आती क्या खंडाला!/विचार मंथन

मनोज सिंह

समुद्र की गहराइयां और पर्वत की ऊंचाइयों में प्रकृति के रहस्य छिपे हैं। यूं तो सागर सतह पर शांत और मीलों दूर स्थित क्षितिज तक, जहां तक नजर जा सकती है, एक समान-सपाट इसीलिए कुछ-कुछ नीरस-सा जान पड़ता है। जबकि पहाड़ों की वादियां, घाटियां, जंगल, पेड़, झील, झरने मिलकर नये-नये दृश्य प्रस्तुत करते हैं। कभी बादल संग नृत्य करते हैं तो कभी हवाओं से बात करते हैं और कभी-कभी तो बर्फ से ढककर परिकथा से लगते हैं। समुद्र अपने नजदीक आने भी तो नहीं देता, वहीं पहाड़ अपनी बाहें खोल देता है। फिर भी मनुष्य को दोनों ही आकर्षित और अचंभित करते हैं। इनके अद्भुत नजारे ही हैं कि समुद्र के किनारे आदमी बसता है तो पहाड़ों की ओर अमूमन भागता है। दोनों ही प्रकृति की विशालतम रचना, विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती हैं, एक आकाश को छूता हुआ तो दूसरा पाताल तक पहुंचता हुआ। समुद्र की ऊपरी सतह बेशक निर्जीव लगे, मगर उसने भी अपने सीने में अनमोल-रत्न छिपा रखे हैं, मनमोहक दृश्य समेटे हुए हैं। पानी के अंदर उसकी अपनी एक निराली दुनिया है। रंग-बिरंगी मछलियां, अनगिनत जीव-जंतु। सब कुछ कल्पना से परे, अनोखा, जीवंत। सीप और शंख, सब आपस में जलमग्न होकर अठखेलियां खेलते हुए नजर आते हैं। बहरहाल, यह दुनिया आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर है। और इसीलिए समुद्र के किनारे बैठा इंसान उसकी विशालता को न केवल स्वीकारता है बल्कि भयभीत भी रहता है। पहाड़ दुर्गम हो सकते हैं मगर असंभव नहीं। शायद इसलिए इंसान को अधिक पसंद हैं। वैसे सागर और पर्वत की आपस में कोई सीधे-सीधे प्रतिद्वंद्विता नहीं, लेकिन यह एक-दूसरे के नजदीक होने पर कितने रमणीक हो सकते हैं, इसके उदाहरण दुनिया में खोजे जाने चाहिए। और फिर वहां के निवासियों से उनकी पसंद-नापसंद की एक प्रश्नावली रची जा सकती है। कल्पना करें, एक ओर प्रशांत महासागर हो और साथ में लगा हिमालय। शायद यह दिव्य दृश्य होगा। कहा तो यह भी जाता है कि सबसे ऊंचे हिमालय के स्थान पर आदिकाल में समुद्र ही था।
समुद्र के किनारे दूर-दूर तक, रेतीले मैदान या ज्यादा से ज्यादा पथरीले टीले मिल जाते हैं। मगर मुंबई इस मामले में प्राकृतिक रूप से भी भाग्यशाली है। अरब सागर के तट पर बसे शहर के नजदीक से पहाड़ की एक लंबी श्रृंखला गुजरती है। पश्चिमी घाट के नाम से जानी-जाने वाली सहयाद्री पहाड़ों की चोटियां, अरब सागर के समानांतर उत्तर में गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल तक फैली हुई हैं। वैसे मुंबई अपनी व्यवसायिकता के कारण जाना जाता है। समुद्र के किनारे होने से इसकी प्रमुखता बढ़ी है। यह एक महत्वपूर्ण बंदरगाह है। समुद्र मार्ग से व्यापार की सदियों पुरानी प्रथा रही है। इन सबके बावजूद मुंबई जितना अपनी फिल्म सिटी के कारण मशहूर है, ठीक उतना ही प्रसिद्ध यह पास में स्थित खंडाला हिल स्टेशन के लिए भी है। यह कहना तो उचित नहीं होगा कि 'आती क्या खंडाला' फिल्मी गाने से यह लोकप्रिय हुआ, मगर शायद इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हो सकती कि युवा-प्रेमी द्वारा प्रेमिका को खंडाला आने का खुला निमंत्रण सुनकर यह गाने का मुखड़ा आम लोगों के बीच अधिक प्रचलित हुआ। यह जमीनी हकीकतें हैं। सहयाद्री की पहाड़ियों पर स्थित प्रेमी-युगल के मिलन का खूबसूरत व सुरक्षित स्थान, वास्तव में रमणीय स्थल है। भू-वैज्ञानिक फिर चाहे इसे असली पर्वत न माने, मगर आम पर्यटकों के लिए यहां की ऊंचाइयां, पहाड़ की सर्पीली घाटियां, ठंडी हवा, घने जंगल, मदमस्त बादल, टेढ़े-मेढ़े रास्ते, प्रकृति श्रृंगार-रस में डूबी प्रतीत होती है। यह एक पारंपरिक हिल स्टेशन का नजारा देता है। उसी तरह की सड़कें, उसी तरह के मकान, खाने-पीने की व्यवस्थाएं और फिर प्राकृतिक एकांत। हां, यह कैसे हो सकता है कि मात्र पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक महानगर अपना प्रभाव न छोड़े? बाजार का असर यहां भी दिखाई देता है। सड़क के किनारे अनगिनत होटल, लगता है कहीं कुछ बचा ही नहीं है। पहाड़ों की छाती को चीरकर, दिल से निकलता प्रतीत होता पूना-मुंबई एक्सप्रेस हाईवे, उस पर चीख-सी आवाज निकालती हवा से बातें करती कतारबद्ध गाड़ियां। पुराने हाईवे पर भी गाड़ियों की रेलमपेल मची रहती है। यह प्रारंभ से ही एक व्यस्तम व प्रमुख हाईवे है। तथाकथित विकास की इस रफ्तार से भविष्य में न जाने कितने हाईवे बनाने होंगे। क्या करें! मुंबई और पूना के आमजन से लेकर अच्छे-अच्छे रईस भी फुर्सत मिलते ही यहां दौड़े चले आते हैं। क्रंकीट और कांच की दीवारों से बने मॉल के नकली वातावरण उन्हें लंबे समय तक रोक नहीं पाते। आज भी दो पल के राहत के लिए दिल पहाड़ों की ओर भागा चला आता है। शायद यही कारण है कि सामान्य होटलों से लेकर स्टार रिसोर्ट तक अनगिनत संख्या में यहां फल-फूल रहे हैं।
कला और प्रकृति का बहुत नजदीकी संबंध है। कलाकार प्रकृति के बीच में ही जाकर अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाता है। सृजन के लिए प्रकृति की गोद सबसे उत्तम स्थल है। तभी तो मुंबई के तमाम कलाकार सृजनता के लिए यहां खींचे चले आते हैं। सितारों की आरामगाह है यह। अधिकांश छुट्टी मनाने के लिए यहां आते हैं। तभी तो सभी के निजी फार्म-हाउस या अतिथिगृह बने हुए हैं। असीम शांति होने के कारण संगीतकार हो या गीतकार, यहां तक कि निर्माता-निर्देशक भी कहानी सुनने के लिए कहानीकारों के साथ यहां समय बिताते हैं। उपन्यास लिखने के लिए तो यह एक बेहतरीन स्थान हो सकता है। चरित्र और चित्र दोनों ही भरपूर उपलब्ध हो जाते हैं। कोई समय था जब पुराने सदाबहार कलाकारों का जमावड़ा यहां लगा रहता था। साहित्यकार भी जमा होते थे। तबकी फिल्मों में कथा का प्रवाह होता था। अधिकांश उपन्यास पर आधारित होते थे। तभी तो फिल्में दर्शकों को बांधे रखती थीं। आज भी इन्हें देखने पर ऊब नहीं होती। आज का सितारा यहां कम आता है, उसके लिए पश्चिम के द्वार खुले हुए हैं। तभी तो फिल्मों में स्विट्जरलैंड तो है मगर कहानी नहीं है। कह सकते हैं जिंदा तो हैं मगर आत्मा नहीं