श्रृंगार रस की कविता

श्रृंगार रस की कविता की ताकत

मेरी श्रृंगार रस की
कविता सुनकर
एक युवती पिघल गई
घर बार छोड़कर
मेरे घर आ गई
आपकी कविता मुझको भा गई
मन समर्पित,तन समर्पित
आप सादर स्वीकार करें
मैं कई कवियों को
ठुकरा के आई हूँ
मेरे नयन
मेरे होठों की नरमी से
आपकी श्रृंगार रस की कवितापरिपक्व होगी
कहाँ से आई मुसीबत
मैं तो काका की कविता
चुरा के सुनाई थी
बड़ी ढीठ थी
वह मेरे करीब बैठ गई थी
नयनों से घूर रही थी
श्रृंगार रस मुझे पिला रही थी
अब समझा
श्रृंगार रस की कविता की ताकत
मेरा घर बार उजाड़ रह थी

(2)

बन गया कवि

घर बार बेंचकर
पत्नी मायके भेजकर
बन गया कवि
विरह वेदना में लगा जलनें
वियोग का बना कवि
किसी कविता पर
एक फूटी कौड़ी न मिली
जूता फटा है
मोजा फटा है
तीन दिन से भूखा सो रहा हूँ
सारा नशा गया उतर
कवि नहीं बनूँगा
यह धंधा बहुत खोटा है
कवि खुद मरा है
दूसरों को क्या उबारेगा.

यह रचना जयचंद प्रजापति कक्कू जी द्वारा लिखी गयी है . आप कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं . संपर्क सूत्र – कवि जयचन्द प्रजापति ‘कक्कू’ जैतापुर,हंडिया,इलाहाबाद ,मो.07880438226 . ब्लॉग..kavitapraja.blogspot.com

You May Also Like