विद्रोह और क्रांति/विचार मंथन

मनोज सिंह

इतिहास, राज्यों के आपसी युद्ध और राज-परिवार की प्रेम-कथाओं से भरा पड़ा है। इसमें सफलता प्राप्त करना ही राजनीति का प्रमुख उद्देश्य रहा है। सिंहासन के इर्दगिर्द ही राष्ट्र की नीति घूमती रही है। और इसमें सत्ता से जुड़े हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी भूमिका निभायी। तभी तो यहां सिर्फ राज-सत्ता को केंद्र में रखकर सभी पात्र चारों ओर चक्कर लगाते हैं और कहानी बुनते हैं। इस बीच, आम आदमी अमूमन नदारद रहता है। और शायद तभी समय-समय पर विद्रोह हुए, क्रांति हुई। इन सभी में सत्ता के प्रति आक्रोश देखा जा सकता है। और इन सबके केंद्र में होता है न्याय की पुकार जो जनता की आह बनकर निकलती है। यहां यह तो बताया जाता है कि इतिहास ने जुल्म को कभी माफ नहीं किया लेकिन उसके लिए चुकाई गई कीमत कोई नहीं बताता। यूं तो सालो-साल, पीढ़ी-दर-पीढ़ी अत्याचार का सिलसिला चलता रहा और अधिकांश समय अवाम ने उफ्फ तक नहीं की। सच है आम आदमी के सहने की सीमा कभी परिभाषित नहीं रही। मगर सब्र का बांध टूटते ही बड़े-बड़े साम्राज्य जनआक्रोश के आगे मिट्टी में मिल गये। सदियों से चले आ रही राज-परिवारों की वंशावली इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गयी। इस आक्रोश को भी भूकंप के रिएक्टर स्केल की भांति ही पैमाने में परिभाषित किया जाना चाहिए, जो फिर होने वाले परिवर्तन की तीव्रता और व्यापकता को तय कर सकता है।
क्रांति का स्केल यकीनन विद्रोह से अधिक ही बैठेगा। विद्रोह में तीव्रता अधिक हो सकती है मगर व्यापकता क्रांति में अपना विस्तार लेती है जिसका असर भी गहरा और दूरगामी होता है। और यह संपूर्णता को प्राप्त करता है। विद्रोह फास्ट-फूड की तरह है, वहीं क्रांति संपूर्ण आहार की भांति है जिसमें हर तरह के व्यंजन होते हैं। और यह हर तरह से संतुलित होती है। विनाश के उपरांत ही नवनिर्माण संभव है। विद्रोह में विनाश के लक्षण तो होते हैं मगर नवनिर्माण का अंकुर क्रांति में ही फूटता है। विद्रोह में विरोध है तो क्रांति में बदलाव है। विद्रोह से सत्ता में परिवर्तन संभव है तो क्रांति समूची व्यवस्था को बदलने का ध्येय रखती है। विद्रोह का समय और प्रभाव सीमित होता है तो क्रांति इन पैमानों पर असीमित ही रहती है। विद्रोह क्रांति का प्रारंभिक बिंदु हो सकता है। विद्रोह आवेग है तो क्रांति में एक रणनीति होती है। विद्रोह में दबा-छिपा क्रोध समयानुसार अचानक उबलकर बाहर आ जाता है तो क्रांति में क्रोध को धीरे-धीरे पाला जाता है। विद्रोह में तरुणाई है तो क्रांति में प्रौढ़ता है। विद्रोह क्षणिक होता है तो क्रांति समय के साथ परिपक्व होती जाती है। विद्रोह में प्रतिक्रिया तीव्र होती है तो क्रांति धीरे-धीरे पनपती है और निरंतर अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होती है। विद्रोह को दुनिया देखती है जबकि क्रांति की गतिविधियां कई बार समाज में अंडरकरेंट के रूप में प्रवाहित होती रहती हैं। विद्रोह में शारीरिक बल की प्रमुखता होती है तो क्रांति में मानसिक बल अधिक होता है। विद्रोह भावना प्रधान होता है तो क्रांति विचारधारा पर आधारित होती है। विद्रोह में जोश है तो क्रांति में होश है। विद्रोह क्रांति में परिवर्तित हो सकती है मगर क्रांति नाकाम होने पर विद्रोह मानकर दबा दी जाती है। विद्रोह नेतृत्वहीन भीड़ द्वारा भी किया जा सकता है मगर क्रांतियां नेतृत्व और उद्देश्य दोनों को साथ लेकर चलती हैं। विद्रोह में अमूमन समाज का सीमित वर्ग प्रतिनिधित्व करता है, यह कुछ गिने-चुने लोगों द्वारा भी किया जा सकता है, जबकि क्रांति अपने अंदर संपूर्ण सभ्यता को समेट लेती है।
