पापा के बचपन के किस्से

पापा के बचपन के किस्से

किसी भी बच्चे की सामाजिक और भावनात्म‍क सुदृढ़ता के लिए पिता की अपनी विशेष अहमियत होती है। पिता के बचपन के किस्से जहां बच्चों को आनंद से भर देते हैं वहीं बड़ी बड़ी सीख भी देते हैं।बच्चों के लिए पापा के बचपन के किस्से अपने मित्रों के बीच सुनाने के वे हथियार होते हैं, मानो कहना चाहते हों कि मेरे पापा तो तब से सुपर रहे हैं, जब वे बच्चे थे।प्रायः हर बच्चे के पापा के बचपन के किस्से मिलते जुलते से जान पड़ते हैं।

पापा बड़े दिमागी थे 

पापा को अपने पिताजी से बड़ा डर लगता था, क्योंकि वे सख्त अनुशासित जो हुआ करते थे। पापा के बचपन में उनको पढ़ने के लिए सुबह चार बजे उठना पड़ता था। उन दिनों उनके पिताजी घड़ी के किसी अलार्म से कम
पापा

नहीं हुआ करते थे। पापा अपने सभी चचेरे, ममेरे, फुफेरे छोटे भाई बहनों के साथ सुबह चार बजे उठाए जाते थे, बालों का मच्छरदानी की रस्सी के साथ गठजोड़ कर दिया जाता था, ताकि ऊंघ आने पर नींद खिंचखिंचकर हर हालत में चिढ़कर ही सही कोसों दूर भाग जाए। उस पर भी बीच बीच में उनके पिताजी की कड़क हूंह की आवाज किसी पहरेदार से कम नहीं हुआ करती थी। अक्सर ही सुबह सुबह खासतौर पर गांव की कड़कती ठंड वाले मौसम में पढ़ने का मन बिल्कुल नहीं करता था, पर पहरेदारी इतनी सख्त कि कुछ और खुरापात सोचना मजबूरी बन जाती थी। बिजली न के बराबर रहती थी, अमूमन ढिबरी में ही पढ़ना पड़ता था। सुबह उठाकर उनके पिताजी ढिबरी जलाकर फिर आंख बंद करके सोने का नाटक करते थे। पापा भी कम नहीं चुपचाप माचिस अपने कब्जे में लेकर ढिबरी को फूंक मार देते और ब्रह्मुहूर्त में उठकर पढ़ने की उनके पिताजी की सीख अँधियारे में माचिस टटोलते सी रह जाती। पर मज़ाल नहीं कि वो माचिस कभी मिल पाए, हां बड़े दिमागी थे पापा, अपने बचपन में।


पापा कितने भोले भी थे

पापा भी बचपन में झूठ बोलते थे, चोरी करके पकड़े जाते थे, पर अपने माता-पिता, दादी-दादी और अन्य रिश्तों के प्रति आदर रखते थे। पापा ने बचपन में एक बार अपने पिताजी के दाढ़ी बनाने के सामान से कौतुहलवश ब्लेड उठा लिया था। पिताजी की तरह अपने गालों में साबुन का सफेद झाग लगाए जब ब्लेड से कटी खून टपकाती अपनी नन्हीं हथेलियां लेकर पिता के पास पहुंचे, तब कान पर पहले एक चपत भी झेलनी पड़ी थी। और अम्मा ले आईं थीं हल्दी हथेलियों में लगाने, लेकिन फिर भी मुंह पर सफेद झूठ कि हमने दाढ़ी के सामान को हाथ नहीं लगाया। हाय, कितने भोले रहे होंगे पापा, अपने बचपन में। 

पापा कितने शरारती थे

गर्मियों की छुट्टियों में मामा के घर जाना एक रिवाज सा था, जो कहीं कहीं आज भी बना हुआ है। पापा जब बच्चे
डॉ. शुभ्रता मिश्रा
डॉ. शुभ्रता मिश्रा

थे, तब मामा-मामियों और नाना-नानियों के बेहद दुलारे हुआ करते थे। साल में एक बार ही मिलना इस दुलार की उस पराकाष्ठा तक पहुंचा देता था, कि जहां कुछ दिनों के लिए कोई मार या चपत नहीं, बिल्कुल विशुद्ध ममेरा लाड़। दोपहर की धमाचौकड़ी, आम और जामुन के पेड़ों के नीचे से बार बार पकड़कर लाया जाना, शरबत और सत्तू में मुठ्ठी भरभर शक्कर डालकर घोलघोलकर पीना और भरी गर्मी में भी सर्दी हो जाने पर मीठी सी डांट भी खाना।  फिर एक दिन दिनभर के लिए कमरे में बंद कर दिया जाना और कमरा खोलने पर खुली खिड़की के संकेत के साथ पापा का न मिलना। उसके बाद घर में शुरु हुई पापा की खोज और पापा अपनी बच्चों की टोली के साथ पीछे आम के बगीचे में मिले। सारे बच्चों ने मिलकर बहुत से आम तोड़ लिए थे और एक जगह बैठकर मजे से छिपनी (सीपी को घिसकर बनाई गई छिलनी) से छील छीलकर खाए जा रहे थे। तभी रंगे हाथों पकड़ लिए गए थे पापा। ओफ, कितने शरारती थे पापा, अपने बचपन में।

