छत्तीसगढ़ के आदिवासी एवं गोदना प्रथा

छत्तीसगढ़ के आदिवासी एवं गोदना प्रथा: एक अध्ययन

विश्व के सभी देशों में आदिवासी निवास करते हैं। यह देश के मूल एवं प्राचीनतम निवासी हैं। प्रारंभ से ही यह दूरस्थ, जंगलों एवं निर्जन स्थानों पर निवास करते आए हैं और इन्हीं जंगलों एवं निर्जन स्थानों पर जीवनयापन करते आ रहे हैं। विश्व के अधिकांश देशों में आदिवासी निवास करते हैं। आदिवासी मुख्यरूप से भारत के उड़ीसा के कौंध, मध्यप्रदेश के गौण्ड, बैगा, सहरिया एवं भील छत्तीसगढ़ के गौण्ड,  माडिया, भतरा तथा उरांव या ओरांव गुजरात के राठवा और राजस्थान के भील एवं भीणा के साथ ही आंध्रप्रदेश, झारखण्ड़, पश्चिम बंगाल में अल्पसंसख्यक है जबकि पूर्वोत्तर में बहुसंख्यक है। इसी क्रम में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी का नाम लिया जा सकता है, जो पुरातन काल से छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में निवासरत हैं। 
       
छत्तीसगढ भारत का एक जनजातीय बहुल राज्य हैं। छत्तीसगढ में घोषित 42 अनुसूचित जनजाति समूह है। यहाँ मुख्यतः गांेड, हल्बा, मारिया, मुरिया, बैगा, कमार, कोरवां, उरांव आदि जनजातियां निवास करती है। नवीन अनुसंधानों, भौतिक संसाधनों से वंचित आदिवासी अपनी उत्सव, परंपरा, त्यौहार, रीति – रिवाज, प्रथाओं को कायम रखते हैं। आदिवासी समाज देश की मूलधारी से अलग किसी क्षेत्र विशेष में अपनी पैतृक परंपराओं की संभाले हुए विशिष्ट प्रकार की जीवन शैली को अपनाते हैं। इसी रीति-रिवाज, प्रथाओं में गोदना की प्रथा आदिवासियों में विशेष प्रचलित है।

आदिवासी का अर्थ एवं परिभाषा

आदिवासी से तात्पर्य है – आदिवासी, वनवासी, जंगली या आदिमजन, गिरिजन, पहाड़ी जाति। शब्दकोशों में आदिवासी शब्द आदिकाल से निवास करने वाले व्यक्तियों के संबंध में प्रयुक्त होता रहा है। आदिवासी अर्थ है कि यह एक ऐसी स्थानीय समूहों का समुदाय है जो एक सामान्य क्षेत्र में रहते हैं, एक सामान्य  भाषा का प्रयोग करते हैं और इनकी एक सामान्य संस्कृति होती है। 
परिभाषा:- 
(1) डाॅ0 विवेकी राय के अनुुसार:- ‘‘ पिछडे़ अंचलों, पहाड़ों, वनों के निवासियों को आदिम – आदिवासी माना है। ’’
(2) डाॅ0 डी0 एन0 मुजुुमदार:-
‘‘ एक मात्र सामायिक जाति, एक ही भू – प्रदेश में वास्तव्य करने वाले एक ही भाषा बोलने वाले, विवाह, व्यवसाय आदि में एक ही नियम का पालन करने वाले पारस्परिक संबंध और व्यवहार के बारे में पूर्वानुभव पर आधारित निश्चित नियमों का पालन करने वाले पारिवारिक समूह आदिवासी जाति हैं। ’’
आदिवासी: गोदना प्रथा
गोदना प्रथा का आदिवासी समाज मंे अपना विशिष्ट स्थान है और प्रायः सभी आदिवासियों में यह प्रथा प्रचलित हंै। आदिवासी युवक-युवतियाँ बड़े चाव से अपने शरीर के विभिन्न अंगों पर गोदना गुदवाते हैं जिनमें तरह-तरह की पशु-पक्षियों की आकृतियाँ होती है। सभी आदिवासी समुदायों के गोदने अलग-अलग होते हैं जिनकी बड़ी सरलता से पहचान हो जाती है। आदिवासी युवतियाँ अपने शरीर के अंगों पर प्रिय या पति का नाम गुदावाना पसंद करती है, जिसे वह मन से चाहती है। गोदना एक ऐसी अलंकरण प्रणाली का नाम है जिसका सीधा संबंध लोक-संस्कृति से जुड़ा है। इसे लोक संस्कार भी माना गया है।
             
