उधर गहरे नाले की कुदाई आ रही है
दर्द की अब तक भी दुहाई आ रही है,
मुस्कानों में सिसकी सुनाई आ रही है।
लम्बा सफ़र है अभी बेख़बर ना होना,
उधर गहरे नाले की कुदाई आ रही है।
अपने भी आजकल, पराये से हो गए,
लोगों में इस हद तक बुराई आ रही है।
वो आदमी नहीं है कोई और बात कर,
मुझे उसके गुनाह से उबाई आ रही है।
मां गई है तो, दीवारों का रंग उड़ गया,
गांव की सारी हवेली पुताई आ रही है।
आग़ाज़ सर्दी का, मालूम चल जाएगा,
धुनके के जाके देखो धुनाई आ रही है।
पलकें बिछाई मैंने, दो हज़ार बीस को,
ये सोचा नहीं मां की जुदाई आ रही है।
करें भी तो करें क्या यूं खाली बैठ कर,
ना खेत अपने हैं ना जुताई आ रही है।
ख़्वाब देखा था रात को ताबीर क्या है,
ऐ ‘ज़फ़र’ उलझी सी बुनाई आ रही है।
-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
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