चाँदनी रात

चाँदनी रात

माना अब तुम साथ नही,
संताप गहरा हो चला।
जीवन के व्याप्त अँधेरे में,
फिर रतजगे का अर्थ क्या।
चाँदनी रात
इस घने अवसाद में भी
उतरे चाँदनी रात बनके
उदीप्त हुयी प्रणय वेदना
हो फलित निर्वाण कैसे।
पुनः बनो तुम हमराह मेरे
सुलभ कर दो चिर चाहना
अवलंब दो निज स्कंध का
व्यर्थ न हो मृदुल याचना।
सोलह श्रृंगार कर व्यथा
आकंठ डूबी रंग प्रीत के
गह लो आ भुजपाश में
विकल मन विश्राम लेले।
स्मृतियो की वीथियों पर
अविराम चल रही सुधिया
उनींदी दिवस के बाहुँपाश में
मकरंद लुटाती थी कलियाँ ।
इस चाँदनी रात में फिर
परिवर्तित चाह उच्छवास में
धधक न पड़े अग्निशिखा
भींगने दे गात प्रेम तुषार से।।

-प्रतिमा त्रिपाठी
राँची झारखण्ड 

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