कुछ तो कहो सुजाता

 कुछ तो कहो सुजाता

आज फिर वह लड़का खम्भे के सहारे टेढ़ा पैर करे खड़ा, सुजाता की क्लास की खिड़की पर निगाह टिकाए हुए था । कई दिनों से वह उसे देख रही थी। उसे समझ ही नहीं आया कि यह लड़का क्यों उसी समय वहाँ खड़ा रहता है, जब प्रोफेसर पढ़ा रहे होते हैं। पीरियड समाप्त होने पर सुजाता अपनी साइकिल लेने स्टैंड पर गयी, तो उसे वहां देखकर ठिठक गयी। वही सुन्दर, आकर्षक चेहरा और किसी को तलाशती निगाहों से टकटकी लगाए वह अपनी साइकिल का हैंडल पकड़े खड़ा था । सुजाता सीघे घर गयी। आज पहली बार उसे कुछ ऐसा महसूस हो रहा था, जैसा पहले कभी नहीं हुआ । पूरी रात उसने यह सोचते हुए काट दी कि उन निगाहों को किसकी तलाश थी ! 

अगले दिन काॅलेज में विद्यार्थी संघ द्वारा उत्सव मनाया जा रहा था। माइक पर किसी लड़के का लड़की के साथ नाम जोड़कर फिल्मी गाना बज रहा था। इन नामों को तो वह जानती भी नहीं थी, सीधे काॅलेज और घर। क्लास खत्म होने के बाद कैम्पस में क्या होता है, उससे वह पूरी तरह से अनजान, अचानक अपना नाम सुनकर हैरान हो गयी।
‘अब आप अगला गाना सुनिए इस साल की सबसे अनोखी नयी जोड़ी, शांतनु और सुजाता के नाम।’
‘हवा के साथ-साथ घटा के संग, ओ साथी चल, मुझे ले के साथ चल’ गाना माइक पर बजने लगा।
‘‘इस काॅलेज में कितनी और सुजाता हैं ?’’ उसने अपनी सहेली हेमा से पूछा, तो वह हँसने लगी ।
”क्या तुम्हें पता नहीं कि इस काॅलेज में कौन सी जोड़़ी टाॅप पर है!“
”नहीं,’’ सुजाता ने भोलेपन से कहा।
”मेरी प्यारी सखी, थोड़ा बाहर की दुनिया भी देखा करो। पूरे काॅलेज को पता है कि शांतनु तुम्हारी क्लास के बाहर खड़ा पूरा एक घंटा टकटकी लगाये चकोर की तरह तुम्हें देखता है,“ हेमा के चेेहरे पर शरारत थी।
”बेकार की बातें मत करो हेमा“ सहेली को वहीं अकेला छोड़कर सुजाता तेजी से साइकिल लेने स्टैंड पर गयी तो वहाँ शांतनु खड़ा उसी की ओर देख रहा था। वह निगाहें नीची किये, अपनी साइकिल लेकर काॅलेज के बाहर आ गयी । क्या हेमा जो बात कह रही है वह सच है- उसके शांत मन में विचारों की लहरें कोलाहल मचाने लगीं।

कुछ तो कहो सुजाता

अगले दिन बुखार आने पर सुजाता दिनभर बिस्तर पर पड़ी रही। शाम को उसका मन घूमने का हुआ तो माँ को साथ लेकर घर के पीछे मैदान तक आ गयी। वहाँ आम के पेड़ के नीचे शांतनु को बैठा देखकर भौंचक्की रह गयी। इससे पहले तो उसको यहाँ कभी नहीं देखा था। शांतनु ने उसको देखा तो सुजाता ने नजरें झुका ली, कहीं माँ को शक न हो जाए।

