गुरु नानक देव और कोलकाता

गुरु नानक देव और कोलकाता 

मारे देश में यायावरी और मधुकरी करते हुए हमेशा से ही साधु संयासी रहे हैं और आज भी हैं . वैसे इस तरह कई साहित्यकारों ने भी यायावरी की है जिनमें खासतौर से राहुल संकृत्यायन का नाम आता है और फिर बाबा नागार्जुन का भी .
इसी तरह सिक्खों के प्रथम गुरु के रुप में सुपरिचित गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन काल में पूरे देश का भ्रमण तो किया ही था अपने देश के बाहर भी कई जगहों पर गए थ.े वे जहां भी जाते , वहां के लोगों से मिलते जुलते ,उनकी समस्याओं और प्रश्नों का समाधान भी करते  तथा जीवन को सन्मार्ग पर चलने के उपदेश भी देते थे. उनकी यात्राओं में उनके साथ हमेशा उनके दो प्रिय शिष्य रहते  जिनमें एक था बाला और दूसरा मरदाना. बाला जहां  हिंदू था ,वहीं मरदाना मराठी मुसलमान . बाला  इन यात्राओं के दौरान गुरु नानक द्वारा उच्चरित शब्दों को लिपिबद्ध किया करता था  तथा यात्राओं का वर्णन भी उन्होंने बड़े रुचिकर ढंग से किया ,जो आज भी बाले वाली साखी के नाम से जानी जाती है . मरदाना उन शब्दों या भजनों के गायन के साथ एक खास किस्म का वाद्ययंत्र रवाब बचाया करते थे। गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन काल में हमेशा रुक रुक कर भ्रमण किया . उन्हें आज भी विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है .उनके पूरे भ्रमण को उदासियों के नाम से पहचाना जाता है जो मुख्यतः चार मानी जाती हैं। 
गुरू नानक देव अपने दो शिष्यों के साथ

पहली उदासी १४९७ से १५०८ तक पूरब की ,दूसरी उदासी १५१० से १५१५ तक दक्षिण की , तीसरी उदासी १५१६ से १५१८ तक उत्तर की और चौथी १५१८से १५२२तक पश्चिम की मानी जाती है . उनकी इन्हीं पहली उदासी यानी पूरब की यात्राओं में असम और बंगाल जहां का जादू विख्यात था वहां गुरु के शिष्य मरदाना को जो किसी कारणवश गुरुजी से पृथक हो गया था वहां की किसी जादूगरनी ने भेड़ा  बना कर रख लिया था . गुरूजी ने फिर उन्हें उस जादूगरनी से मुक्त कराया था .आज भी बंगाल का जादू विश्वविख्यात है .गौरतलब है कि इसी पूरब की यात्राओं के दौरान गुरु नानक देव ढाका से वापसी में दिसंबर १५०८ को कोलकाता के सूतानाटी इलाके में पधारे थे .जहां कई साधु संन्यासियों के डेरे हुआ करते थे .जब वे यहाँ आए उन दिनों यहां महामारी फैली हुई थी और लगातार कई लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे थे . उसी दौरान यहां के राजा भद्द  सिंह खत्री भी बीमार हो कर बिस्तर पर पड़े हुए थे और कई तरह के इलाज करवाने पर भी उसमें कोई सुधार नहीं हो रहा था .राजा के दीवान सुखपाल को जब यह पता चला कि सन्यासियों के डेरे में नानक नाम का एक ऐसा दिव्य पुरुष आया हुआ है , जिनके दर्शन मात्र से ही कई तरह के रोग दूर हो जाते हैं .सुखपाल स्वयं वहां उस डेरे में पहुंचे और उन्होंने नानक से अनुरोध किया कि आप हमारे यहां पधारें और हमारे राजा तथा यहां की प्रजा के कष्टों को दूर करें .सुखपाल के अनुरोध पर गुरु नानक देव जी राजा भद्द सिंह खत्री के यहाँ पहुंचे और उनके दर्शन से राजा अति प्रसन्न हुए .उन्होंने वहां राजा को आशीर्वाद दिया और कहा कि प्रभु भक्ति करो तुम्हारे और तुम्हारी प्रजा का दुख दूर होगा ,और कहा जाता है कि उसके बाद से ही धीरे-धीरे पूरे इलाके से  इस रोग से जहॉं राजा को  मुक्ति मिली वहीं प्रजा को भी. गुरु नानक देव जी फिर यहीं पर कुछ दिनों तक रहे और कुछ पदों की रचना भी की और उसका गायन भी हुआ,जो बसंत राग में था और गुरु ग्रंथ साहब में वे पद पृष्ठ ११८९परअंकित हैं . कुछ पंक्तियां उसकी यों हैं – 