गोदना छत्तीसगढ़ के ग्रामीण समाज में गोदना को समाजिक मान्यता प्राप्त है। यहाँ के बस्तर क्षेत्र के आदिवासी समाज में विवाह के पूर्व कन्याओं के शरीर पर गोदना आवश्यक होता है। जिसके शरीर में गुदना नहीं होता है, उसे समाज में हेय भावना से देखा जाता है। आदिवासियों के अलावा अन्य सभी जातियों में गोदना कराने का व्यापक प्रचलन है। माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात भौतिक जगत की सभी वस्तुएँ या आभूषण इसी लोक में छूट जाते हैं लेकिन गोदना आत्मा के साथ स्वर्ग तक जाता है। गोदना में निहित जादू तथा पराशक्ति पर विश्वास भी गोदना का एक कारण है। सामाजिक, धार्मिक आस्थाओं के अतिरिक्त गोदना की एक मान्यता यौन भावना को जागृत करना और अलंकरणों के रूप में उनके सौंदर्य में अभिवृद्धि भी है। शरीर में गुदवाने की यह प्रक्रिया काफी पीड़ादायक होती है। पहले सुइयों से गुदना कराया जाता था, लेकिन अब मशीनों से गुदना कराने का चलन बढ़ गया है। यहाँ गुदना का कार्य देवार जाति के लोग करते हैं।
गोदना का अर्थ:-                  
गोदना का शाब्दिक अर्थ है – चुभोना, गाड़ना, किसी सतह को बार-बार छेदना। शरीर के किसी अंग में स्थायी रूप से अंकित की गयी कलाकृति को गोदना कहा जाता है और इस कला को गोदना कला कहा जाता है। आजकल जो शरीर पर टैटू बनवाते हैं वह इस पारंपरिक कला का ही रूप है। गोदना को आदिवासी अपनी अलंकार मानते हैं। बस्तर के सभी आदिवासी स्त्रियों में गोदना गुदवाने की प्रथा सर्वाधिक प्रचलित हैं। यहाँ तक कि शरीर विकृत हो जाने पर भी इसे अलंकार ही माना जाता है। 
गोदना कार्य या विधि:-  गोदना का कार्य ओझा, कंजर, बंजारा एवं देवार जाति की महिलाएँ करती हैं, जिन्हें गुदारिन या गुदनारी कहा जाता है। बस्तर अंचल में बंजारिन स्त्रियाँ ही गोदने का कार्य करती आ रही है। बिंझवार महिलाएँ दोनों पैरों में अँगूठे से लेकर छोटी उंगली तक तीन स्थानों में तीन -2 बिन्दु लगाती है। एड़ी के उपर चारों ओर तीन -2 बिन्दु लगाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त हाथ एवं चेहरे पर गोदना गुदवाती हैं। कई बार देवी- देवताओं का भी अंकन धार्मिक दृष्टि से किया जाता है। इसमें पुरूष विशेष रूचि नहीं लेते हंै।
          
छत्तीसगढ़ के आदिवासी
छत्तीसगढ़ के आदिवासी
गोदना गोदते समय जड़ी-बूटी के पक्के रंगों का उपयोग किया जाता है। गुदारिन सुई चलाते समय या चुभाते समय बात करती रहती है या कभी-कभी ताना भी मारती है जिससे गुदना गुदवाने वाली महिला का ध्यान दर्द से हट जाये। बीच-बीच में गुदना को सहलाया भी जाता है। गोदना गुद जाने के बाद अंड़ी का तेल के साथ हल्दी का लेप गोदना चिह्न पर लगाया जाता है। सुन्दर गोदना के निशान नारी हृदय को खुशी से भर देता है और वह पीड़ा को भूल जाती है। 
           
