अपना घर (हिंदी कहानी )

ऑफिस में फोन तो बहुत लोगों के बजते थे पर जैसे ही मिलन का फोन बजता तो ऑफिस के लोगों की निग़ाहें उसे देखकर मुस्कुराने लगतीं। मिलन उन्हें अनदेखा करके फोन पर बात करने लगता।
“हां भाई पहचाना मिलन बोल रहा हूं कोई अच्छा सा मकान नजर में हो तो बताओ”
“ अरे, मिलन बाबू इसे क्या हुआ। इतनी जल्दी-जल्दी किराए का मकान बदलोगे तो क्या होगा आपका”?
 “अरे भाई किराए की नहीं खरीदने की बात कर रहा हूं”
“ओ अच्छा…सच्ची”
आवाज अचकचा गई पर अपनी हैरानी छिपाते हुए कहा,
 “याद है मिलन बाबू आपने कहा था अभी किराए पर मकान ले रहा हूं पर जिस दिन अपना मकान खरीदूंगा तो तुमसे ही खरीदूंगा, बड़ा याद रखा तुमने तो”
“हां तो बताओ ना, ऐसे ही थोड़ी फोन किया है, खरीदना है तभी तो बात कर रहा हूं”
 मिलन की आवाज से लग रहा था कि जैसे आज ही मकान की डील फाइनल कर देगा। तभी ऑफिस के बड़े बाबू रामजी ने मिलन को छेड़ते हुए कहा।
“क्यों मिलन बेटा, मिठाई मंगवा लूं”।
मिलन ने उन्हें हंस कर देखा और फिर प्रोपर्टी डीलर से बात करने लग गया।
“थ्री रुम फ्लैट यहीं साऊथ दिल्ली में कितने का पड़ जाएगा”
“मिलन बाबू थ्री बेड रुम 66 स्क्वयर फिट में पड़ जाएगा तीस का”
“अरे क्या बात कर रहे हो कोई 20-25 का बताओ”
“सॉरी, मिलन बाबू 20-25 में तो साऊथ दिल्ली भूल जाओ”
 “अरे यार तुमने तो कहा था कि 20-25 में मिल जाएगा”
“पर कब कहा था? ये तो सोचो… आज से दस साल पहले, जब आप दिल्ली में आए-आए थे”
 “ दस साल में इतने रेट बढ़ गए”
“शुक्र करो दस गुणा नहीं बढ़े”
“चलो दिल्ली से बाहर ही बताओ बस इससे ज्यादा ऊपर नहीं जा सकता”
 “ठीक है..तो इस शनिवार को सुबह साढे दस बजे तैयार मिलना”
मिलन हर शनि-इतवार या छुट्टी वाले दिन अपनी बाईक पर प्रोपर्टी डीलर को बैठाए इधर-उधर घूमता रहता। जहां बजट बैठता वहां घर पसंद नहीं आता। जहां घर पसंद आता वहां बजट बहुत ज्यादा होता। मिलन भी मार्किट की डिमांड देखते हुए 20-25 से 27-28 तक आ चुका था।
साल भर से मिलन का यही हाल था। सांई प्रोपर्टी डीलर, गणेश प्रोपर्टी, वैष्णो माता प्रोपर्टी डीलर, परफक्ट प्रोपर्टी, गौर प्रोपर्टी, अंसल प्रोपर्टी और पता नहीं कितने प्रोपर्टी डीलरों से वो देखने दिखाने की बातें करता और शनि-रविवार देखने का समय फिक्स करता। मिलन की प्रोपर्टी के बारे में जानकारी देखकर ऑफिस में उसका मजाक उड़ता कि
“भाई पार्ट टाईम तू अब यही काम कर ले”
पर मिलन के पास इतना समय नहीं था कि वो किसी के सवाल का जवाब देता उसे तो बस जल्दी जल्दी से अपना घर लेना था दिल्ली में। मिलन को रॉयपुर से दिल्ली आए दस साल हो गए थे। अब उसकी एक ही इच्छा थी कि  दिल्ली में उसका अपना घर हो। जहां वो अपने माँ-बाबा को दिल्ली में अपने घर का सुख दे सके। वो हर ग्यारह महीने बाद घर बदलने के चक्कर से दूर होना चाहता था। पर माँ-बाबा चाहते थे कि उसकी शादी हो जाए। बाबा ने मिलन की माँ के हाथ में ग्रेजूयटी का चेक रखते हुए कहा.
