प्रित तो हैं मित सध्यां संग
उषा सुन्दरी वसु पटल पर उतर रही
लिये संसार वैभव सबको जगा रही
अपने में खोई भूलीं कुछ याद कर रही
गूंजा स्वर जब प्रथम किरण से
पूछा जब उससे
निशा वियोग में क्या भूल गई मुझको ?
लौटा मैं निशा को दूर करके
पा स्पर्श देखों, धरा भी उधत खिलने को
खोयें थे जो रजनी में
वो भी नाच रहे अब सुख में
बोली सुन्दरी
तेरा काज जग को हैं तपाना
संध्या मित संग उसे सुलाना
मेरा काज हैं सबको जगाना
वसु पटल की प्रथम किरण
क्या कुछ पुछू मैं तुमसे ?
दे संचार विश्व को,क्यूं चुन लिया मित संध्या को ?
प्रथम किरण मै,करता सृजन नित्य हूँ
सजल नयन लिये, नवीन सत्ता हूँ सौपता
श्रमेन्दू गात, शिथिल पाद
करता प्रतिक्षा संध्या की
बन कल्पवृक्ष सबको वह तार रही
मित बन मेरी इच्छा पुरी कर रही
फिर क्यों ना कहूँ ?
प्रित तो हैं मित संध्या संग