कुछ पता ही नहीं चलता है

अनुभव 



यह थप्पड़ भी न माँ-बाप की तरह होते है,
नाराज तो बहुत होता है मन इनसे,
लेकिन हमेशा अच्छा होता है।

यह रिश्ते भी न पुल की तरह होते है,
ना जाने कब टूट जाए,गिर जाए
कोई अंदाजा नहीं होता है।

सर,सर,सर,सर,सरसराहट
यह हवा रोज गीत सुनाती है कानों में,
या दबी-दबी आवाज में,

कुछ पता ही नहीं चलता है

किसी की शिकायत कर जाती है मुझसे
कुछ पता ही नहीं चलता है।

फिर से मन के हल्कूआ नें
जीवन के खेत में दो आँखें बोया था,
लेकिन फिर किसी आग नें,
उसके इस फसल को जला दिया है,
आज भी कहीं हल्कूआ
किसी मेड़ पर बैठा रोये जा रहा है।

तुम्हारे घर के छत से चाँद क्या निकला,
आधी रात में जगा कि,
सूरज की सुबह वाली किरनें आ गई,
तो निकल पड़ा मजदूरी करने,
कुछ ख्वाहिशों का पेट भरने के लिए।

सूना है तुम्हारे यहाँ रूसवाईयाँ बाँटी जाती है,
जरा एक मेरे लिए भी ला देना,
पता चला है कि आजकल दुःख सस्ते हो गये है।

अब जाकर पता चला मुझे,
लोगों का दिल इतना कठोर क्यों हो गया है,
कितने मजबूत होते जा रहे है सब,
क्योंकि बाजार में बेजोड़ सीमेन्ट का दौर चल पड़ा है।

कुछ लोग सड़को पर यूहिं नहीं बैठते है जनाब,
पेट हमेशा खाना से ही नहीं भरता है,
कभी-कभी धूल से भी भर जाता है जनाब।

मैं तो बात-बात पर,
सिगरेट ही जलाता हूं हूजूर!
यहां न जाने कितने,
बात-बात पर घर जला जाते है।
फिर भी मैं…….

            
        -राहुलदेव गौतम

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