गोदना गोदने की प्रथा पीढ़ी-दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती चली आ रही है। गोदना का कार्य समान्यतः देवार जाति के लोग करते हैं वैसे कई अन्य जातियों के लोग भी यह कार्य करते हैं। पहले गोदना का कार्य परिवार की कोई बुजुर्ग महिला करती थीं, परन्तु अब इसे व्यावसायिक तौर पर अपना लिया गया है। सरगुजा में मलार जाति की महिलाएँ गोदना का कार्य करती हैं, जिन्हें गोदहारिन या गुदनारी कहा जाता है। गोदना जिस उपकरण से बनाया जाता है, उसे सुई या सुवा कहा जाता है। गोदना गोदने के लिए तीन या इससे अधिक सुवा एक विशेष ढंग से बांधकर सरसों के तेल में चिकने किए जाते हैं। इन तीन या चार सुइयों के जखना नाम फोपसा या चिमटी कहा जाता है। काजर बनाने की विधि को काजर बिठाना कहते हैं। काजर बनने के बाद इसे पानी में घोल लिया जाता है, फिर शुरू होती है गोदना बनाने की शुरुआत। इसमें सबसे पहले चीन्हा बनाया जाता है। इस क्रिया को लिखना भी कहते हैं। बाँस की पतली सींक या झाड़ू की काड़ी से गुदनारी गोदना गुदवाने वाले के शरीर पर विशेष आकृति अंकित करती है। तत्पश्चात गुदनारी अंग विशेष पर दाहिने हाथ की कानी उँगली से टेक लेकर अँगूठे और तर्जनी उँगली की सहायता से फोसा की मदद से गोदने गोदती हैं। गोदना पूरा होने के बाद काजर में डूबी जखनादार सुई से उसमें रंग भर दिया जाता है। गोदना गुदने पर अंग में सूजन आ जाती है। इसे दूर करने गोबरपानी और सरसों का तेल का लेप लगाया जाता है। गोदना वाला शरीर का स्थान पके न इसके लिए हल्दी और सरसों का तेल लगाया जाता है। करीब सात दिनों में गोदे हुए स्थान की त्वचा निकल आती है और शरीर की सूजन खत्म हो जाती है। वैसे तो गुदना गुदवाने का काम साल भर चलता है, परन्तु ग्रीष्म ऋतु में गोदना गुदवाना उचित नहीं है। इस दौरान गोदना पकने का सबसे ज्यादा खतरा होता है। गोदना गुदवाने का सबसे अच्छा समय शीत ऋतु माना जाता है।
गोदना का इतिहास:-
विभिन्न संस्कृतियों के इतिहास मे टैटू व गोदना का उल्लेख पाया जाता है। पिछली कई शताब्दियों से मानव शरीर पर टैटू (गोदना) बनवाते आ रहा है। 6000 ईसा पूर्व से गोदना का उल्लेख प्राप्त होता है। 1300 ईसा से पहले मिश्र में गोदना गुदाने की प्रथा प्रचलित थी। इसी के आसपास साइबेरिया में भी गोदना का प्रचार-प्रसार था। वर्तमान में जो टैटू बनवाया जा रहा है वह इसी गोदना कला का ही एक रूप है।सबसे प्राचीन मानव शरीर जिसमें टैटू पाया गया वह ष्प्बमउंदष् का है, जो कि लगभग 5300 वर्ष पुराना हैं जिसे नार्थ इटली के पहाड़ांे पर खोजा गया है। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार गोदना आज की खोज नहीं है, अपितु हजारों वर्ष पूर्व से मनुष्य इस कला को जान रहा है। 
गोदना के प्रकार:- 
छत्तीसगढ़ समाज में अलग-अलग जातियों में गोदना गुदवाने का ढंग अलग-अलग होता है। कुछ जाति में अलग चिन्हों को गदिवाया जाता है, जो इस जाति की अलग पहचान बन जाते हैं इस प्रकार उरांव गोदना, कोरवां गोदना गोंड गोदना। यह गोदना विशेष चिह्नों, आकृतियों, गोत्र चिह्नों के आधार पर विभक्त होते हैं। उरांव गोदना की विशेषता है माथे और कनपटी पर तीन रेखाओं वाला गोदना। गोड़ गोदना में महिलाएँ दोहरा जट गुदवाती हैं। इसमें पहले करेला चानी गोदा जाता है, फिर उसकी ऊपरी सतह पर डोरा गोदा जाता है। उसके ऊपर दोहरा जट गोदा जाता है। अगल-बगल में फूल बनाये जाते हैं। फिर इसमें गोंड़ जाति के गोदना की पहचान बनती है। मंझवार जाति में जट गोजना का प्रचलन है। इनमें सबसे पहले सिकरी या लौंग फूल ऊपर थाम्हा खूरा सबसे ऊपर जट गोदा जाता है। यह मंझवार जाति की पहचान है।
                                                         
