माँ और सोशल मीडिया

मां के सुख-दुख और सोशलमीडिया 

इंटरनेट का पहला सुख है आत्माभिव्यक्ति।दूसरा सुख है वर्चुअल प्रशंसा।इन दो सुखों ने सोशलमीडिया पर निजी जीवन के अनुभवों की बाढ़ पैदा कर दी है।जाहिर है आत्माभिव्यक्ति की यह विश्वव्यापी कम्युनिकेशन सुविधा पहले कभी उपलब्ध नहीं थी।आज है तो लोग बढ़-चढ़कर अपनी तस्वीरें शेयर कर रहे हैं,बहुत कम लोग हैं जो मां के बारे में निजी अनुभव शेयर कर रहे हैं।यह सच है फोटो बहुत कुछ कहता है।लेकिन आत्माभिव्यक्ति का अभी भी सबसे ताकतवर मीडियम भाषा है।समस्या यह है कि भाषा में माँ के अनुभव कैसे व्यक्त करें ॽ अभी भी बहुतों के पास माँ के बारे में सही भाषा नहीं है।मात्र फोटो हैं।यह मूलतःआदिम अभिव्यंजना है।
माँ को भाषा में लाना चाहिए।माँ जितनी भाषा में आएगी स्त्री की ताकत और स्पेस का उतना ही विकास होगा।
माँ

भाषा में अभिव्यक्त करने के बाद ही मनुष्य को स्थान मिलता है,पहचान मिलती है।फोटो दें ,लेकिन फोटो को भाषा भी दें,फोटो को गद्य-पद्य से जब तक नहीं जोड़ेंगे, जीवन संघर्ष सामने नहीं आएंगे।जीवन संघर्ष के बिना मां या किसी का भी रूप निरर्थक है।माँ हमें भाषा देती है,भाषा बनाने में मदद करती है,वह जब भी मिलेगी भाषा में मिलेगी।

माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क्षण मेरे जीवन के सबसे मूल्यवान क्षण थे,दुखों में जितना सीखा उतना सुख। में नहीं सीख पाया।रिश्तेदार-सगे -संबंधी-मित्र आदि की पहचान दुख में ही हुई। दुख में किसी को पास नहीं पाया।यह बात आज से पचास पहले जितनी सच थी उतनी ही आज भी सच है।दुख जब आते हैं तो चारों ओर से आते हैं।कोई मदद करने वाला नहीं होता।सारे सामाजिक संबंध बेकार नजर आते हैं।दुख जीवन के अनिच्छित कर्मों में से एक है,दुखों को कभी भूलना नहीं चाहिए।कष्टमय जीवन को जो लोग भूल जाते हैं वे अपने हृदय के द्वार मानवीय संवेदनाओं के लिए बंद कर देते हैं।मैं जब पैदा हुआ तो माँ की उम्र 13-14 साल रही होगी।उसके लिए बच्चा पैदा करना चमत्कार से कम न था।सुंदर पुत्र संतान को जन्म देकर वह खुश थी,लेकिन भविष्य को लेकर चिंतित और सतर्क । उसके लिए मातृत्व आनंद की चीज थी। वह मातृत्व से नफरत नहीं करती थी और नहीं बोझ समझती थी। उसके लिए मातृत्व स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति जैसा था।
उसके लिए यह विलक्षण स्थिति थी ,एक तरफ मातृत्व का अहं और आनंद, दूसरी ओर अहंकाररहित गौरवानुभूति। मातृत्व को वह सृजन के रूप में देखती थी।दाई की मदद से मेरा जन्म घर में ही हुआ।इस प्रसंग में मुझे हेगेल के शब्द याद आते हैं,हेगेल ने लिखा है, ´सन्तान का जन्म माता-पिता की मृत्यु भी है।बालक अपने स्रोत से पृथक होकर ही अस्त्विमान् होता है।उसके पृथकत्व में माँ मृत्यु की छाया देखती है।´ संभवतःयही वजह रही होगी कि मेरी माँ ने मुझे अपने से कभी दूर नहीं रखा।वह जितनी बेहतर चीजें जानती थीं उनकी कल्पना में रहती थी,उसे अनेक किस्म के हुनर आते थे,जिनको लेकर वह व्यस्त रहती थी।वह कभी उदासीनता या अवसाद में नहीं रहती थी,हमेशा कोई न कोई काम अपने लिए खोज लेती थी।उसकी इसी व्यस्तता ने उसे आत्मनिर्भर और स्वतंत्रता प्रिय बना दिया था।
अमूमन बच्चा माँ पर आश्रित होता है लेकिन मेरे मामले में थोड़ा उलटा था चीजों को जानने के मामले में माँ मुझ पर आश्रित थी,मैं उसे जब तक नहीं बताता वह जान नहीं पाती थी और तुरंत जानना उसकी विशेषता थी,तुरंत जानना और तुरंत जबाव देना।याद नहीं है उसने मुझे कभी पीटा हो,वह नाराज होती थी लेकिन पिटाई नहीं करती थी,जबकि पिता के हाथों दसियों बार पिटा हूँ।उसे समाज को लेकर गुस्सा नहीं था लेकिन असहमतियां थीं,जिनको वह बार-बार व्यक्त करती थी।वह पिता के आचरण से बहुत नाराज रहती थी,उसे असंतोष था कि पिता उसकी बात नहीं मानते बल्कि अपनी माँ की बातें मानते हैं।
उसका स्वभाव शासन करने का नहीं था बल्कि वह शिरकत करने में विश्वास करती थी,कोई उसके ऊपर शासन करे यह वह कभी मानने को तैयार नहीं होती थी।शिरकत वाले स्वभाव के कारण वह अपनी माँ और नानी की प्रतिदिन घरेलू कामों में समय निकालकर मदद करने उनके घर जाती थी,उसको जब मन होता था घर से निकल पड़ती थी,उसे बंदिशें एकदम पसंद नहीं थीं,पिता और दादी उसके इस स्वभाव को जानते थे और उसे आने-जाने में कभी बाधा नहीं देते थे।वह शिरकत वाले स्वभाव के कारण घर में हर काम में दादी की मदद करती थी, वहनियमित सिनेमा देखती थी, पिता हर सप्ताह उसे सिनेमा दिखाने ले जाते थे। जबकि ताईजी की स्थिति एकदम विपरीत थी,वे कभी घर के काम में शिरकत नहीं करती थीं।उसकी शिरकत वाली भावना का सबसे आनंददायी रूप वह होता था जब मैं छत पर पतंग उडाता था और वह छत पर आकर बैठी रहती और सिलाई करते हुए देखती रहती ,उसे हमेशा मेरी चिन्ता रहती कि कहीं बन्दर मुझे काट न लें। वह बंदरों से मुझे बचाने के लिए छत पर डंडा लिए बैठी रहती।तकरीबन यही दशा मेरी भी थी गर्मियों में आलू के पापड़ आदि बनाने में मैं उसकी मदद करता,घंटों छत पर बैठा रहता जिससे पापड़ आदि की बंदरों से रक्षा कर सकूँ। कहने के लिए और भी बच्चे थे घर में लेकिन उसकी विशेष कृपा मेरे ऊपर थी,वह छत पर काम करेगी और मैं बंदरों पर नजर रखूँगा।जैसाकि सब जानते हैं मथुरा में बंदरों की संख्या बहुत है और वे बहुत परेशान करते हैं,नुकसान पहुँचाते हैं,काट लेते हैं।तेज गर्मियों में वह पापड़ आदि बनाने का छत पर काम करती थी और मैं भरी दोपहरी उसको कम्पनी देता था।