चंचल चित न पावे पारा ,आवत जात न लागे बारा . 
दुख घणे मरिये करतारा .बिन प्रीतम को करे ना सारा.  
इसी स्थान पर गुरु नानक देव जी लगभग दो सप्ताह तक रुके थे और हर रोज ईश्वर भक्ति की चर्चा होती और मानवीय गुणों को उन्नत करने की बातें होतीं. यह वही जगह है जहां पर आज बड़ा बाजार ऐतिहासिक गुरुद्वारा है जो कोलकाता के महात्मा गांधी रोड पर है . 
कोलकाता का ऐतिहासिक बड़ा बाजार गुरूद्वारा

गुरु नानक देव के पश्चात फिर सिक्खों के नौवें गुरु तेग बहादुर भी लगभग १६० साल बाद ढाका से यहां पहुंचे थे उस समय उनके साथ कई साधु सन्यासी और मुस्लिम फकीर वगैरह भी थे . अप्रैल १६६७ को वर्तमान कोलकाता के बाघमारी स्थान पर आकर रुके थे जहां पर एक वीरान बाग था जहां इन लोगों ने आकर डेरा डाला .यहां गुरु जी ने कई पदों की रचना की ओर गायन भी किया .इससे हुआ यूं कि वह वीरान बाग धीरे धीरे हरे-भरे भाग में तब्दील हो गया .इस बात की सूचना उस समय राजा भद्द  सिंह जिसका जिक्र किया गया है उसका पड़पोता हजूरी सिंह भी वहां आ गया और उसने गुरु जी से कहा कि किस तरह गुरु नानक देव जी यहां आए थे और उनके पूर्वजों को रोग से मुक्ति मिली थी . हजूरी  सिंह ने फिर गुरु तेग बहादुर से  आग्रह किया कि वे बड़ा बाजार उस स्थान पर चलें,  जहॉं गुरु नानक देव जी  रहे थे .उस इलाके में गुरु जी के कई शिष्य  भी हैं .गुरुजी उनकी बात मानकर पूरे जत्था के साथ चल पड़े और रास्ते में एक जगह उनके स्वागत के लिए काफी संख्या में शिष्य थे . उस स्थान पर गुरु जी कुछ देर के लिए रूके ,वहां भी एक संगत बन गई जिसे अब छोटा सिख संगत कहा जाता है और जो वर्तमान कॉटन स्ट्रीट में है .गुरु जी फिर उसी बड़ा बाजार गुरुद्वारे वाले स्थान पर गए जहां नियमित शब्द रचना और गायन होने लगा .यहां रचा गया एक पद राग बिहागड़ा में महल्ला नौवां के अंतर्गत पृष्ठ ५३७ पर संग्रहित है। 

हरि की गति नहीं कोई जानै
जोगी जति तपि पचि हारे
गुरु तेग बहादुर जी यहां कुछ समय तक रहे और उन्होंने हजूरी मल से कहा कि यहां नियमित शब्द कीर्तन होते रहना चाहिए और हुजूरी मल ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार भी कर लिया था .उसी स्थान की संगत को गुरु जी ने बड़ा सिख संगत कहा और आज भी उस गुरुद्वारे को  गुरुद्वारा बड़ा बाज़ार सिख संगत के नाम से ही जाना जाता है .राजा हजूरी मल का कोई पुत्र नहीं था लेकिन उनकी दो पुत्रियां शामो और लीलू रानी थी जो लगातार इस  स्थान की सेवा से जुड़ी रहीं. उन्होंने फिर स्थान को दान कर दिया जहां आज का गुरुद्वारा बड़ा बाजार है .यहां की संगत गुरु नानक देव जी को फिर बड़े साहब और गुरु तेग बहादुर जी को छोटे साहब के नाम से याद करती थीं .
गुरु नानक देव जी के जन्म दिन की स्मृति में आज भी बड़ा बाजार गुरुद्वारा में इस दिन गुरु पर्व भी मनाया जाता है और उस तारीख के पहले पड़ने वाले  रविवार को बड़ा बाजार गुरुद्वारा से गुरुद्वारा बाघमारी तक नगर कीर्तन भी निकाला जाता है.
संलग्न चित्र: १.कोलकाता का ऐतिहासिक बड़ा बाजार गुरूद्वारा.
२. गुरू नानक देव अपने दो शिष्यों के साथ.

– रावेल पुष्प
नेताजी टावर,278/ए, एन. एस. सी. बोस रोड, कोलकाता-700047.
चलंतभाषः 9434198898

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