झगड़ा

झगड़ा 

उस सफेद रंग  वाली कार ने जैसे ही कचरा पात्र के पास आते आते एक बंड़ल उछाला तो चार पाँच लड़के नंग

धड़ंग दौड़े और बड़ी ही फूर्ति से उस बंड़ल की ओर लपके परन्तु कालू ने बीच में अडंगी लगाकर दो को गिरा दिया ।भैंरो को यह देख गुस्सा आया वह दम साधकर भागा कालू भी उसकी बंड़ल की फिराक में था  लेकिन तब तक वह बंड़ल  कचरापात्र का निवाले बन चुका था । भैंरो ने हाँफते हुए लालनेत्रों से कालू को घूरा और अचानक ही वह कचरापात्र में कूद पड़ा ।बड़ल को ढ़ूढकर कुछ तलाशने लगा लेकिन उसमें कुछ न पाकर गंदे हाथ बाहर आ गया ।तब तक कालू भाग चुका था ।

सभी लड़के सुबह उठकर इसी कचरापात्र के पास आकर खड़े हो जाते है अपने पेट के लिए जंग लड़ने ।  भैंरो बतिया  रहा था कि  कौनसी गाड़ी में  पक्का खाना होगा । वह अपनी पारखी और अनुभवी आँखों के गोल मटोल कर सोचते हुए साथियों को बताने लगा तभी एक नयी चमचमाती काले  सीसे की गाड़ी  ने उसका ध्यान अपनी और खींच लिया । बेतहासा सब भागे पॉलिथिन कचरापात्र की और बढ़ी , भैंरो ने उसे लपकने के लिए छलाँग लगाई लेकिन यह क्या ? झबरा बीच में ही उसे लपकने ले गया और दूर भाग गया । झबरा कालू का वफादार कुत्ता है उसके इशारे पर टूट पड़ता है । न जाने क्या सोचकर भैंरो कालू की ओर बढ़ा मजदूर जाकर बोला – यह रोटी मुझे दे दे कल्लू मेरी बहिन ने कल से कुछ नहीं खाया । तू तो आज तीसरा बंड़ल ले चुका अब नया आए तो पक्का तू ले लेना । कालू जोर से हँस पड़ा ।आज तक मेरे होते कभी तेरे बंड़ल हाथ आया जो मुझे देगा ।चल परे हट ,बड़ा आया हिसाब समझाने वाला । वह भैंरो को धक्का देकर गिरा देता है  । भैंरो फिर उठकर गिड़गिड़ाने लग जाता है -दे दे कल्लू ।बदले में चारे मुझे मार ले ।कीचड़ में फेंक दे ।पर यह टुकड़े मुझे दे दे मेरी बहिन भूखी है । जब कोई विनती करता है तो इन्सान खुद को देवता मान बैठता है । कल्लू सूना चौड़ा किए ऐंठे जा रहा था । भैरों पावों में गिरकर बहिन की भूख का निवाला माँग रहा था ।कल्लू देने के बजाय हँसे जा रहा था अपने साथियों के साथ । हँसी के समवेत स्वर भैंरो को चिढ़ा रहे थे ।कुछ सोचकर भैंरो ने कालू का पाँव छोड़ जमीन पर पड़ा एक पत्थर उठाया ,कल्लू आनन्द की तंरग में यह सब देख नहीं पाया । भैंरो ने पत्थर सिर पर दे मारा । एक भयानक चीख के साथ कालू जमीन पर ढ़ेर हो कराहने लगा । दिखावटी दोस्त सारे भाग छूटे । भैंरो कल्लू से बंड़ल छीनकर घर की ओर भाग आया जहाँ उसका इन्तजार पाँच साल की कमजोर मृतप्राय आकृति  कर रही थी । भैंरो को देखकर वह थोड़ी सी हिली , भैंरो ने उसे सहारा दिया और उसका सिर अपनी गोद में लेकर प्यार से सहलाने लगा ।वह माँ बनकर  एक एक निवाला उसके मुँह में  ड़ालने लगा । कुछ कौर खिलाकर पानी पिलाया ।लड़की की जान में जान आई ,होश संभालने पर बालिका ने कौर भैंरो की ओर बढ़ा दिए ।वह आँसूओं के साथ कौर खाए जा रहा था ।
कोई सप्ताह भर उसे कालू दिखाई नहीं दिया । वह आराम से रोटियाँ लेकर आता और अफर कर सो जाता । आठवें दिन कालू अचानक अपने चार चमचों के साथ आया और शुरू हुआ झगड़ा । भैंरो ने कोई प्रगतिवाद नहीं किया वह हर मार कड़े मन से सहता रहा और मुस्कुराता रहा । कल्लू और उसके साथी मार मार कर थक गए । अंत में सभी निढाल होकर वहीं पर पड़ गए ।
तभी अचानक एक और नई गाड़ी कचरापात्र के पास रुकी ,उसे देखकर सब ऐसे लपके मैनें कुछ नहीं हुआ हो । ये वह भैंरो लग ही नहीं रहा था जिसका अभी झगड़ा हुआ था । भैंरो ने पैकट लपका और कल्लू के हाथ में थमाते हुए कहा आज से हिसाब बराबर और झगड़ा भी खतम । चलता हूँ ।
                                                                      

यह रचना मनोज कुमार सामरिया “मनु” जी द्वारा लिखी गयी है।  आप, गत सात वर्ष से हिन्दी साहित्य शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। अनेक बार मंच संचालक के रूप में सराहनीय कार्य किया । लगातार कविता लेखन,सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख ,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन करते हैं।  वर्तमान में रचनाकार डॉट कॉम पर रचनाएँ प्रकाशित एवं  कविता स्तंभ ,मातृभाषा .कॉम पर भी रचना प्रकाशित ,दिल्ली की शैक्षिक पत्रिका मधु संबोध में भी प्रकाशन हो चुका है।
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