घर – हिन्दी कविता
‘दो अक्षरों में,ढला,
दो कदमों में,
एक हो कर चला,
विचलन ही,
कदम,कदम पर,
डगर में,
फिर भी,
ढाई आखर में पला,
सब प्राणी का,
एक ही आधार बना,
सुख में भी,
दुःख में भी,
इतना प्यारा की,
सारी दुनियां से न्यारा,
छोड़ सब काम-धाम,
उस ओर चला,
चला उस ओर,
सिमट गयी जिसमें,
दस-दिशा चहुं ओर,
अपना ही अपना,
वो(घर),
स्मृतियों का खजाना,
वो,
यथार्थ का आशियना,
वो(घर),
सपना,
वो,
हकीकत,
वो ख्वाबों की ताकत,
वो जुगनूओं का तीर्थस्थल,
वो आजाद तिरंगा प्यारा,
वो शहजादा परियों का,
वो दिवानों की दिवानगी,
वो ममता की मनभावन छाया,
वो पिता की चित्तवन काया,
वो कलियों की कोमलता,
वो पराग की मादकता,
वो भंवरों का आकर्षण,
वो तितलियों का उपवन,
वो मछलियों का सरोवर,
वो आंगन-अन्दाज निराला,
वो सावन का झूला,
वो बारिश का पानी,
वो कोयल की कुहूक,
वो कोआ का संदेश,
वो ईमानदारी की,
मेहनत का पसीना,
वो दो बाहों का प्यारा,संसार,
हम सब का एक ‘घर’,…