तुलसीदास के पद Tulsidas Ke Pad

तुलसीदास के पद – तुलसीदास 
 Tulsidas Ke Pad

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे ।
कौनहुँ देव बड़ाइ विरद हित, हठि हठि अधम उधारे ।
खग मृग व्याध पषान विटप जड़, यवन कवन सुर तारे ।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब माया-विवश बिचारे ।
तिनके हाथ दास ‘तुलसी’ प्रभु, कहा अपुनपौ हारे ।
व्याख्या – प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी ने भगवान् श्रीराम की उदारता ,दयालुता तथा भक्त वत्सलता का वर्णन करते हुए अन्य देवों से उन्हें महान कहा है और उन्ही की उपासना में अपनी आस्था व्यक्त की है। इसमें तुलसीदास का श्रीराम के प्रति आत्म समर्पण का भाव हुआ है। भगवान् श्रीराम को सम्बोधित करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं – हे भगवान् ! आपके चरणों को त्यागकर मैं कहाँ जाऊँ ?संसार में अन्य किसका पतित पावन है जिसको दीन अत्यंत प्रिय हो ?अर्थात पतितों का उद्धार करने वाले तथा दीनों को गले लगाने वाले केवल आप ही हैं अतः आपको त्यागकर अन्यत्र जाना सर्वथा मूर्खता होगी।  
अन्य किसी देवता ने अपने यश के लिए ढूंढ – ढूंढ पतितों का उद्धार किया है ? किस देवता ने पक्षी ,मृग ,व्याध ,पत्थर तथा वृक्ष आदि जड़ जीवों का भी उद्धार किया है ? अर्थात संसार के किसी अन्य देवता ने जड़ तथा चेतन सभी को बिना किसी किसी भेद भाव के ह्रदय से नहीं लगाया ? हे राम ! देवता ,दैत्य ,मुनि ,सर्प तथा मनुष्य सभी माया के वशीभूत हैं। ऐसी िष्ठति में इनके हाथ में अपने हो डालकर यह आपका दास तुलसी अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं करना चाहता अर्थात हे नाथ ! इस दिन तुलसीदास को कृपया आप ही अपनी शरण में ले लें।  इस पद में व्याध ,महर्षि बाल्मीकि के लिए पाषाण ,अहिल्या के लिए विटप ,यमलार्जुन के लिए पक्षी ,जटायु के लिए कहा गया है।  
२. दूलह श्री रघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि वेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।
राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाहीं।
यातै सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारति नाहीं।
व्याख्या – प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित कवितावली के बालकाण्ड से लिया गया है।  इसमें कवि ने राम के विवाह का वर्णन किया है।  कवि का कहना है कि श्रीरामचन्द्र दूल्हा बने हुए हैं और सीता ही दुल्हन बही हुई है। विवाह जनक जी के महल में हो रहा है। महल में उत्सव का माहौल है।  युवा भाह्माण वेद की ऋचाएँ गए रहे हैं। इस प्रकार उच्चारण और विवाह के गीत से सारा महल गुन्जयित है।  
सीता जी ने एक नगदार कंगन पहन रखा है।  इसमें प्रभु श्रीराम का प्रतिविम्ब दिखाई पड़ रहा है।  इसमें सीता जी बड़े ध्यान से राम जी का प्रतिविम्ब देख रही है।एक पल के लिए भी उनकी नज़र उस नग से दूर नहीं जाती है।  
३. जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
कौनहुँ देव बड़ाइ विरद हित, हठि हठि अधम उधारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
खग मृग व्याध पषान विटप जड़, यवन कवन सुर तारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब माया-विवश बिचारे ।
तिनके हाथ दास ‘तुलसी’ प्रभु, कहा अपुनपौ हारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।

व्याख्या – प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित कवितावली के अयोध्याकाण्ड से ली गयी है।  इस पद में कवि श्री राम के वनवास समय का वर्णन किया गया है।  कवि का कहना है कि जिस प्रकार एक तोता अपने पुराने पंखों का त्याग पर नए धारण करता है। उसी प्रकार प्रभु श्रीराम जी ने अपने राजशी वस्त्रों और आभूषणों का त्याग कर सन्यासी का वेश धारण कर लिया है। इस प्रकार जैसे पानी के ऊपर काई की परत हट जाने पर स्वक्ष जल दिखाई पड़ता है ,उसी प्रकार प्रभु श्रीराम का सौंदर्य और भी निखार आया है।  साथ ही श्रीराम के साथ सीता जी और लक्ष्मण जी साथ जा रहे हैं। उन्हें महल और राजसी सुखों की तनिक भी चिंता नहीं है।  श्री राम ने राजसी बैभव को त्यागने में जरा भी आशक्ति नहीं दिखाई। अतः प्रभु मोह -माया के बंधनों से मुक्त अनासक्त है।  

