चित्रलेखा उपन्यास

पुस्तक-चित्रलेखा
लेखक – भगवती चरण वर्मा
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन

प्रेम की अद्वितीय उपमा है  चित्रलेखा’

प्रेम किसीके लिए शाश्वत और चिरंतन है तो किसीके लिए यह आग का दरिया है. कोई इसे खूबसूरत अहसास का नाम देता है तो किसीके लिए यह जन्नत का सफर है लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि प्रेम पापपूण्य तथा विचारों का खेल हो भी सकता है. आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसी बहकीबहकी बातें कर रहीं हूं. यह
बातें आपको अजीब लग सकती है लेकिन भगवती चरण बर्मा की लिखित पुस्तक
चित्रलेखा को पढ़ने के बाद शायद आप भी कुछ इस तरह के सोच में डूब जाएं
. चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित हैपाप क्या है? उसका निवास कहां है? कहानी की शुरूआत होती है इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव क्रमश: सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाने से. कहानी आकर्षक, मनोरम और अति सुंदरी स्त्री चित्रलेखा के ईर्दगिर्द घूमती है. कहानी में यशोधर नामी भी एक स्त्री है लेकिन चित्रलेखा के सामने सबकी सुंदरता फीकी है. चित्रलेखा जो एक विधवा नर्तकी है बीजगुप्त की प्रेमिका तो है लेकिन कुमारगिरि भी उसके मायाजाल से नहीं बच पाए हैं. एक तरफ भोगविलास प्रिय पुरूष बीजगुप्त दूसरी तरफ मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक समाधी पुरूष कुमारगिरि. कहानी में चित्रलेखा, बीजगुप्त, कुमारगिरि, श्वेतांक, विशालदेव, मृत्युंजय और यशोधारा के प्रमुख चरित्र के अलावा छोटमोटे अन्य किरदार भी मौजूद हैं लेकिन जिनकी मौजूदगी न के बराबर है. 
कहानी का सारांश
पाप का रहस्य ढूंढने निकले श्वेतांक और विशालदेव अपने गुरू बीजगुप्त और कुमारगिरि के पास उनके सेवक की तरह जीवन व्यतीत करते हैं. नर्तकी
चित्रलेखा बीजगुप्त की अविवाहित पत्नी है जिसे भले ही संसार से मान्यता न
मिली हो लेकिन बीजगुप्त ने अपनी पत्नी का दर्जा दिया है
. विशालदेव अपने पास रह कर पापपूण्य की संज्ञा ढूंढने में मग्न है गुरू कुमारगिरि के. एक बार चित्रलेखा की मुलाकात कुमारगिरि से होती है और वह कुमारगिरि के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित होती है. दूसरी
और बीजगुप्त का विवाह मृत्युंजय अपनी बेटी यशोधारा से कराना चाहते हैं
लेकिन चित्रलेखा के प्रेम में डूबे हुए बीजगुप्त को यह मंजूर नहीं
. चित्रलेखा को इस बात का भलीभाती अहसास है कि वह अभिशप्त स्त्री बीजगुप्त की अर्द्धांगिनी बनने के योग्य नहीं. अत: वह
सारा वैभव त्याग कर संथ कुमारगिरि के शरणों में चली जाती है.चित्रलेखा की
यादों में खोया बीजगुप्त उसे वापस लाना चाहता है लेकिन कुमारगिरि की वासना
का शिकार बनने के कारण चित्रलेखा अपने लौटने का सारा मांर्ग बंद कर चुकी है
. बीजगुप्त
अंत में यशोधारा से विवाह करने को राजी तो होता है लेकिन जब उसे यह मालूम
चलता है कि श्वेतांक यशोधारा को अपने मनमंदिर में बसा चुका है वह श्वेतांक
को अपना पोष्य पुत्र ग्रहण कर सबकुछ त्याग देता है
. तभी चित्रलेखा उसके पास लौटती है. इसके बाद क्यों दोनों संसार का त्याग करते हैं? कुमारगिरि का क्या होता है? क्या वह साधना का मार्ग छोड़ वासना के वशीभूत होकर रह जाता है? श्वेतांक और विशालदेव पाप का रहस्य ढूंढ पाते हैं? इन सभी का उत्तर तो आपको किताब पढ़ने से ही मिलेगा

प्रमुख चरित्रों का चित्रण

कहानी में तीन प्रमुख चरित्र चित्रलेखाबीजगुप्तकुमारगिरि का चरित्र चित्रण असाधारण है. कुमारगिरि योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है. संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है उसमें तेज है प्रताप है. उसमें शारीरिक बल है और आत्मिक बल है. जैसा कि लोगों का कहना है, उसने ममत्व को वशीभूत कर लिया है वहीं बीजगुप्त भोगी है, उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली. उसकी विशाल अट्टलिकाओं में भोगविलास नाचा करते हैं. वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है. और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास, सौंदर्य है उसमें. ईश्वर पर उसे विश्वास नहीं, शायद उसने कभी ईश्वर के विषय में सोचा तक नहीं है. आमोद और प्रमोद ही उसके जीवन का साधन है तथा लक्ष्य भी हैचित्रलेखा की अधखुली आंखों में मतवालापन था और उसके अरुण कपोलों में उल्लास था. पाटलिपुत्र की असाधारण सुंदर नतर्की का वेश्यावृत्ति स्वीकार न करना, यह बात स्वयं ही असाधारण थी; पर उसके कारण थे, और उन कारणों का उसके विगत जीवन से गहरा संबंध था.चित्रलेखा ब्राह्मण विधवा थी. वह विधवा उस समय हुई थी, जिस समय उसकी अवस्था अठारह वर्ष की थी. विधवा हो जाने के बाद संयम उसका नियम हो गया था, पर
बात वैसी ही अधिक दिनों तक न रह सकी.एक दिन उसके जीवन में कृष्णादित्य ने
प्रवेश किया.कृष्णदित्य से चित्रलेखा को पुत्र की प्राप्ति हुए लेकिन पिता व
बेटे दोनों ने संसार को छोड़
दिया. नतर्की ने उसे आश्रय दिया था, उसे एक नर्तकी ने आश्रय देकर नृत्य तथा संगीतकला की शिक्षा दी. पाटलिपुत्र का जनसमुदाय चित्रलेखा के पैरों पर लोटा करता था; पर चित्रलेखा ने संयम के तेज से जनित क्रांति को बनाए रखा लेकिन बीज गुप्त से वह मुग्ध होने से न बच पाई