इसी प्रकार कंवर जाति में पहले करेला चानी फिर सिकरी फिर लवंग फूल उसके ऊपर थाम्हा खूरा और सबसे ऊपर सादा हाथी गोदा जाता है। रजवार गोदना में पांव और बांह पर हाथी गोदना गुदवाने की प्रथा है। रजवान गोदना में छंदुआ हाथी होता है। जनजातीय गोदना के प्रकारों, गोत्र चिह्नों का ज्ञान रहने पर जाति विशेष की महिलाओं की पहचान गोदना कला के आरेखन से की जा सकती है।
गोदना गीत:- 
गोदना गीत अपनी बानगी में अन्य लोकगीतों से बिल्कुल भिन्न है। यह सस्वर तो गाया जाता है परन्तु इसमें संगीत वृंद की आवश्यकता नहीं होती है। यह प्रायः गुदहारियों के द्वारा गाया जाता है। देवार महिलाएँ इस कार्य में पारंगत हैं। गोदना लोकगीत गाए जाने की परंपरा देवार गुदहारियों में अधिक प्रचलित है। देवारिनों द्वारा गाए जाने वाले गोदना गीत पारंपरिक लोकगीत की श्रेणी में आते हैं। उन गीतों के कवियों अथवा रचनाकारों की विषय में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। गोदना लोकगीत के स्वरूप विस्तार का अवलोकन निम्नलिखित रुप से किया जा सकता है – 
गोदना गोदा ले रीठा ले ले ओ
आय हे देवारी तोर गांव म।
आनी बानी के गोदना मैं  गोदथौं ओ,
आके गोदा ले मोर साथ म।
रइही चिन्हारी  तोर जाबे ससुरार म,
गोदना गोदा ले रीठा ले ले ओ।।…