विश्व इतिहास में असंख्य विद्रोह हुए मगर समय पर अपने निशान क्रांतियां ही दर्ज कर पाती हैं। भारत के इतिहास ने भी अपने हिस्से के अनगिनत विद्रोह किए मगर क्रांतियां यहां कम ही हुईं। और इसलिए समय की मांग होने के बावजूद संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन से कई बार हम वंचित रहे। क्रांति सदैव राजनीतिक हो जरूरी नहीं। यह सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। यह किसी भी क्षेत्र की वर्तमान अवस्था को परिवर्तित करने में सक्षम है। हिंदुस्तान ने हरित-क्रांति और दुग्ध-क्रांति को देखा है जिसने समाज में मूलभूत परिवर्तन किये, दूसरी ओर इलेक्ट्रॉनिक-क्रांति ने विश्व समाज का स्वरूप बदल डाला। फिर भी क्रांति राजनीति में ही अधिक पसंद की जाती है और सत्ता के चारों ओर ही घूमती पायी जाती है। विश्व पर नजर डालें तो यूरोप ने अपने सीने पर असंख्य क्रांतियां होती देखी। और यह क्षेत्र प्रारंभ से गतिमान और उथल-पुथल भरा रहा। विज्ञान ने यहीं प्रगति की और औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात भी यहीं हुआ। दोनों विश्वयुद्ध भी यहीं लड़े गये तो सर्वाधिक विकास भी यहीं हुआ। रूस की क्रांति ने तत्कालीन राज-परिवार को उखाड़ फेंका तो कम्युनिस्ट भी अधिक दिनों तक अपनी सत्ता नहीं बचा पाये। फ्रांस की महान क्रांति भी इतिहास में दर्ज है। दूसरी ओर, इंगलैंड और जर्मनी भी कई क्रांतियों का स्रोत रहा है। बहरहाल, सभी क्रांतियां अमूमन अपनी-अपनी कीमत मांगती है और अनगिनत जीवन की आहुति लेना आम बात है। यूं तो रक्तरंजित क्रांतियां भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हुई हैं मगर फिर इसने एक तरफ अपनी मजबूरियां दर्शायी हैं तो दूसरी ओर सीमाएं भी रेखांकित की हैं। जो समय के साथ अधिक उजागर हुई। 
नये धर्म की उत्पत्ति को आध्यात्मिक क्रांति के रूप में लिया जाना चाहिए। पुराने धर्मों के रहते हुए नये की स्थापना एवं विस्तार, किसी धार्मिक क्रांति से कम नहीं। जहां आस्था, विश्वास, पूजा-पद्धति व ईश्वर का नाम, स्वरूप और संदेश सब कुछ बदल जाते हैं। इस दौरान पुराने को जड़ से उखाड़ फेंकने की कोशिश की जाती है और इस तरह पुराने व नये के बीच वर्चस्व की लड़ाई प्रारंभ हो जाती है। भाषा, मनोरंजन, संगीत और कला में भी समय-समय पर जबरदस्त बदलाव हुए और कुछ एक घटना को उस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा गया। यही नहीं, शासक के बदलते ही शासन व्यवस्था ही नहीं बदलती समाज की संस्कृति में भी परिवर्तन आने लगता है। विज्ञान का विकास समाज की दशा व दिशा तय करता है और सभ्यता परिवर्तन में अहम रोल अदा करता है। इसे वैज्ञानिक क्रांति के रूप में देखा जाना चाहिए।
वर्तमान में, विश्व संक्रमण काल से गुजर रहा है। असमानता और असंतोष बढ़ रहा है। अराजकता चरम सीमा पर है। छिटफुट विद्रोह यहां-वहां देखने-सुनने को मिलते हैं। मगर इसकी खबर स्वतंत्र मीडिया के होते हुए भी दबा दी जाती है। चूंकि ये छोटे-छोटे समूह में हो रहा है। और इनमें आपसी तालमेल का अभाव है। इसे असल में संगठन और कुशल नेतृत्व की तलाश है। आज विश्व को एक समग्र क्रांति की आवश्यकता है। चूंकि वर्तमान व्यवस्था हमें और आगे ले जाने में नाकामयाब है।

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.

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