उलझनें जिंदगी
क्या मिलेगा तुझको
खुद पर परिताप करके
जो हो चुका उसे याद कर,
खुद पर उपहास करके
माना गलत नहीं थे
राहें जिंदगी के सफर में
मैं भी कम नहीं थी
आपकी बर्बादी के कसर में
क्या खत्म हो जाऐंगें सवाल
खुद का विनाश करके या
और बढ़ जाऐंगी उलझनें
इनसे तर्कार्थ करके।।
गलत नहीं हो आप
इतना तो मानना हैं,
खुद से ज्यादा अपनी
क्षमताओं को जानना हैं।।
खुद की निशानी खुद तक
सीमित न रहने पाए,
मेरी खामियों को कोई ओर
न कहने पाए,
इन समाज की बेड़ियों से
जब भगवन न बच पाए,
पतिव्रता पत्नी को
जंगल नें छोड़ आए,
फिर आत्मग्लानि ने जब
उन्हें आ घेरा,
खुद के पुत्र ही पिता से
सारे संबंध तोड़ आए ।।
आज फिर वहीं कड़ी
आ गई हैं मेरी जिंदगी के मज़ार पर,
मैं आकता हूँ खुद को
किसी ओर की बोलियों के वार पर।।
क्या भुल गया मैं
इस जीवन में अपने अस्तित्व को
सम्मान का मारा मैं
नाम माँगता हूँ
जो खुद को अकेले नहीं पहचानता हैं
दुनिया की इस भीड़ में
मैं खुद का पहचान माँगता हूँ ।।
अहा! तेरी सब्र का
यूँ इम्तिहान न लो,
लोगों की दुनिया से निकलकर
अपनी दुनिया में
आप सारी खुशियाँ पा लो।।
किसने दबा दी बता
तेरी मुस्कुराहट को,
कौन दमन कर गया
तेरी हृदय की चाहत को,
क्यों मारा मारा फिरते हो
घर घर की चाह में
परिंदा कब सुख पाता हैं
एक घोंसला में,
असीम क्षितिज के प्रवासी
अब तो जिद् छोड़ दो,
ढ़ह चुकी जहाँ चाहत
वे आहत नीड़ तोड़ दो,
तोड़ दो सभी बंधनों को
उन्मुक्त हो रहो तुम
अपनी आकांक्षाओं को
अब खुलकर हमसे कहो तुम।।।
गुड़िया कुमारी
धनबाद, झारखंड