तुलसीदास की भक्ति भावना

संसार में जब -जब अधर्म बढ़ता है ,तब  तब प्रभु अनेक रूप धारण करके दुष्टों का संहार करते हैं और संसार में पुनः धर्म की ज्योति जलाते हैं। तुलसी के आराध्य राम ऐसे ही है ,जो हर संकट में भक्त का साथ देते हैं और उसके कष्टों को दूर करते हैं। कवि रत्न तुलसीदास ने निराश हिन्दू जनता को श्री राम का उपयुक्त अमर सन्देश देकर ही तो सान्तवना प्रदान की थी।उनके राम लोकरंजक के साथ साथ लोकरक्षक भी है। जो हर पल हर क्षण भक्त की रक्षा करते हैं।
तुलसीदास की भक्ति भावना – तुलसीदास की भक्ति भावना चातक जैसी है ,जिसे केवल एक राम का ही बल है और उसी की आस और विश्वास है –एक भरोसो ,एक बल,एक आस विश्वास। एक राम घ्यांश्याम ही ,चातक तुलसीदास। 
तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की है। उन्होंने स्वयं को श्रीराम का दस माना है और उनसे अनेक प्रकार की अनुनय -विनय ही है कि वे किसी प्रकार उनका उद्धार कर दे. उन्होंने श्रीराम के समक्ष अपनी दीनता ,लघुता और विनम्रता को व्यक्त किया है। राम के सामने वे क्या कहें ? वे तो उनके ह्रदय की सब बात जानते ही है। उनके मन की मूर्खता उनसे छिपी कहा हैं।
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जन की । तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की ॥
प्रभु के सामने तुलसीदास छोटे -छोटे और खोटे ही है ,प्रभु की महानता क्या किसी से छिपी है। इसीलिए वे कहते हैं –
राम सो बड़ो है कौन ,मोसो कौन छोटो। राम तो खरो हैं कौन ,मोसो कौन खोटो।
तुलसीदास का मन श्री राम में इतना रमा है कि उन्हें तो सीता राम सारे संसार में ही दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए वे बारम्बार उन्हें प्रमाण करते हैं – सिया राममय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।
जिसे सीता राम प्रिय नहीं ,उसे तुलसीदास एकदम छोड़ देना चाहते हैं ,चाहे वह कितना ही स्नेही क्यों न हो –
“जाके प्रिय न राम बैदेही। ताजिये ताहि कोटि बैरी सम ,जदपि परम स्नेही।”
तुलसीदास की इस अनन्य भक्ति में नवधा भक्ति स्पष्ट देखि जा सकती है।  नवधा भक्ति के नौ तत्व है – श्रवण ,कीर्तन ,स्मरण ,अर्चना ,वंदना ,सांख्य ,दास्य और आत्म निवेदन। रामचरितमानस और विनयपत्रिका इस प्रकार के भक्ति के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। विनय पत्रिका तो समग्र रूप से भक्ति का ही काव्य है।
तुलसीदास में दास्य भाव के साथ कहीं कहीं सख्य भाव की भक्ति भी मिलती है।  वे अपने भ्रम को दूर करने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं – हे हरि ! फस न हरहु भ्रम भारी ? जदपि मृषा सत्य भासे जब लगी नहिं कृपा तुम्हारी।
अंत में तुलसीदास यही प्राण करते हैं कि अब वे अपने जीवन को सांसारिक विषय वासनाओं में नष्ट नहीं करेंगे और निरंतर अपने मन को प्रभु चरणों में लगाएंगे –
अब लौ नसानी अब न नासेहो। राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न दसहुँ।
भक्ति की विशेषताएँ – तुलसीदास श्रीराम के अनन्य उपासक हैं ,परन्तु कहीं भी उन्होंने किसी दुसरे देवी -देवताओं की निंदा नहीं की।  उन्होंने श्री राम चरितमानस में सभी देवी देवताओं की स्तुति ही है ,फिर भी उन्होंने राम को सबसे बड़ा समझकर उनके ही चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।
तुलसीदास की भक्ति की दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने सगुन के खदान के साथ निर्गुण ब्रह्म का खंडन नहीं किया ,न ही उसकी खिल्ली उड़ाई ,वरन उन्होंने तो सगुन -निर्गुण का समनवय स्थापित करते हुए कहा है कि ज्ञान और भक्ति दोनों ही संसार के किस्तों को दूर करने वाले हैं – ज्ञानहिं भगतिहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव – संभव खेदा।  
तुलसीदास ने ज्ञान को कठिन बताकर भक्ति की स्थापना ही है। भक्ति में तुलसीदास की दास्य भक्ति प्रमुख है। यत्र – तत्र सख्य भाव की भक्ति भी मिलती है। नवधा भक्ति के सभी तत्व इनके काव्य में उपलब्ध हैं।  
निष्कर्ष – भक्ति के रूप में तुलसीदास ने अपने ह्रदय की ग्लानि ,दैन्य ,विरक्ति ,निराशा ,कुंठा ,पीड़ा ,एकनिष्ठा और विश्वास का सुन्दर परिचय दिया है।  उनका भक्ति -भाव उनके अंतकरण का इतिहास है। विनय पत्रिका में उनका सर्वोत्कृष्ट भक्त रूप मुखर हुआ है।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है – “भक्ति रस का पूर्ण परिपाक जैसा विनयपत्रिका में देखा जाता है ,वैसा अन्यंत्र नहीं।तुलसीदास के ह्रदय से ऐसे निर्मल शब्द स्त्रोत निकलते हैं ,जिनमें अवगाहन करने से मन की मेल कटती है और अत्यंत्र पवित्र प्रफुल्ल्ता आती है।”



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