चांद नींद की आगोश में

चांद नींद की आगोश में

रात देखा मैंने चांद को नींद की आगोश में,
खिल रही थी चांदनी, रहा ना मैं भी होश में।
चांद
केश उसके ऐसे थे ज्यों काली रात छाई हो,
लबों की मुस्कान ज्यों मादकता बरसाई हो,
आंखें हैं उसकी ऐसी, इनमें झील समाई हो,
मचल उठा दिल मेरा , हो गया मदहोश मैं।
रात देखा मैंने चांद को नींद की आगोश में,
खिल रही थी चांदनी, रहा ना मैं भी होश में।
एक चांद आसमां में , दूसरा चांद था यहां,
फैला रहे थे रोशनी , ये दोनों चांद थे जहां,
मैं बन गया था चकोर, था चांद पूरे जोश में,
धड़क रहा था दिल मेरा, रहा ना खामोश मैं।
रात देखा मैंने चांद को नींद की आगोश में,
खिल रही थी चांदनी, रहा ना मैं भी होश में।



– देवकरण गंडास “अरविन्द”
व्याख्याता इतिहास

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