है। और शायद इसीलिए ये फिल्में लंबे समय के लिए बांध नहीं पातीं। गुलशन नंदा को तथाकथित हिन्दी साहित्य ने चाहे न स्वीकारा हो मगर उनके उपन्यास पर आधारित कोई भी फिल्म फ्लाप नहीं हुई और आज भी चाव से देखी जाती हैं। उनका अधिकांश उपन्यास-लेखन पहाड़ों के बीच में ही हुआ करता था। मुझे उनके उपन्यासों से कभी कोई शिकायत नहीं रही। माना उससे समाज में क्रांति नहीं हो सकती। लेकिन प्रेम की गहराई और दर्द तो था ही। और पर्दे की पीड़ा दर्शकों के दिल से जुड़कर आंखों में उतर आती थी।
विगत दिवस खंडाला में समय बिताते हुए एक बार पुनः जीवन में उत्साह का संचार हुआ। हिमाचल में कई वर्ष बिताने के बाद यहां आने पर वो ऊंचाइयां तो नहीं लगी लेकिन प्रकृति की उपस्थिति का आभास जरूर हुआ। पहाड़ों की गोद में सुंदर रिसोर्ट में रहने का अपना ही मजा है। और फिर राजकमल द्वारा प्रकाशित अपने नये उपन्यास 'हॉस्टल के पन्नों से' के पेपर बैक संस्करण का लोकार्पण इस तरह से प्रकृति के बीच में संपन्न हो, इससे बड़ी खुशी की बात क्या हो सकती है। और इसका मुझे एक नया अनुभव हुआ। वो रंग-बिरंगी शाम से निकलकर चारों ओर उतरती चांदनी रात थी। पहाड़ की चोटी पर, खुले में बैठते ही, जहां दूर-दूर तक घाटियां और जंगल ही जंगल हो, अमूमन आदमी अपने आपसे बातें करने लगता है। ऐसे जीवंत वातावरण में जहां हवाएं भी स्पंदित हो, उपन्यास के पात्रों और कथासूत्र पर चर्चा होना, मेरे लिये विशिष्ट था। उपन्यास पर सवार होकर कुछ मित्रों ने पुरानी यादों को भी ताजा किया। धुंधली हो चुकी बातें पुरानी शराब की तरह धीरे-धीरे असर करती हैं।
अगले दिन लोनावाला व खंडाला की सड़कों पर घूमते-घूमते इस बात का अहसास हुआ कि रईसों ने प्रकृति के हर रूप पर अपना आधिपत्य दर्शाने की सफल कोशिश कर रखी है। इन पहाड़ों पर बड़े-बड़े प्राइवेट फार्म-हाउस हैं। पूरी की पूरी नयी सिटी को ही बसा दिया गया है। मनुष्य अपनो के बीच भी कितनी दीवारें खड़ी कर सकता है, कई जगह देखा-सुना है, मगर यहां अधिक महसूस होता है। पहाड़ की चोटियों को किलेबंद कर दिया गया है जहां आधुनिक उच्च वर्ग निवास करते हैं। यह कैसा विकास का स्वरूप है? जहां मानव के बीच सामाजिक समानता, उलटे कम होती चली जा रही है। बहरहाल, नदी, हवा, पहाड़, समुद्र ऐसा कोई खेल नहीं खेलते। कुचक्र नहीं चलाते। हां, हम उनके साथ जरूर मजाक करते रहते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस तो इस बात को देखकर हुआ कि हम अपने दर्शनीय स्थल को, जहां हम छुट्टियां मनाने जाते हैं, गंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। एक छोटा-सा सवाल मन में हमेशा उठता है कि हम अपनी सुंदर प्रकृति का कितने गलत तरीके से जबरदस्त दोहन कर रहे हैं। अगली बार जब कभी इन क्षेत्रों में जाएं तो एकपल रुककर चारों ओर नजर घुमाएं, देखें कि जिस प्रकृति ने हमें इतना सौंदर्य दिया है, हम उसे बदले में क्या दे रहे हैं?
 
 

 यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.


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