उम्मीद का एक तारा टिमटिमाया रात भर

उम्मीद का एक तारा टिमटिमाया रात भर


जाल में जैसे कबूतर फड़फड़ाया रात भर,
उम्मीद का एक तारा टिमटिमाया रात भर।

उठ गया नक़ाब उसकी ज़िंदगी के राज़ से,
नींद में जो एक शख़्स बड़बड़ाया रात भर।

उम्मीद का एक तारा टिमटिमाया रात भर

फेफड़े जो चल पड़े हड़ताल करने के लिए,
हट्टा-कट्टा आदमी था लड़खड़ाया रात भर।

प्यास उसके होंठों पर पर्दा करके ठहर गई,
जो समन्दर पास में था छटपटाया रात भर।

चांद ने धीरे से आकर कान में जो भी कहा,
वो गर्म निशा थी मगर कंपकंपाया रात भर।

पुलिस की तफ्तीश में शेर जिसे लिख दिया,
घोड़ा था लाॅक-अप में हिनहिनाया रात भर।

तुम पौधों की चटकी हुई कलियों से पूछिए,
कौन बाग़ में आकर खिलखिलाया रात भर।

मुझे कुछ मालूम नहीं दुनिया कहती हैं मगर ,
मेरी ग़ज़ल को किसी ने गुनगुनाया रात भर।

ज़फ़र अच्छे दिनों में अच्छा मंज़र आ गया,
जुगनू रौशनी के लिए गिड़गिड़ाया रात भर।



– ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

एफ-413,

कड़कड़डूमा कोर्ट,

दिल्ली -32

zzafar08@gmail.com

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