“ये लो आठ लाख का चेक इसे मिलन की शादी में खर्च करेगें। तब तक के लिए फिक्स करा दो”
मिलन ने वो चेक अपने हाथ में लेकर कहा,
“बाबा भूल जाओ ये पैसा, इससे तो घर लेगें। मेरे पास सोलह लाख हैं आपके आठ लाख मिलाके 24 हो गए बस इतने में तो छोटा सा घर आही जाएगा”
माँ-बाबा ने एक साथ कहा,
“और बहू”
मिलन हंस कर बोला,
“घर होगा तो बहू भी आ जाएगी”
मिलन के इस जवाब से माँ-बाबा ने समझ लिया जरुर इसने कोई पसंद कर रखी है
हर सुबह उसे यही लगता था कि आज तो वो अपने घर की डील करके ही, वापिस जाएगा। पर ऑफिस वालों के लिए मिलन का ये घर ढूंढने का संघर्ष मात्र मसाला था। कोई कहता
 “यार इस उम्र में गर्ल फ्रेंड के फोन आने चाहिए पर तेरे पास प्रोप्रर्टी डीलरों के आते हैं” और वो मुस्कुरा के कहता।
 “उसी के लिए तो घर बना रहा हूं”
दूसरा बात पकड़ता,
“हमें तो लगता था कि तू अपने माँ-पिताजी के लिए बना रहा है”
मिलन सिर्फ मुस्कुरा के बिल्डर साईड पर बने बढ़े-बढ़े घरों को हसरत भरी निगाहों से देखता और उन बढ़ी इमारतों में अपना घर ढूंढने लगता। मिलन के लिए पूरे ऑफिस में खूब बातें भी बनने लगीं थीं। ऑफिस में कोई बर्थ डे, शादी फेयरवेल की पार्टी हो तो मिलन का कांट्रिब्यूशन के नाम पर मुंह बन जाता औरों के लिए दौ सौ तीन सौ ज्यादा ना हों पर उसके लिए ये पैसे भी बहुत थे। वो कहता यार मेरे घर का तीन दिन का दूध सब्जी आ जाएगी। पर लोग उसकी मजबूरी को कंजूसी समझने लगे थे।
“क्या यार, क्या है ये  ” ?
“इतनी भी क्या कंजूसी  ” ?