आदिवासियों में गोदना का महत्व                               

इस संबंध में कई किवदंतियाँ प्रचलित हैं। कई जनजातियों की मान्यता है कि  गोदना कराने से नजर नहीं लगती । मृत्यु के पश्चात सभी आभूषण उतार लिए जाते हैं किन्तु गोदना मृत्यु पर्यन्त साथ रहती है, जिसके कारण इसे अमर श्रृंगार भी कहा जाता है। एक मान्यता यह भी है कि गोदना गुदवाने से स्वर्ग में स्थान मिलता है और परमात्मा गोदना वाली आत्मा को पहचान लेते हैं। जनजातीय मान्यता के अनुसार बिना गोदना गुदवाए नर-नारी को मृत्यु के पश्चात भगवान के समक्ष सब्बल से गुदवाना पड़ता है। स्वास्थ्य के दृष्टि से गोदना के कारण स्त्रियों को गठिया रोग नहीं होता और कई बुरी शक्तियों से गुदना उनकी रक्षा करती है। 
रामनामी समाज में गुदना 
छत्तीसगढ़ के रामनामी समुदाय में गोदना के प्रति विशेष आकर्षण है। इस समाज को लोगों का निवास मुख्यतः रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ सारंगढ़ जांजगीर, मालखरौद, चन्द्रपुर, कसडोल और बिलाईगढ़ के करीब तीन सौ ग्रामों में है । इनकी जनसंख्या लगभग पाँच लाख के ऊपर है। रामनामी समाज के लोग अपने चेहरे समेत पूरे शरीर में राम का नाम गुदवा लेते हैं। ऐसा ये अपनी राम के प्रति गहरी भक्ति के कारण करते हैं। शरीर पर राम का नाम गुदवाने का प्रचलन इस समाज में कब से शुरु हुआ है, इसकी सटीक जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं हैं, परंतु इस समाज के बुजुर्गों का कहना है कि हजारों वर्षों से उनके पूर्वज अपने शरीर पर राम नाम गुदवाते आ रहे हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी से यह परम्परा चली आ रही है। रामनामी समाज में लड़का पैदा होने पर निश्चित उम्र में एक संस्कार के रूप शरीर पर राम नाम गुदवाया जाता है, लेकिन लड़कियों के शरीर पर राम नाम विवाह के बाद ही गुदवाने की प्रथा है। पहले रामनामी समाज के लोग पूरे शरीर चेहरे यहाँ तक की सिर में भी राम नाम गुदवाते थे, लेकिन समय के साथ अब लोगों में परिवर्तन आया है। अब समाज के युवा सिर्फ माथे, कलाई या शरीर के किसी एक अंग में गुदवाते हैं। इस समाज का हर समारोह श्रीराम पूजा तथा रामायण के आधार पर होता है। विवाह आडंबर विहीन व बगैर किसी तामझाम के होता है। कन्या पक्ष से किसी प्रकार का कोई दहेज नहीं लिया जाता रामायण को साक्षी मानकर समुदाय का प्रमुख व्यक्ति जयस्तंभ के सात फेरे दिलाकर पति-पत्नी घोषित करता है। इनका संत समागम रामनवमी और पौष एकादशी से त्रयोदशी तक होता है। बिलासपुर के शबरी नारायण में माघ मेला लगता है।
बस्तर की गुदना प्रथा
बस्तर क्षेत्र के आदिवासी समाज में गुदना गुदवाना एक सामाजिक प्रथा है यहाँ महिलाएँ गुदना बड़ी ललक के साथ गुदवाती हैं । यही कारण है कि गुदना प्रथा आदिवासी समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ रही है। समाज में गोदने का कार्य माँ या परिवार में कोई बढ़ी-बूढ़ी महिला करती है, जिसे गुदनारी भी कहा जाता है। बस्तर के आदिवासी समाज में विवाह के पूर्व कन्याओं के अंगो का गुदना आवश्यक है। यदि किसी लड़की के शरीर पर गुदना नहीं होता है तो विवाह के समय उसका ससुर लड़की के पिता से इसके बदले में क्षतिपूर्ति वसूलता है। विवाह पूर्व गुदना को माता द्वारा प्रदत्त गुदा कहा जाता है। जबकि विवाह के पश्चात होने वाले गुदना को ससुराल परिवार नारा प्रदत्त गुदना कहा जाता है। इस समाज में गोदना के संबंध में अनेक मिथक, धार्मिक वं सामाजिक