पापा बहुत खेलते थे

सुबह चार बजे उठकर पढ़ाई हो ही जाया करती थी। उसके बाद स्कूल और वहां से लौटकर या फिर छुट्टियों के दिनों में दिनभर छिपन छिपाई, खो-खो, कबड्डी, लंगड़ी, गिल्ली-डंडा और पतंग उड़ाने वाले खेलों से पापा को बड़ा ही मानसिक व शारीरिक आनंद आता था। एक बार खेल खेल में मौसेरे भाई से झगड़ा हो गया, बात शारिरिक ताकत दिखाने पर उतर आई। मौसेरे भाई साहब तगड़े और मोटे ताजे, पर पापा पैदाईशी दुबले और थोड़ा कमजोर। पर जीतना भी था, इज्जत का सवाल था। दिमाग लड़ाया गया और चुपचाप ऐसी जगह काट दिया जोर से कि भाईसाहब बता भी न सकें। भाईसाहब काटना सहलाते रह गए और पापा खेल में जीत गए। बड़ी विजय के साथ साइकिल के पहिए को लकड़ी से लुढ़काते हुए घर पहुंचे। खिलाड़ियों की टीम पीछे पीछे चली आ रही थी, ये बात आजतक राज़ रही कि पापा भाईसाहब से खेल में जीते कैसे। अगले दिन फिर खेल शुरु। वाह, क्या खेलते थे पापा, अपने बचपन में।

उनके पिता भी पापा के रोल मॉडल थे

हर परिवार में बच्चों के लिए पापा उनके रोल मॉडल होते हैं। परिवार में पिता बच्चों के सबसे भरोसेमंद सदस्य होते हैं,जबकि बाकी सदस्यों से सहायता मांगना बच्चे को कम विस्वश्नीय लगता है। पापा को भी अपने बचपन में अपने पिताजी से बेहद लगाव था। पापा भी अपने पिता की एक उंगली की पकड़ में स्वयं को अधिक सुरक्षित अनुभव करते थे। बचपन में पापा तब यूं भी दिनभर मां से चिपके रहते थे, लेकिन जब कभी बाजार में या सफर करने या किसी भीड़भाड़ वाले स्थान पर होने की बात आती, तब उनको भी अपने पिता के साथ लिपटकर चलना ज्यादा भरोसेमंद लगता था। मां भले ही डांट-डपटकर सुला देती थीं, पर जब तक पिताजी घर वापस नहीं आते थे, पापा भी राह तकते रहते थे, अपने बचपन में।

खो जाते हैं पापा बचपन की यादों में 

आज जब पापा को मम्मी फोन पर बताती हैं, कि बच्चे को आपके बिना नींद नहीं आ रही है, वो अभी तक जाग रहा है, लीजिए उससे थोड़ी बात कर लीजिए। मीटिंग या उसके जैसी ही अतिव्यस्त क्रिया को ताक पर रखकर पापा पहले अपने बच्चे को लोरीनुमा आश्वासन देते हैं और बच्चा एक डिमांड को पूरी करने की आश्वस्ति के साथ तकिए को पहनाए पापा की नाइट ड्रेस और मां के बीच सो जाता है। और फिर पापा के बचपन की किताब के वे पन्ने फड़फड़ाकर खुलने लगते हैं जब वे बच्चे थे और उनके पिताजी किसी काम से तीन चार दिनों के लिए बाहर जाते थे। दिन तो बड़ी राहत और मनमानी के साथ गुजर जाता था, लेकिन रात चुभने लगती थी, बार बार पिता की आवाज कानों में गूंजने लगती थी। जब वे लौटते, तो सारे भाई बहन, बुआ, दादी सभी उनको और उनके थैले को घेरकर बैठ जाते और पिटारे से एक एक करके सबके लिए सामान निकलने लगता। किसका खिलौना सबसे अच्छा है, इस पर सुबह से बहस जारी हो जाती और उधर चाची और अम्मा लगा लाती थीं पिताजी के साथ लाई गईं मिठाइयों के साथ नाश्ते की प्लेटें। खी-खी करके खींसे निपोरते बच्चेनुमा पापा आज भी जब अपने उन रिश्तों के साथ कभी मिलते हैं, तो जीवंत हो जाता है उनका वो बचपन और फ्लेट की खिड़कियों से बाहर जाती हंसी के फब्बारों की फुहारें पूरी सोसायटी में बात फैला देती हैं कि पापा का बचपन लौटा है कुछ दिनों के लिए उनके रिश्तेदारों के साथ।
हांलाकि यह भी सच है कि पापा का बचपन उनके बच्चों के लिए एक प्रेरणा होता है। पापा ने अपने बच्चे होने के दौरान जो भी गलतियां, नादानियां व शैतानियां की हैं, वे अपने बच्चों के साथ इस आशा से साझा करते हैं कि यदि उनके बच्चे अनजाने में वे ही गलतियां कर रहे हैं, तो वे ऐसा न करें।  बल्कि पापा के बचपन से कुछ सीख ले सकें। 

डॉ. शुभ्रता मिश्रा
वास्को-द-गामा, गोवा

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