आज सुजाता ने हेमा से खुलकर पूछा, ”हेमा, क्या तुम शांतनु को जानती हो, किस इयर में है ?“
हेमा उतावली होकर बोली, ”हाँ मेरी सखी, मैं सब जानती हूँ, बस तुम्हारे प्रश्न का इंतजार कर रही थी। शांतनु कैमिस्ट्री के प्रोफेसर रंजन का बेटा है। एम0एससी0 फाइनल इयर में है। जितना सुन्दर है उतना ही शर्मीला और संकोची है। कितनी लड़कियाँ इस इच्छा में रहती है कि वह एक बार उन्हें देख भर ले, पर आज से पहले उसके किसी प्रेम प्रसंग की चर्चा सुनाई नहीं पड़ी, मेरे घर के पास रहता है, पर मुझसे भी कम ही बोलता है।“
शनिवार का दिन था, हेमा सुजाता से पहले क्लास में आ गयी थी।
वह धीरे से दुपट्टे के नीचे से सुजाता को फिल्म का टिकट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘यह 12 से 3 बजे के शो का टिकट शांतनु ने किसी दोस्त के हाथ भिजवाया है। तुम चली जाओ। वह तुम्हें पिक्चर हाॅल में मिलेगा।“
”अरे नहीं, माँ को पता चला तो गला काट देंगी,“ सुजाता घबराते हुए बोली।
”माँ पूछे तो कह देना कि हेमा अपने साथ ले गयी थी,’’ हेमा ने कहा।
सुजाता पहली बार अकेले पिक्चर हाल में सबसे नजरें चुराती तेजी से अन्दर जाकर अपने नम्बर की सीट पर बैठ गयी । बगल वाली सीट खाली थी। हाल में अंधेरा होने के बाद उसे लगा कि खाली सीट पर कोई बैठा है। नजर घुमाकर देखा तो शांतनु बैठा, कभी उसे और कभी परदे पर फिल्म देख रहा था। सुजाता को लगा कि अगर शांतनु उसे इतना चाहता है, तो आज जरूर कुछ कहेगा। इंटरवल से पहले शांतनु बाहर चला गया, थोड़ी देर बाद पेस्ट्री लेकर आया और उसको देते हुए मुस्कुराने लगा। फिल्म खत्म होने से पहले ही वह हाॅल से अलोप हो चुका था। सुजाता समझ नहीं पायी कि यह कैसा प्रेम है, जिसमें शब्द नहीं है। 
अगले दिन हेमा ने शांतनु की फोटो सुजाता को देते हुए कहा, ”शांतनु ने भेजी है। मुझसे तुम्हारी माँग रहा था, तो मेरे पास जो तुम्हारी फोटो रखी थी, वह मैंने उसे दे दी।“
सुजाता सोचने लगी कि शांतनु काॅलेज में पिता की छवि को कितनी शालीनता से सम्हाले हुए है। उसकी आँखों से छलकता प्रेम मौन होकर सामाजिक मर्यादाओं का पालन कर रहा है। कितना समझदार है मेरा शांतनु! जीवन साथी ऐसा हो तो? विचार थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
 
काॅलेज में परीक्षा शुरू हो गयी थी, सभी अपनी-अपनी किताबों में सिमट गये थे, आम के पेड़ के नीचे अब शांतनु दिखाई नहीं देता था । सुजाता इंतजार करती…… शायद उसे कभी शांतनु की एक झलक दिख जाए, पर वह पल कभी नहीं आया।      
सुजाता ने बी0एससी0 के बाद एल0टी0 करके एक स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया । घर में शादी की बात चलती तो वह चुप रहती । उसने शादी नहीं करने का निर्णय ले लिया था । सुजाता के माता-पिता ने उसको बहुत समझाया, पर वह नहीं मानी। हेमा के ससुराल से आने पर दोनों सखियाँ मिलती थीं । हेमा से ही पता चला कि शांतनु के एक बेटा है। सुजाता कभी अपने मन की बात हेमा से नहीं कह पाई । यह भी न कह सकी कि वह जो अपने परिवार में इतना खुश है, उसी की याद मंे उसने आजीवन अकेले रहना स्वीकार किया है ।
समय के साथ सुजाता के पर्स बदलते गये, पर अन्दर की पाॅकेट में सम्हालकर रखी शांतनु की मुस्कुराती फोटो, सबसे पहले नये पर्स में अपना स्थान ले लेती थी। उसके घर के पीछे खाली मैदान की जगह बड़े-बड़े तीन मंजिला मकान बन गये थे । आम का पेड़ कट चुका था। वहां शर्मा जी का बड़ा सा बंगला खड़ा था । हर तरफ भीड़, गाड़ियाँ, सड़क पर उन्मुक्त घूमते लड़के-लड़कियाँ । सामाजिक मर्यादा और अभिभावकों का भय, ऐसा कुछ भी नहीं है इस नयी पीढ़ी में । समाज में कितना परिवर्तन आ गया है ! सुजाता विचारों में डूब गयी । 
 
