लेकिन मेरा लावारिस दिल/राही मासूम रजा

राही मासूम रजा

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी 
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब 
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला 
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बंदा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस खून और आँसू, चीखें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाजे
खून में लिथड़े कमसिन कुरते
जगह जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी 
दरवाजों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और खून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।

हिन्दी -उर्दू साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ राही मासूम रजा
का जन्म १ सितम्बर १९२७,को गाजीपुर (उत्तर प्रदेश ) के गंगोली गाँव में
हुआ था.राही की प्रारंभिक शिक्षा गाजीपुर शहर में हुई। इंटर करने के बाद
ये अलीगढ आ गए । और यही से इन्होने उर्दू साहित्य में एम .ए.करने के बाद” तिलिस्म होशरुबा ” – पर पी.एच .डी.की डिग्री प्राप्त की । “तिलिस्म -ए -होशरुबा” उन
कहानियो का संग्रह है जिन्हें घर की नानी-दादी ,छोटे बच्चो को सुनाती है।
पी .एच.डी करने के बाद ,ये विश्वविद्यालय में उर्दू साहित्य के अध्यापक
हो गए । अलीगढ में रहते हुए इन्होने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ” आधागाँव
” की रचना की ,जोकि भारतीय साहित्य के इतिहास का , एक मील का पत्थर साबित
हुई।उन्हें रोज़गार के लिए फ़िल्म लेखन का काम शुरू किया। इसके लिए इन्हे
कई
बार बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा । लेकिन इन्होने बड़ी सफलतापूर्बक सबका
निर्वाह किया फ़िल्म लेखन के साथ-साथ ये साहित्य रचना भी करते रहे
। इन्होने जीवन को बड़े नजदीक से देखा और उसे साहित्य
का विषय बनाया। इनके पात्र साधारण जीवन के होते और जीवन की समस्यों से
जूझते हुए बड़ी जीवटता का परिचय देते है । इन्होने हिंदू -मुस्लिम संबंधो और
बम्बई के फिल्मी जीवन को अपने साहित्य का विषय बनाया। इनके लिए भारतीयता
आदमियत का पर्याय थी ।इन्होने उर्दू साहित्य को देवनागरी लिपि में लिखने की शुरुआत की और जीवन
पर्यंत इसी तरह साहित्य के सेवा करते रहे और इस तरह वे आम-आदमी के अपने
सिपाही बने रहे । इस कलम के सिपाही का देहांत १५ मार्च १९९२ को हुआ।

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