मान्यताएँ जुड़ी हैं। इसके मुताबिक जो महिलाएँ अपने शरीर पर गोत्र चिह्न गुदवाती हैं, उनके पूर्वजों की मृत आत्माएँ संकट की घड़ी में उनकी रक्षा करती हैं। इसी प्रकार जो महिलाएँ अपने दाहिने कंधे और छाती में किसी देवी- देवता को प्रतीक गुदवाती हैं, उसे कभी कोई हानि नहीं पहुँचा सकता है। जो महिलाएँ अपने पैरों में गोदना गुदवाती हैं उसे स्वर्ग की सीढ़ी चढने में जरा सी भी परेशानी नहीं आती है। जो महिलाएँ अपने घुटनों के ऊपर सामने की ओर गुडना गुदवाती हैं, उनके पैरों में घोड़ों की सी शक्ती होती है।
गोदना प्रथा और वर्तमान स्थिति                          
एक समय था जब आदिवासियों में गोदना प्रथा का प्रचलन अधिक था अब धीरे-धीरे यह प्रथा दम तोड़ती जा रही है। नए पीढ़ी के लोग इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। वर्तमान में कुछ ही लड़कियाँ या महिलाएँ गोदना (टैटू) बनवाती है वह भी छोटा-मोटा केवल फैशन के लिए होता है। पूरे शरीर पर गोदना गुदवाना वर्तमान पीढ़ी इसे सुन्दरता को बिगाड़ना और अंधविश्वास के अलावा कुछ नहीं मानते हैं। चाहे जो भी हो लेकिन आदिवासी महिलाएँ आज भी इस प्रथा को जीवित रख अपनी संस्कृति को बचाये रखने में सफल रही हैं। आज कल गोदना के नए-नए रूप देखने को मिल रही है जिसमें से एक कपड़ों पर गोदना की कला प्रचलित होते जा रही है साथ ही इससे आदिवासी स्त्रियाँ आर्थिक सबल भी हो रही हैं।
निष्कर्ष:- अंततः कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी गोदना प्रथा अमर श्रृंगारिक गहना है। यादगार, प्रतीक चिह्न, रोगों से मुक्ति और दर्द निवारण का सार्थक उपाय माना गया है। गोदना एक प्राचीन कला है जिसका उपयोग शारीरिक सुन्दरता के लिए किया जाता है। समय व आधुनिकीकरण का प्रभाव भी इस पर पड़ा। 1950 से 1990 तक ऐसा भी दौर आया जब आदिवासियों को प्रेरित किया गया कि वे गोदना नहीं कराए क्योंकि यह अशिक्षित, पिछड़ेपन और अंधविश्वास की निशानी है लेकिन यह प्रथा अपनी अस्तित्व बचा पाने में सफल रही है।
संदर्भ:- 
(1)  आदिवासी लोक कथाओं में लोक विश्वास, सुशील कुमार शैली, शोधपत्र-2015, पृष्ठ – 29
(2)  छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति कला और साहित्य, प्रकाश मनु और डाॅ0 सुनीता, पृष्ठ – 50
(3)  बस्तर एक अध्ययन, रामकुमार बेहार, 1994, पृष्ठ – 33
(4)  वही………………………………………… पृष्ठ – 57
(5)  बस्तर का आदिवासी संघर्ष, रामकुमार बेहार, 1987, पृष्ठ – 135
(6)  छत्तीसगढ़ के गोंड़ जनजाति में गोदना कला के स्वरूप में परिवर्तन का अध्ययन, बैनर्जी शिप्रा और ताम्रकर ऋचा, शोधपत्र, अपै्रल 2019, पृष्ठ – 492
(7)  छत्तीसगढ़ में गोदना प्रथा, अक्टूबर 2015, लेखक, गीतकार, शोधकर्ता- अजय कुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ- 1,4
(8) तंपचनतकनदपंण्बवउ ,लेख – अरविन्द मिश्रा 
(9) बिहनिया पत्रिका, संस्कृति विभाग, रायपुर, अक्टूबर-2015, पृष्ठ – 39
(10) गोदना: सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ, अक्टूबर 2019, मुश्ताक खान, हस्तशिल्प आदिवासी एवं   लोक कला पर शोध लेखन, पृष्ठ – 1,4
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– शोधार्थी – मनीष कुमार कुर्रे
शोध निर्देशक – डाॅ0 चन्द्रकुमार जैन
हिन्दी विभाग, शास0 दिग्विजय स्वशासी महा0 राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़)
सम्पर्क – 9669226959

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