शर्मा जी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपने मकान को वृद्धों का आवास बना दिया था, जिसे उन्होंने नाम दिया था, ‘अपना घर’ । ऊपर की दो मंजिलों में क्लब हाउस बनाया था, जिसमें कई तरह के खेलों को खेलने की व्यवस्था थी, एक छोटा सा पुस्तकालय भी था। नीचे के कमरों और हाॅल में वह लोग रहते थे, जो या तो नितांत अकेले थे, या जीवन साथी की मृत्यु के बाद एकाकीपन से पीड़ित थे। शर्मा जी गरीब वृद्धों के भोजन तथा रहने की व्यवस्था निःशुल्क करते थे। नीचे के दो कमरे आधुनिक सुविघाओं से परिपूर्ण थे, जिसके एक कमरे में अवस्थी साहब रहते थे।
 
शर्मा जी के आग्रह पर सुजाता ने स्कूल से रिटायर होते ही ‘अपना घर’ की पूरी व्यवस्था सम्हाल ली थी । किसी बूढ़ी माँ की दर्द भरी जीवन गाथा सुनती, किसी को दवा देती और कभी किसी एकाकी के साथ कोई गेम खेल लेती थी। प्रातः योग-प्राणायाम के कोर्स करवाती, तो कभी किसी ज्ञानी से धार्मिक प्रवचन करवाती, सुजाता सिर्फ रात में सोने के लिए ही अपने आवास पर आती थी। आज सुबह सुजाता ‘अपना घर’ पहुँची तो अवस्थी साहब बोले, ”मैडम, यह बगल वाला कमरा खुलवाकर ठीक करवा दीजियेगा। मेरे एक मित्र सात दिनोें के लिए यहाँ रहने आ रहे हैं। पत्नी की मृत्यु के बाद अकेले रह नहीं पा रहे हैं। मैंने ही उन्हे यहाँ आकर रहने का सुझाव दिया है। यहाँ अच्छा लगे तो रहें अन्यथा वापस चले जाएँ।“ 
”अच्छा, मैं कमरा खुलवा देती हूँ ।“ कमरे को ठीक कराकर सुजाता चली गयी। 
 
सुबह सुजाता ‘अपना घर’ आयी तो उस कमरे का दरवाजा खुला था, जिसे वह रात ठीक करा कर आयी थी, कुर्सी पर बैठे किसी प्रौढ़ की पीठ दरवाजे की ओर थी । घूमकर वह सामने आयी, तो वही चेहरा था जिसको हर रात वह पर्स से निकालकर तस्वीर में देखती थी। वह अपने को सम्हाल नहीं पायी। शब्द तो उसके पास आज भी नहीं थे । वह अवाक् सी देखती रह गयी । एक पल को तो शांतनु भी उसे देखकर अचंभित हो गए, फिर संतुलित होतेे हुये बोले, ”सुजाता! तुम कैसी हो?“ 
इन्ही शब्दों को सुनने की चाहत में सुजाता ने चालीस वर्ष निकाल दिये थे। वह बिना बोले कमरे से बाहर निकल गयी। अपने को शांतनु के सामने दोबारा लाने के लिए उसे मानसिक रूप से संतुलित होने में बहुत समय लग गया । 
अगले दिन सुजाता ‘अपना घर’ गयी तो कमरे में शांतनु खाली बैठे खिड़की के बाहर देख रहे थे। उसे देखते ही बोले, ”आओ सुजाता, बैठो।“
सुजाता शांतनु के सामने कुर्सी पर बैठ गयी।
शांतनु बोले, ”तुम्हारे बारे में अवस्थी साहब से पता चला । तुमने शादी क्यों नहीं करी ?“
सुजाता विस्मय से उन परिचित आँखों को देखने लगी। आज भी नहीं कह पायी कि जिसका इंतजार चालीस वर्षों तक किया, वह तुम ही हो। शांतनु ने ही आगे बोलना शुरू किया, ”मेरी पत्नी की एक वर्ष पहले मृत्यु हो गयी, मेरा बेटा विशाल अमेरिका में रह रहा है। पोता अयान तीन साल का है। मुझे अमेरिका में अच्छा नहीं लगता है। अकेलापन वहाँ और यहाँ, दोनों जगह परेशान करता है। अवस्थी साहब के समझाने पर ही मैं सात दिनों के लिए ‘अपना घर’ में  रहने आया हूँ। अब तुम भी कुछ बताओ अपने बारे में।
 
