गुड़िया

गुड़िया

कल तक जो पापा के आने की राह तकती थी ,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
छुट्टी आने पर जिसे कंधे पर बैठ घुमाते थे,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
जिद करके जो पापा से खिलोने मंगाती थी,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।

चित्र साभार – pinterest.com

ज्यादा चॉकलेट खाने पर पापा से डाँट खाती थी,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
तुतलाती भाषा में घंटो पापा से बात करती थी,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
समझ नहीं जिसे मतलबी दुनियादारी की ,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
चहकता था पूरा घर जिसकी हंसी ठिठोली से ,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
समझदार होगी तब पूछेगी अपनी अभागी माँ से,
मेरे हिस्से में क्यों बाप का प्यार नहीं ।
और पूछेगी सवाल हर उस भारत वासी से ,
जिसकी रक्षा में शहादत दी उसके पिता ने ।
आज कौन करुणा का हाथ रखेगा सर उसके ,
वो किससे नाराज होगी छोटी छोटी बातो पर ।
बस यही सोचकर दिल भर आता है की,
आज वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।
वो गुड़िया गुमसुम बैठी है ।।

यह रचना रवि सुनानिया जी द्वारा लिखी है . आप मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के ग्राम कनासिया से हैं तथा साहित्य रचना में गहरी रूचि रखते हैं . 

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