अभी मैं जिंदा हूँ

अभी मैं जिंदा हूँ


देखा मैंने अंगड़ाई लेते स्वपन को
देखा सागर की गहराई को
देखा पराग पर उस भौंरे को
फिर देखा उस दु: मुही कन्या को
आँखों के पोरों से चु रहे आँसुओं को
देखा पुरूष की पशुता को
मनुष्य की मानवता को
अनिता चौधरी
अनिता चौधरी
याद आई सती, सावित्री, मैत्रेयी गार्गी
फिर याद आ गई ,माँ सीता दमयन्ती
समझा समाज की परिभाषा को
फिर से देखा अबोध कन्या को
गुनाह यही  तू आज कन्या
कल की नारी हैं इस सभ्य समाज की
खोया जग तुझे परिभाषित करने उपमान देने में
कह उठीं अबोध कन्या
रूको अभी मैं जिंदा हूँ
रूको अभी स्वपन का संसार बाकी हैं
अभी पंख खुले हैं क्षितिज जाने को
नवनिर्माण करने को धरा को स्वर्ग बनाने को
देखों ,स्वपन सागर की गहराई से
आँचल पकड़े आ रहा नया सवेरा
जान इसे यह भी तो रूका हैं
कह रहा बार-बार
रुको, रोकों नहीं सवेरे को
फूलों की सुगंध, चिड़ियों को
तोड़ो ना स्वपन संसार को नफरत से
काटों ना पंखों को अपने दम्भ से
जाना हैं क्षितिज पटल तक,नये अध्याय लिखने को
रहना हैं संसार बदलने को
ममत्व लुटाने को
देख मुझे आशाओं की ज्वाला में
डोल गई पुरूष की सत्ता गलियारों में
लघु हुई विचार सीमा
बदल गया मानव पशु में
रोका  छोड़ा, दिया शब्दों का गहना
अब ना होगा सवेरा
ऐसा था कहना
बोल उठीं ज्वाला सी वह
रूको ,अभी मैं जिंदा हूँ
सवेरा होगा मेरे कृत संसार का
नारी थी तभी ना हारी
यह मूलमंत्र होगा संसार का
सूल जग को फूल जग बनाया
तब कहलायी जगदम्बा थी
सजृन ध्वंस शक्ति समाहित इसमें
पर सजृन ही तप साधना इसकी
विनाश रोकना यही उसकी कहानी थी
पशु ना समझा
उसकी यह नादानी थी
बोल उठीं अबोध कन्या
सुनों सभ्य मानव !
ना चाह उपमानों की  सुर्खियों की
ना चाह परिभाषा गढ़नें वाले समाज की
आज की अबोध कन्या
हूँ मैं कल की नारी
इतना मान सभ्य पुरुष 
अभी मैं जिंदा हूँ
                              
-अनिता चौधरी
                              शाहपुरा(जयपुर) राजस्थान

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