 “दौ सौ-चार सौ तो यार बीड़ी सिगरट में फूंक जाते हैं, और इसे देखो, पैसे ना देने पड़ें तो ये उस दिन ऑफिस ही नहीं आता। या मना कर देता कि मैं पार्टीस में नहीं जाऊंगा”
 “ठीक है ना, ना आए इसके टाईम पर भी कोई नहीं आएगा”
एक-एक पैसा बचा रहा था मिलन अपने घर के लिए। ऑफिस, रिश्तेदार, दोस्तों, जहां खर्चे की बात होती  वो वहां से कट जाता। इस बात का सभी को गिला था।
मिलन ने अपने ऑफिस में ऐलान करते हुए कहा कि
“अब तो कुछ भी हो जाए इस शनि-इतनावर को घर की डील करके ही दम लूंगा”
तभी फोन की घंटी बज उठी राम जी ने हंसते हुए कहा,
“ले शुभ महूर्त है, बात करते ही घंटी बजी है। कल मिठाई लिये बिना मत आइयो”
“हां जी हैलो”
 मिलन ने हंसते हुए फोन उठाया
“हैलो,
अरे माँ ये तुम किसके फोन से फोन कर रही हो”
बेटा यहां किसी बेचारे भाई के फोन से कर रहीं हूं। तुम सीधे मैक्स हॉस्पिटल आ जाओ। बाबा एडमिट हैं।
 “क्या हुआ बाबा को”
माँ की घबराई आवाज से यही निकला।
 “पता नहीं, बस तुम आ जाओ”
मिलन कुछ देर में हॉस्पिटल में था।
कई दिन तक वो 61 साल की हड्डियां डॉक्टर का हर अत्याचार सह रहीं थी और याद कर रहीं थीं पत्नी के उन हल्दी लगे फोहो को जिनके चोट पर लगते ही वो कितनी जोर से चीख पड़तीं थीं पर इन डॉक्टरों के आगे वो हड्डियां अपनी आवाज खोती जा रहीं हैं। बोलती भी क्या। उन्हें तो भगवान का रुप मानते हैं। पूरे 15 दिन उन बूढ़ी हड्डियों पर एक्स्पेरिमेंट होते रहे फिर वो शक पर आए कि हमें शक है कि इन्हें फेफड़ों का कैंसर है। फिर 15 दिन उस शक को सच्चाई में बदलने में निकले। माँ और मिलन ये सोचते रहे कि पिताजी तो सिगरेट को हाथ भी नहीं लगाते तो उन्हें कैंसर कैसे हो सकता है? पर उन्हें क्या पता था कि आजकल धुंए को हम नहीं निगलते। धुंआ हमें निगल रहा है। शक की रिपोर्ट आ चुकी थी। मिलन के पिताजी को कैंसर है। फेफड़ों का। जैसे ही माँ ने रोना शुरु किया तो डॉक्टर ने उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा,
 “अरे माताजी रो क्यों रहीं हैं, हम हैं ना, और अब तो मेडिकल साइंस भी कितना एडवांस हो चुका है। हर बीमारी का इलाज है। और फेफड़ों का कैंसर तो बिल्कुल ठीक हो सकता है। पर इनको एडमिट करना पड़ेगा।
मिलन ने डॉक्टर को देखा “पर बाबा तो एडमिट तो ही हैं”
 “नहीं, अभी डॉयग्नोज नहीं हुआ था। तो वो जनरल पेंशट थे तो इसकी पेमेंट देकर क्लोज करें और री-एडमिट करें कैंसर पेंशट में”
मिलन को डॉक्टर की कोई भी बात समझ नहीं आ रही थी। पर माँ को डॉक्टर, भगवान नजर आने लगा था। माँ को पूरा विश्वास था की मिलन के बाबा जल्दी ठीक हो जाएगें।
हॉस्पिटल की दो-चार मंजिलों की भाग दौड़ करने के बाद उसके हाथ में फाइनल बिल आया तो उसने दो-तीन बार पूछा, “ये बिल  मेरा है”। कैशियर लड़की थी फिर भी गुस्से में बोली.. “आपके फादर का नाम मृत्युजंय सिंह है”
“हां ”
“तो आपका ही बिल है”।
 “ये साढ़े तीन लाख का बिल है, 15 दिन का साढ़े तीन लाख का बिल” ?