प्रेम  की अद्वितीय उपमा

चित्रलेखा में भगवती चरण वर्मा ने प्रेम और वासना की अद्वितीय उपमा दी है. शायद ही किसीने पहले इतनी सुंदर व्याख्या की हो. उन्होेंने पुस्तक में उल्लेख किया है कि प्रेम मनुष्य का निर्धारित लक्ष्य है. कंपन और कपन में सुख, प्यास और तृप्ति प्रेम का क्षेत्र नहीं. जीवन में प्रेम प्रधान हैं. एकदूसरे से प्रगाढ़ सहानुभूति और एकदूसरे के अस्तित्व को एक कर देना ही प्रेम है. वासना के संदर्भ में कुमारगिरि के माध्यम से उन्होंने उल्लेख किया कि ईश्वर के तीन गुण हैं सच, चित और आनंद. तीन ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं, पर वासना के होते हुए ममत्व प्रधान रहता है और ममत्व के भ्रांतिकारक आवरण के रहते हुए इनमें से किसी एक का पाना असंभव है. ऐसी उपमा शायद ही आपको कहीं पढ़ने को मिले
हिंदी सिनेमा में चित्रलेखा
भगवती चरण वर्मा की पुस्तक पर केदार शर्मा में दो बार फिल्म चित्रलेखा बनाई. 1941 में बनी फिल्म चित्रलेखा में मीस मेहताब ने चित्रलेखा का किरदार निभाया वहीं नंद्रेकर (बीजगुप्त), एएस ज्ञानी (कुमारगिरि) के किरदार मेें नजर आए. केदार शर्मा ने 1964 में फिर से फिल्म चित्रलेखा का निर्माण किया जिसमें मीना कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार मुख्य किरदार में नजर आए हालांकि यह फिल्म बाक्स आफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई. आलोचक ने बुरी स्क्रिप्ट और गलत कास्टिंग को फिल्म की नाकामी का कारण बताया


चित्रलेखा उपन्यास पर इतिश्री सिंह के विचार 

इतिश्री सिंह राठौर

चित्रलेखा को धार्मिक ऐतिहासिक कथा मानी जाती है जो प्रेमवासना और पापपूण्य के ईर्दगिर्द घूमती है. कहानी की सबसे बड़ी खामी लगती है चित्रलेखा का चरित्र. कहानी का नाम नारी केंद्रिक है. इस किताब को पढ़ने से पहले पाठक इस भ्रम में पड़ सकता है कि चित्रलेखा का चरित्र कामवासनाओं से दूर एक तेजस्वी नारी का होगा लेकिन यह भ्रांति भर ही है. चित्रलेखा कोभले ही कहानी में तेजस्वी, वैभवशाली
बताया गया हो लेकिन उसके वासना में लिप्त रहने तथा कईं पुरूषों के प्रति
आकर्षित होने के कारण उसके चरित्र में वह दमखम नहीं जो उपन्यास के शीर्षक
को सार्थक बना सके
. कुमारगिरि के चरित्र के चित्रण में भी इस भूल को दोहराया गया. एक
साधु का सुंदर स्त्री के प्रति आकर्षित होना आश्यर्च की बात नहीं लेकिन
बीजगुप्त वासना में लिप्त होने के बावजूद उसकी तुलना में कुमारगिरि के
चरित्रों को ज्यादा नकरात्मकता से उभारा गया है और अंत में इसे
परिस्थितियों का नाम दिया गया है
. यह कहानी पाप की संज्ञा को पूरी तरह नकारती नजर आती है. इससे यह प्रतीत होता है कि अगर कोई चोरी करता है तो वह परिस्थिति को हाथों मजबूर होकर करता है जबकि हमेशा यह लागू नहीं होता. खैर यह तो मेरे निजी विचार हैं लेकिन इस कहानी की गरिमा इतनी है कि इसका ऐतिहासिक गुण कोई नहीं छिन सकता है.



यह समीक्षा इतिश्री सिंह राठौर जी द्वारा लिखी गयी है . वर्तमान में आप हिंदी दैनिक नवभारत के साथ जुड़ी हुई हैं. दैनिक हिंदी देशबंधु के लिए कईं लेख लिखे , इसके अलावा इतिश्री जी ने 50 भारतीय प्रख्यात व्यंग्य चित्रकर के तहत 50 कार्टूनिस्टों जीवनी पर लिखे लेखों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया. इतिश्री अमीर खुसरों तथा मंटों की रचनाओं के काफी प्रभावित हैं.



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