वह देखने में बहुत सुंदर थी,सारा शरीर सुंदर गठा हुआ था।हाथों की अंगुलियां कलात्मक थीं। अच्छी बात यह थी बच्चे उसके लिए बंधन या बोझ नहीं थे,वह उनमें आनंद लेती थी और अपना मूल्यवान समय उन पर खर्च करती थी।उसका साहचर्य हम सबमें ऊर्जा भरता था।दिलचस्प बात यह थी कि वह मुझसे कोई भी चीज छिपाती नहीं थी,प्रेम,गुस्सा,आनंद हर चीज मेरे साथ शेयर करती थी,अनेक चीजों की मेरे पास जानकारी होती थी,पिता को पता ही नहीं होता था,पिता पूछते थे तब मैं बताता था।शरीर,सेक्स,कला,सिनेमा,समाचार सब कुछपर उसकी नजर थी और इनसे जुड़ी चीजों पर वह बातें करती रहती थी।उसकी जिज्ञासाएं अनंत थीं,सबसे दुर्लभ चीज यह थी कि वह कभी थकती नहीं थी,उसके शरीर ने जब धोखा दे दिया तब ही वह बैठी,वरना वह कभी खाली नहीं बैठती,उसके पास हमेशा काम रहते।
मैंने कईबार देखा वह रो रही थी और अभिव्यक्त कर रही थी।उसके पास भाषा नहीं थी,सिर्फ आँसू थे।पता नहीं कब और कैसे आँसू निकलते-निकलते बंद हो गए और वह उठी और घर के कामों में जुट गयी।आँसू और श्रम यही उसकी दिनचर्या थी।पता नहीं उसे आँसू में राहत मिलती थी या घरेलू श्रम में शांति मिलती थी,यह बात मैं कभी जान नहीं पाया,जब भी जानने की कोशिश की वह हमेशा टालती रही।वह बोलती नहीं थी,लेकिन इशारों में सब कुछ कहती थी,बार-बार पूछने पर हमेशा टाल देती थी,उसको किस बात का दुख है या फिर किन चीजों से उसे तकलीफ होती है,वह सब बताने की वह जरूरत महसूस नहीं करती थी, मैं हमेशा उसके साथ रहता था ,वह मेरे जरिए सारी बातें समझती थी,हर बात,हर समस्या वह सामने रखती,हर चीज जानना चाहती,उसकी अनंत जिज्ञासाएं थीं,शर्त एक ही थी कि मैं हमेशा उसकी आँखों के सामने रहूँ।कहने को हम पाँच भाई-बहन थे,लेकिन वह मेरे ऊपर कुछ ज्यादा मेहरबान थी।वह मेरा ख्याल सबसे ज्यादा रखती थी,उसे अच्छा लगता था कि मैं खूब पढूँ,मैं जब पढ़ता था तो वो हमेशा मेरे पास मौजूद रहती,संयुक्त परिवार था,हलचल रहती थी घर में,वह मेरे लिए एकांत बनाती थी, जिससे मुझे कोई परेशान न करे,मेरा पढ़ने से ध्यान न बंटाए।
मुझे याद है कि मैंने जब कक्षा पाँच पास की और मथुरा के माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में प्रथमा में दाखिला लिया तो माँ बहुत खुश थी,पिता ने गुरूपूर्णिमा के दिन ले जाकर दाखिला कराया,कॉलेज के सभी शिक्षकों को 1-1 किलो आम गुरूदक्षिणा में भेंट किए।उसके बाद पढ़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ ।मुझे माँ से बेइंतहा प्यार मिला,संभवतःअपने बचपन के मित्रों में मैं अकेला था जिसके पास प्रथमा में ही निजी तौर पर 1969 में टेपरिकॉर्डर और रेडियो था। मेरे लिए घर में एक छोटा कमरा बनवाया गया।उसमें चारपाई,कुर्सी,टेबिल और दीवार में पत्थर की दो बड़ी अलमारियाँ बनवाई गईं।यानि कक्षा 8से मैं स्वतंत्र रूप से अपने कमरे में अलग रहा हूं,मेरी प्राइवेसी थी और उसमें कोई दखल नहीं देता था,कहने को संयुक्त परिवार था,लेकिन उसमें मेरे लिए रहने,सोने,पढ़ने की स्वतंत्र व्यवस्था थी,मुझे पतंगबाजी का खूब शौक था,उसके लिए नियमित पैसे मिलते थे,कंचे या गोली खेलने की आदत थी उसके लिए भी पैसे मिलते थे,हाथ खर्च के लिए दो आने रोज मिलते थे।इस सबमें मेरी दादी उसकी मदद करती थी क्योंकि वो घरकी मुखिया थी।