बरखा की रात /महेंद्र भटनागर

महेंद्र भटनागर

.
दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन !
.
धरा ऐसी कि जिसने नव
सितारों से जड़ित साड़ी उतारी है,
सिहर कर गौर-वर्णी स्वस्थ
बाहें गोद में आने पसारी हैं,
.
समायी जा रही बनकर
सुहागिन, मुग्ध मन है और बेसुध तन !
दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन !
.
कि लहरों के उठे शीतल
उरोजों पर अजाना मन मचलता है,
चतुर्दिक घुल रहा उन्माद
छवि पर छा रही निश्छल सरलता है,
.
खिँचे जाते हृदय के तार
अगणित स्वर्ग-सम अविराम आकर्षण !
दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन !
.
बुझाने छटपटाती प्यास
युग-युग की, हुआ अनमोल यह संगम,
जलद नभ से विरह-ज्वाला
बुझाने को सघन होकर झरे झमझम,
.
निरन्तर बह रहा है स्रोत
जीवन का, उमड़ता आज है यौवन !
दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन !

महेंद्र भटनागर स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-कविता के बहुचर्चित यशस्वी हस्ताक्षर हैं। महेंद्रभटनागर-साहित्य के छह खंड ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ अभिधान से प्रकाशित हो चुके हैं। ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ के तीन खंडों में उनकी अठारह काव्य-कृतियाँ समाविष्ट हैं। महेंद्रभटनागर की कविताओं के अंग्रेज़ी में ग्यारह संग्रह उपलब्ध हैं। फ्रेंच में एक-सौ-आठ कविताओं का संकलन प्रकाशित हो चुका है। तमिल में दो, तेलुगु में एक, कन्नड़ में एक, मराठी में एक कविता-संग्रह छपे हैं। बाँगला, मणिपुरी, ओड़िया, उर्दू, आदि भाषाओं के काव्य-संकलन प्रकाशनाधीन हैं।

You May Also Like