कचरे के पहाड़ पर बैठा है भारत

कचरे के पहाड़ पर बैठा है भारत


कचरे के पहाड़ पर बैठा है भारत कचरा फेंके कहां, इसे लेकर अब भारी समस्या है सभी शहरों में । हाल ही में, कोलकाता गया था । हावड़ा रेलवे स्टेशन से निकलने के बाद आपको कचरे का ढेर नजर आएगा । अखबार में पढ़ रहा था, बैंगलुरू गार्डेन सिटी से गार्बेज सिटी बन चुका है।कटक में तो कचरों का जमा होना आम बात है । हम उसी पर चढ़कर चले जाते हैं। साफ़ सुथराे शहरों में से भुवनेश्वर का बड़ा नाम था । अब यह भी गंदा शहर बन चुका है ।आप भारत के जिस शहर में भी जाएं, चारों और कचरों का ढेर नजर आएगा । दक्षिण और पश्चिम भारत में थोड़ा कम और उत्तर व पूर्व भारत में थोड़ा ज्यादा । मेरे दिमाग में अक्सर यह सवाल आते हैं कि इतना कचरा आ कहां से रहा है ? इन्हें कहां डाला जाए और उसके बाद क्या होगा इन कचरों का ?

कचरा
कचरा
अब सवालों का जवाब ढूंढते हैं । दिन व दिन कचरों का ढेर बढ़ता जा रहा है । हमारों घरों में भी और बाहर भी । पहले लोग सब्जी लाने के लिए बैग लेकर जाते थे और नॉन वेज  के लिए एक अगल थैली होती थी । लेकिन अब पॉलीथिन का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है । लोग हाथ में थैला लिए बाजार जाना पसंद नहीं कर रहे हैं । इसीलिए घर में पॉलीथिन  की भरमार लगी हुई है । अब चाय से लेकर शैंपू तक सभी में प्लास्टिक पाउच । पाउच फेंके कहां…उसे बाहर फेंके फिर आवाजाही के समय वह सड़क पर जमा हो जाए । अब हर घर में कम्प्यूटर, इलेक्ट्रोनिक सामान । यह कुछ महीनों में पुराने हो जाते हैं । इनका पुनर्चक्रण करना मुश्किल है । पूजा के समय नदी में मुर्तियों का विसर्जन करते हैं । मूर्ति का रासायनिक रंग पानी दूषित कर करता है । फूलों से नदियां गंदी होती हैं । अब कचरा फेंकने की जगह में कमी नजर आ रही है । पहले नगरपालिका के लोग जनवसति से दूर कहीं कचरा फेंक आते थे । अब शहरों में इस तरह की जगह नहीं । लोग नहीं चाहते हैं उनके आसपास कचरों को ढेर हो । इसीलिए अगर कहीं डंपिंग यार्ड की बात सोची भी जाती है, तो लोग विरोध करने लगते हैं । फिर कचरा फेंके कहां ? स्विडेन में 80 प्रतिशत कूड़ोंको रीसायकल किया जाता है, लेकिन भारत में यह हो नहीं पा रहा । व्यवस्थित रूप से यहां कुछ भी नहीं हो रहा ।
मुझे लगता है कि अगर हम जागरूक हो जाएं तो इसका हल निकल सकता है । अपने घर से निकलने वाले कूड़े-करकटको सड़क पर न फेेंक कर क्या हम डस्टबिन में नहीं फेंक सकते ? प्रत्येक दुकानदार भी नाली में या सड़क पर कूड़ा न फेंक कर डस्टबिन में कचरा फेंके तो कितना अच्छा होगा । हर चीज के लिए क्या पॉलीथिन  का इस्तेमाल करना जरूरी है ? क्या पॉलीथिन के अलावा अन्य थैले का व्यवहार नहीं कर सकते हम ? अगर हम इतना नहीं कर सकते तो एक दिन पूरा शहर कूड़ा-करकट का ढेर बन जाएगा और उन कचरों में कीड़े की तरह सुलबुलाते रहेंगे हम ।
-मृणाल चटर्जी
अनुवाद- इतिश्री सिंह राठौर

मृणाल चटर्जी ओडिशा के जानेमाने लेखक और प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं । मृणाल ने अपने स्तम्भ ‘जगते थिबा जेते दिन’ ( संसार में रहने तक) से ओड़िया व्यंग्य लेखन क्षेत्र को एक मोड़ दिया । हाल ही में इनके स्तंभों का संकलन ‘पथे प्रांतरे’ का प्रकाशन हुआ है .

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