मेरी माँ और दादी का मानना था कि मुझमें पढ़ने-लिखने की संभावनाएं सबसे ज्यादा हैं अतःमेरा ज्यादा ख्याल रखा जाए।हमारे ताऊजी के दो लड़के थे,मेरे खुद के 4भाई-बहन थे,लेकिन इन सबके रहते हुए,मेरे लिए बचपन में ही स्वतंत्र कमरे की व्यवस्था हो गयी।यह सब कुछ संभव हुआ माँ के कारण।वह पढ़ी लिखी नहीं थी,लेकिन शिक्षा के महत्व को जानती थी।संस्कृत पाठशाला में जाने के बाद मेरा कोर्स बढ़ गया,किताबें बढ़ गयीं,इसके लिए मैंने सुबह चार बजे उठने की आदत डाली,इसमें मेरी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका थी,वह सुबह की नल आने के समय जग जाती और मुझे भी जगा देती।जगाने का एक सिस्टम था। माँ नीचे के कमर में सोती थी,मेरे लिए कमरा ऊपर बनाया गया,उस कमरे में एक खुली खिड़की बनायी गयी जिसके जरिए एक डोरी मेरी माँ के पास रहती और मेरे कमरे में एक घंटा बाँध दिया गया था उसकी आवाज सुनकर मैं जग जाता था और सुबह जगने के साथ ही एक कप चाय मेरे पास रहती थी,माँ नीचे से नजर रखती थी कि मैं जगा हूँ या सो रहा हूँ,नियम से मुझे कुर्सी पर बैठकर पढ़ना पढ़ता, चारपाई पर बैठकर पढ़ना मना था,इसमें प्रधान कारण यह था कि मेरी माँ नीचे से कुर्सी-टेबिल देख सकती थी और नजर रखती थी कि मैं कहीं सो तो नहीं गया,यदि मैं सो जाता तो वह ऊपर आकर प्यार से सिर सहलाकर जगा देती और जोर देती कि पढो।इस पढाई का एक अन्य प्रेरक तत्व था रोज सुबह दो कचौड़ी और 2जलेबी का नाश्ता या कलेवा।मुझे खास तौरपर प्रतिदिन यह नाश्ता मिलता,नाश्ते के पहले यमुना स्नान,संध्यावंदन,गायत्री मंत्र का जप,महात्रिपुरसुंदरी की पूजा।कभी-कभी पूजा छूट जाती थी जिसे मैं शाम को करता था,माँ इन सबकी निगरानी रखती कि मैं यह सब ठीक से करता हूँ या नहीं ,ठीक से न करने पर गुस्सा भी होती और इस सबमें वह यह ख्याल रखना नहीं भूलती कि मैंने समय पर खाया है कि नहीं,समय पर शरीर साफ किया है कि नहीं। उसकी निगरानी का ही सुफल है जिसने मुझे नियमित,संगठित और नियोजित ढ़ंग से पढ़ने का आदी बना दिया।
मैं जब भी लिखता हूँ मां की इमेज आँखों में रहती है।संभवतःअपने मित्रों में अकेला हूँ जिसने जमकर लिखा,खूब लिखा।यह लिखना हो ही नहीं पाता यदि मेरी गूंगी-बहरी माँ ने मेरी जिन्दगी संगठित न की होती।संगठित होकर रहने कला मैंने माँ से सीखी,जबकि लिखने और बोलने की कला पिता से सीखी।
यह सच है मैं जितना अपनी माँ पर गर्व करता हूँ वह भी अपने बच्चों पर गर्व करती थी,मैंने जब शास्त्री की परीक्षा पास की तो मेरी माँ बेइन्तहा खुश हुई।उसे खुशी इस बात से हुई कि मैं पिता से ज्यादा डिग्री पाने में सफल हो गया।वह यह चाहती थी कि मैं पिता से ज्यादा पढूँ।मैंने समझाया कि पिता शास्त्री प्रथम वर्ष तक ही पास कर पाए हैं,जबकि मैंने दोनों साल की परीक्षा पास करके शास्त्री की डिग्री हासिल की है,मैंने शास्त्री 1976 में पास किया, मैं अपने वंश में पहला स्नातक हूँ। अफसोस यह कि मेरे शास्त्री परीक्षा परिणाम आने के चारदिन बाद ही माँ की मृत्यु हो गयी।

माँ की 10 शिक्षाएं –

1.रमणीयता से बचो,यह बेहद खर्चीला है।अपने स्तर के अनुरूप कपड़े पहनो और सजो।
2.शरीर के प्रति अति सजगता एकतरह की बीमारी है।सामान्य रहो,स्वच्छ रहो। 
3.फालतू प्रशंसा से मुग्ध होने से बचो,फिजूल में उलझो मत।
4.मेले या उत्सव के दिन जरूर सजो,बढ़िया भोजन करो।
5.परिवारीजनों में आडम्बरपूर्ण आचरण से बचो।
6.नखरेबाजी से बचो,स्पष्ट बोलो।
7.लोगों पर विश्वास करना सीखो,अपनी बात थोपो मत।
8.किसी से ईर्ष्या मत करो,उसके बारे में बातें करो।
9.सिनेमा देखो लेकिन उसका अनुकरण करने से बचो।
10.कुण्ठा में मत रहो,यह सब सुख छीन लेता है।

– जगदीश्वर चतुर्वेदी

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