हे युधिष्ठिर! तब वृक्ष पर मरने के लिए फाँसी डाली थी तभी अनन्त जी प्रत्यक्ष होकर आ गये। ब्राह्मण का रूप धारण किये अनन्त ने कहा, हे द्विज! इधर आओ और उसका दाहिना हाथ पकड़कर पर्वत की गुफा में चले गये। वहाँ सुन्दर स्त्री पुरुषों से युक्त उस ऋषि को अपनी पुरी को दिखाया। वहाँ पर एक दिव्य सिंहासन पर बैठ और शंख, चक्र, गदा, पद्म और गरुड़ सहित विश्वरूप अपनी विभूतियों के भेदों से अधिक तेज और कौस्तुभि मणि सहित वनमाला धारण किये हुए थे। उन देवताओं के देव जो किसी से न पराजित होने वाले हैं। उन विश्वरूप को कौडिन्य ऋषि देखकर उनकी स्तुति करने के लगे। हे पुण्डरीकाक्ष! मैं पापी हूँ, पाप-कर्म करने वाला पापात्मा हूँ, मैं पाप से उत्पन्न हूँ, आप मेरी रक्षा करें और मेरे पापों को हरें । हे जगदीश्वर! आज मेरा जीवन तथा जन्म दोनों धन्य हैं।
तुम्हारे चरण कमलों पर मेरा मस्तक भ्रमर के समान स्पर्श कर रहा है। कौडिन्य ऋषि के वचन सुनकर अनन्त देव मधुर वाणी से बोले-हे कौडिन्य ! तुम निर्भय होकर अपने मन की बात मुझसे कहो? तब कौडिन्य बोले मैंने अपनी सम्पत्ति के घमण्ड में आकर अनन्त का डोरा तोडकर उसकी निन्दा की, जिससे मेरी सब संपदा नष्ट हो गई। स्वजनों से नित्य झगड़ा होता है और मुझसे कोई बात भी नहीं करता। महा दुःखी होकर तुम्हारे दर्शनों के लिये आया हूँ। अनन्त भगवान् की कृपा से दयापूर्वक आपने मुझे दर्शन। दिया। मैंने जो पाप किया है कृपया उसकी शान्ति का उपाय मुझे बतलाइये। श्रीकृष्णजी बोले-हे युधिष्ठिर! भक्ति से संतुष्ट होकर अनन्त देव क्यान देवें। अनन्त भगवान् बोले-हे कौडिन्य! विलम्ब मत कर अपने घर को जा और चतुर्दश वर्ष तक भक्तिपूर्वक कर। तू सब पापों से छूटकर सिद्धि को प्राप्त करेगा, तेरे पुत्र-पौत्र होंगे अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा | तथा सुखों का उपभोग करेगा। अन्त समय में मेरा स्मरण होगा और पीछे नि:संदेह अमरपद को प्राप्त होगा। सम्पूर्ण लोगों के उपचार के | लिए मैं तुमको और भी वर देता हूँ। सम्पूर्ण विधि से इस व्रत की कथा पढ़ने वाला और शीला के समान इस अनन्त का व्रत करने वाला इस | व्रत के प्रभाव से जल्दी ही सब पापों से छूटकर परमगति को प्राप्त करेगा। हे कौडिन्य! तू जिस मार्ग से यहाँ आया है उसी मार्ग से अपने घर को जा। तब कौडिन्य बोला-हे स्वामी! मैंने वन में घूमते हुए एक आश्चर्य देखा वह आपसे पूछता हूँ। कृपाकर आप उत्तर दीजिये। वह आम का वृक्ष, गौ, बैल, कमल आदि से शोभायमान पुष्कर्णी गधा और हाथी, हे देव! वह सब कौन हैं? आप इन सूत्रों का वृतान्त मुझसे कहिये, तब अनन्त जी बोले-हे कौडिन्य जी! आम का वृक्ष पूर्वजन्म का विद्वान् ब्राह्मण है जो विद्यार्थियों को विद्या दान न देने के कारण वृक्ष हुआ। वह गौ पृथ्वी है उसने पूर्वजन्म में बीज को चुराया है और वह बैल धर्म है। धर्म और अधर्म के कारण वे दोनों पुष्कर्णी हुई हैं। वे पूर्वजन्म में कोई ब्राह्मण जाति की दोनों भगिनी थीं जो धर्म करती थीं वह परस्पर कहती थीं और उन्होंने ब्राह्मणों, अतिथि और दुर्बल को कुछ भी भोजन आदि पदार्थ नहीं दिया था। याचकों को भिक्षा भी नहीं दिया, उस पाप कर्म से परस्पर लहरी और जल एकत्र होता है। वह गधा क्रोध है, वह हाथी मद है और वृक्ष ब्राह्मण है, मैं अनन्त हैं और वह कंदरा संसार है। इस तरह कहकर अनन्तजी अन्तध्यन हो गये। यह चरित्र कौडिन्य स्वप्न समान देखकर अपने घर आये।
श्रीकृष्ण बोले-हे। यधिष्ठिर। कौडिन्य ऋषि ने चतुर्दश वर्ष अनन्त व्रत किया, अनन्त के कहे अनुसार सुख भोगकर अंत में अनन्त का स्मरण कर अनन्तपुर को गया हे युधिष्ठिर! इसी प्रकार तुम भी कथा सुनो और चतुर्दश वर्ष अनन्त व्रत करो। जैसे कौडिन्य ने अनन्तदेव के कहे अनुसार फल प्राप्त किया वैसे तू भी सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करेगा। आख्यान सहित व्रत करने से एक ही वर्ष में मनोरथ पूर्ण होकर फल प्राप्त होता है। हे युधिष्ठिर! यह व्रत मैंने आपको सुनाया इस व्रत के करने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है, इसमें संशय नहीं है। जो कथा सुनते हैं वे पापों से छूटकर अनन्तलोक को प्राप्त करते हैं। हे कुरुकुलोद्भव! जो कोई शुद्ध चित्त वाले मनुष्य इस संसार सागर में सुखपूर्वक विहार करना चाहते हैं वे त्रिभुवन के स्वामी अनन्त भगवान् का पूजन करके दाहिने हाथ में सुन्दर अनन्तदेव चतुर्दश ग्रन्थि वाला डोरा बाँधते हैं।