समर्पण/महेंद्र भटनागर

महेंद्र भटनागर

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ओ राकापति ! देख तुम्हें सब
रूप-गर्विताएँ लज्जित हैं !
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सौन्दर्य सभी का फीका-सा
लगता है, जब तुम आते हो,
अपनी शीतल नव चाँदी-सी
आभा ले नभ में छाते हो,
         जाने कितना स्वर्गिक-वैभव
                   अंगों में, उर में संचित है !
                   और राकापति ! देख तुम्हें सब
                   रूप-गर्विताएँ लज्जित हैं !
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केवल मुसकान-किरन पर ही
जग का सब वैभव न्यौछावर,
बलिहारी जाता है कवि का
तन-मन, ओ नभवासी सुंदर !
                   देख तुम्हें जग के कन-कन का
                   अंतर-आनंद असीमित है !
                   ओ राकापति ! देख तुम्हें सब
                   रूप-गर्विताएँ लज्जित हैं !

महेंद्र भटनागर स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-कविता के बहुचर्चित यशस्वी हस्ताक्षर हैं। महेंद्रभटनागर-साहित्य के छह खंड ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ अभिधान से प्रकाशित हो चुके हैं। ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ के तीन खंडों में उनकी अठारह काव्य-कृतियाँ समाविष्ट हैं। महेंद्रभटनागर की कविताओं के अंग्रेज़ी में ग्यारह संग्रह उपलब्ध हैं। फ्रेंच में एक-सौ-आठ कविताओं का संकलन प्रकाशित हो चुका है। तमिल में दो, तेलुगु में एक, कन्नड़ में एक, मराठी में एक कविता-संग्रह छपे हैं। बाँगला, मणिपुरी, ओड़िया, उर्दू, आदि भाषाओं के काव्य-संकलन प्रकाशनाधीन हैं।

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