कैशियर फालतू की बहस नहीं करना चाहती थी तो उसने कहा आप अपने डॉक्टर से बात करें।
मिलन जानता था इस बिल को तो देना ही पड़ेगा इसमें कोई गुंजाइश नहीं है इंशोयरंस वाले भी कैंसर का पैसा नहीं देते। मिलन बहुत उदास था। माँ उसे बार-बार समझा रही थी कि
 “अरे चिंता ना कर डॉक्टर ने कहा है ना तेरे बाबा जल्दी ठीक हो जाएगें।”
 “माँ कैंसर ठीक नहीं होता ये डॉक्टर पागल बनाते हैं। सारा का सारा पैसा चला जाएगा और हाथ आएगी सिर्फ लाश और फिर हम कभी भी अपना घर लेने की सोच भी नहीं पाएगें। बाबा को आप घर ले चलो माँ उनके लिए अपना घर लेगें तो वो शांति से मर पाएगें”
मिलन का दिल कर रहा था कि ये सारी बात वो अपनी माँ को कहे कि अब वो एक और भी पैसा उस बीमारी पर खर्च नहीं करना चाहता जिसमें जीने का कोई आसार ही नहीं हैं। पर उसने अपने माँ के चेहरे की शांति देखते हुए अपने को दुनिया वालों की तरह हिम्मत दी,
 “इंसान जिंदा रहना चाहिए पैसा तो फिर भी आ जाता है ”।

सुनीता अग्रवाल

अब मिलन की जिंदगी अस्पताल, घर और ऑफिस के बीच झूल रही थी। मिलन का मेहनत से बचाया हुआ एक-एक पैसा अस्पताल रुपी राक्षस एक बड़ी-बड़ी बाईट के साथ डकार रहा था पर उसका पेट था कि भरने का नाम ही नहीं ले रहा था। कहां से आएगा और पैसा 20 लाख खर्च हो चुका था। मिलन जब-जब पिताजी को देखता उसे एक बार भी नहीं लगता कि उनमें कोई भी इम्प्रूवमेंट है। वो हमेशा ऐसे ही लगते जैसे किसी टॉर्चर चैम्बर से निकल कर आए हों। 61 साल की उन हड्डियों में जान कहां थी जो कैंसर के ट्रीटमेंट को झेल पाती। पिताजी जब से कैंसर के टार्चर चैंबर में गए थे तब से उनकी आँखे खुलती भी थीं तो ये कहने को खुलती कि मैं घर कब जाऊंगा। पर डॉक्टरों का कहना था कि उन्हें हम मौत के मुंह से निकाल लाएगें आप हम पर विश्वास करिए। और कुछ लाख रुपये और जमा करा दिजिए।
माँ ने मिलन की और देखा। मिलन सोच रहा था कि पिताजी के भी तो चार लाख रुपये ही बचे हैं। अगर उनको भी निकाल लिया तो क्या बचेगा? माँ ने अपने जेवर मिलन के हाथ में रखते हुए कहा
“तू इन्हें गिरवी रख दे मुझे तो जरुरत है नहीं, अपनी बहू के लिए तू बाद में उसकी पसंद का बनवा लेना”
मिलन अब कुछ भी नहीं करना चाहता था पर उसने कुछ नहीं किया तो माँ उसे कभी माफ नहीं कर पाएगी। लोग थूकेगें कि बेटे ने अपने बाप के ईलाज में पैसा लगाने में कंजूसी कर दी। लोगों ने कहना भी शुरु कर दिया था कि
“बेटा किसी बात की चिंता मत करो कर्जे की तो चिंता ही मत करो,  शादी, मकान, बीमारी ये कर्जा लिए बगैर कहां पूरे होते हैं”
पर वो देगा कहां से इसलिए उसने डॉक्टर से बाबा को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने की बात की तो ये सुनते ही रिश्तेदारों ने मिलन को दस बातें सुना दीं और माँ की आशावान आँखो में आँसू आ गए और पर डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए कि
“आप बेश्क ले जाएं पर फिर हमारी गांरटी नहीं है अगर आपके फादर को बीच में कुछ हो जाए तो”