आज सुजाता शांतनु के प्रश्नों के उत्तर  देने के लिए मानसिक रूप से तैयार होकर आयी थी। वह बोली, ”मैं अकेली रहती हूँ। स्कूल से रिटायर होने के बाद इसी ‘अपना घर’ की देखभाल में व्यस्त रहती हूँ। मेरे जीवन की बस इतनी ही कहानी है।“ आँखों में आँसू भरे सुजाता कमरे के बाहर चली गयी।
अगले दिन सुजाता आयी तो शांतनु अपने बेटे से फोन पर बात कर रहे थे। सुजाता को देखकर शांतनु ने फोन उसे पकड़ाते हुए कहा कि मेरा बेटा विशाल तुमसे बात करना चाहता है। सुजाता ने शांतनु से फोन लेकर अपने कान पर लगाया, उघर से आवाज सुनाई पड़ी, ”नमस्ते आंटी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ, आप पूरी बात सुनियेगा, पर प्लीज फोन को बीच में मत काटियेगा। मैंने जब पहली बार अपना विवाह अपनी प्रेमिका छवि से करने के बारे में पापा को बताया था, तब उन्होंने मेेेरे प्रस्ताव को स्वीकार करते समय आपकी फोटो दिखाते हुये बताया था कि अपने पिता के कठोर व्यवहार के कारण वह अपने प्रेम के बारे में उनसे कुछ न कह सके थे। आंटी, आज का समाज इस बात को स्वीकार करता है कि एक आयु के बाद प्रत्येक को एक सहारे की जरूरत होती है। आपने लम्बा समय अकेले बिताया है। पापा भी माँ के जाने के बाद अब अकेले हो गये हैं। आंटी आप दोनों एक दूसरे का सहारा बन जाइये। ना मत कहिएगा… छोटी माँ ।“ 
‘छोटी माँ!’ यह क्या कह रहा है विशाल । सुजाता फोन शांतनु को पकड़ा कर सीधे अपने आवास पर आ गयी । उसके शांत जीवन में विचारों का ज्वारभाटा आने लगा। उसके सामने उसका चालीस वर्षो का निश्छल प्रेम और आने वाले जीवन के संध्याकाल में मिलता सहारा बाँह पसारे खड़ा था, पर इस अप्रत्याशित नये संबंध के बारे में  उसने कभी नहीं सोचा था।
आज शांतनु का ‘अपना घर’ में सातवाँ दिन था। सुजाता धीमी गति से शांतनु के कमरे में आयी और कुर्सी खींचकर उसके सामने बैठ गयी।
 शांतनु बोले, ”सुजाता, मैं जिस बात को चाहकर भी न कह सका वह तुमसे विशाल ने कह दी, मैं, मेरा परिवार और समाज, सब तुमको स्वीकार कर रहे हैं, कुछ कहो सुजाता कि तुम क्या चाहती हो।“
सुजाता धीरे से बोली, ”शांतनु, यह सच है कि चालीस वर्षों तक मैंने सिर्फ तुम्हें चाहा है, पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम आज भी रिश्तों के बंधन की सीमाओं से परे है।“
शांतनु उसे समझाते हुए बोले, ”ऐसा मत कहो सुजाता, आयु के साथ शरीर भी कमजोर होगा, तब अकेले कहाँ रहोगी और कौन तुम्हारी देखभाल करेगा? कुछ तो कहो सुजाता।“
 सुजाता ने शांत भाव से कहा, ”तब मैं रामू काका के बिस्तर पर होऊँगी और कोई दूसरी सुजाता दवा लिए खड़ी होएगी।“
तभी हाॅल से रामू काका की खाँसी की आवाज सुन सुजाता तेजी से दवा लेकर उनके पास चली गयी ।

-निरुपमा मेहरोत्रा

जानकी पुरम, लखनऊ-226021

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