मिलन ने अपने प्रॉविडेंट फंड निकलवाने की एप्लीकेशन दे दी थी। डॉक्टर और पैसा मांग रहे थे। डॉक्टर उधार इलाज नहीं करते। मिलन के पास अब कुछ नहीं बचा था वो पैसे के लिए पागलों की तरह इधर-उधर भाग रहा था। हर किसी को उसने पैसों के लिए फोन किया था सभी का जवाब था कि कुछ होता है तो बताते हैं। बहुत मुशिकल से ढाई लाख रुपये प्रॉविडेंट फंड से निकले। और बिल था साढ़े तीन लाख का। माँ के गले में पड़ी चेन, कान के बूंदे, बेचने पर भी 75 हजार रुपये हाथ में आए। पर अब भी 25 हजार रुपये चाहिए थे। सारी दुनिया के लोगों से वो मांग चुका था। जैसे ही फोन की घंटी बजती तो वो इस उत्साह से उठाता कि कोई पैसे देने के लिए फोन कर रहा है।
 “हां बोलो,”  
“अरे मिलन बाबू क्या हो गया। कहां खो गए आप आप तो फोन ही नहीं उठाते। अरे नराजगी छोड़ो, आपकी पसंद का फस्ट क्लास का मकान देखा है बस थोड़ सा बजट और बढ़ा लो 27 का 28 कर दो। ऐसी जगह दूंगा कि आप भी जिंदगी भर याद रखेगें”
मिलन ने फोन काट दिया। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कलेजे को जोर से दबा दिया हो। और वो सांस नहीं ले पा रहा। उसे और पैसों का इतंजाम करना था। पर कहां से करे? उसका तो घर भी किराए का था। माँ चिल्लाती हुई बाहर आई मिलन बेटा…मिलन डॉक्टर देख क्या कह रहा।
मिलन ने घबराते हुए कहा “क्या कह रहा है…मैं कर रहा हूं…पैसों का इंतजाम..”
 “नहीं बेटा, वो कह रहा हैं कि बाबा को वेंटीलेटर पर रखना होगा। वेंटिलेटर मतलब जानता है तू”
मिलन का मन रोने लगा था पर फिर उसने उन्हें समझाते हुए कहा  “अरे नहीं माँ, बाबा ठीक हो जाएगें। इतनी मेहनत का पैसा लगाया है हमने उसका सिला अच्छा ही मिलेगा”
मिस्टर मिलन, श्रीमती सरस्वती देवी दोनों नाम अस्पताल में गूंज रहे थे। एक अटेंडंड भागता हुआ आया,
 “आप मिलन हैं, आपके फादर सीरियस हैं डॉक्टर ने आपको बुलाया है”
माँ बदहवास सी भागने लगी मिलन जानता था कि अब उसे अपने बाबा की लाश लेने के लिए पैसों का इंतजाम करना होगा। उसने अपने दोस्त को नंबर मिलाने के लिए जैसे ही फोन जेब से निकाला तो सांई प्रपोर्टी का फोन था
“अरे मिलन बाबू आपको मैं दस सालों से जानता हूं आप नाराज न हो आपके दाम पर आपका मकान हुआ बस एक प्रसेंट मेरी फीस दे देना, एक प्रसेंट, जबकि दो प्रसेंट लोग लेते हैं”
मिलन ने फोन को ऐसे काटा जैसे वो बताना चाह रहा हो कि
“अब मुझे आइंदा से फोन मत करना समझे”
अटेंड ने बाबा का स्ट्रेचर लाकर कैशियर के पास वाले कोने पर खड़ा कर दिया। इशारा था कि एक जिंदा इंसान पर हमने सारे एक्सप्रेरिमेंट कर लिए अब तुम इस लाश को ले जाने के लिए पैसे दो और ले जाओ। मिलन के हाथ में पांच लाख का बिल था और उसके बास तीन लाख पचहत्तर हजार रुपये थे। उसका दिमाग रो नहीं रहा था सोच रहा था अपने पिता की लाश को छुड़वाने के लिए वो और किस-किस से पैसा मांगे?   

यह रचना सुनीता अग्रवाल जी द्वारा लिखी गयी है . आप, बीबीसी मी़डिया एक्शन में एक लेखक के तौर पर कार्यरत है तथा आपने विभिन्न विषयों पर डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म बनाई हैं

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