प्रतीक्षा

प्रतीक्षा

सिंधी कहानी
मूल: खिमन मूलाणी
अनुवाद: देवी नागरानी
जिस ब्लॉक में हम रहते थे, उसी के कोने वाले क्वार्टर में सूरजमल नाम के एक वृद्ध व्यक्ति रहते थे। उम्र सत्तर साल के ऊपर थी। ज़्यादातर सब लोग उन्हें ‘काका’ कहकर पुकारते थे। वे अक्सर बीमार गुज़ारा करते थे, इसीलिये कोई काम-धंधा नहीं करते थे। दिन तमाम घर में ही बैठे रहते थे। बेटे व पोते कमाकर लाते थे, जिससे घर की गाड़ी चल जाती थी।
काका धोती पहना करते थे और ऊपर से आधी बांह वाली सिंधी कमीज़ पहनते थे। सिर पर सिंधी टोपी रखकर, उस पर पटका बांधते थे। मैं जब भी भाजी लेने के बहाने या किसी अन्य काम से उनके घर के पास से गुज़रते थे तो वे अक्सर मुझे हंसकर सहर्ष आवाज़ देते : ‘‘भाई साहब, राम-राम।’’
‘‘राम-राम काका, राम-राम।’’ मैं वापसी जवाब देते हुए निकल जाता था।
काका अपनी उत्कट इच्छा मिटाने के लिये मुझसे बतियाना चाहते थे पर मैं व्यर्थ ही वक़्त गंवाना नहीं चाहता था। हक़ीक़त तो यह थी कि मैं उनकी बातों से ऊब जाता था। इसीलिये कभी-कभी तो मैं दूसरे रास्ते से निकल जाता ताकि काका के मुंह न लगूं।
एक दिन मैं काका के घर के पास से गुज़र रहा था, तो मुझे उनकी आवाज़ सुनाई नहीं दी। मेरा ध्यान उस ओर चला गया और मैं रुक गया। मैंने ‘काका’ के घर की ओर देखा। वे अपनी पुरानी जर्जर खाट पर रोज़ की तरह हुक्का मुंह में लगाए आंगन में बैठे थे; और निरंतर सामने वाली दीवार को तक रहे थे। मुझे यूं आभास हुआ कि काका किसी सोच में डूबे हुए थे। मैंने उनकी ओर क़दम बढ़ाते हुए उन्हें आवाज़ दी.‘‘काका, राम-राम!’’
काका का ध्यान मेरी ओर न था। मुझे अचरज हुआ। आगे बढ़ते हुए मैं उनके क़रीब जाकर खड़ा हो गया। मैंने
खिमन मूलाणी
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देखा काका की आँखें नम थीं। मैंने फिर से कहाः ‘‘काका, राम-राम!’’ काका के रवैये में तब भी कोई परिवर्तन नहीं आया। मुझे शक होने लगा कि काका कहीं इस दुनिया से रवाना तो नहीं हो गए हैं। मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कुछ ज़ोर से कहा : ‘‘काका…हरे…राम!’’

मेरी आवाज़ पर काका चौंक पड़े। जैसे उनकी समाधि में भंग पड़ा हो। हैरान निगाहों से मेरी ओर देखने लगे और मैं उन्हें देखकर मुस्कराने लगा। काका ने भी जबरन अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए अपने अंगोछे के पल्लू से आँसू पोंछते हुए कहा, ‘‘आओ बेटे, आओ बैठो, बहुत दिनों बाद आए हो!’’
मैंने बिना कुछ कहे, एक आज्ञाकारी बालक की तरह चुपचाप उनके बाजू में बैठ गया। मैं अब भी हैरान था यह सोचकर कि हमेशा खुश रहने वाले ‘काका’ आज इतने ग़मगीन क्यों हैं? काका फिर भी शांत रहे, पर मुझसे रहा न गया। इसलिये शांति को भंग करते हुए उनसे पूछा.‘‘काका क्या हाल-चाल है?’’
खुद को संभालते हुए काका ने कहा.‘‘सब ठीक-ठाक है बेटा!’’ मुझे उनके उत्तर से कोई संतोष न हुआ। बस दूसरा सवाल करना चाहा.पर काका…?’’
काका ने मुझे अपना वाक्य पूरा करने नहीं दिया। कहा.‘‘बस बेटा ऐसे ही पुरानी यादें दिल में तैर आईं और मन भर आया। दुनिया देखी है, बहुत ही पाया और गंवाया है। पर बेटा, गंवाने का दुख तो हर इन्सान को होता ही है।’’
मैं उनकी बात का अर्थ पूरी तरह से समझ नहीं पाया। मैं जानने को उत्सुक हुआ कि उनकी ऐसी कौन-सी चीज़ गुम हो गई है कि वे इतने विचलित हुए हैं। पर मैं अपनी सोच शब्दों में ज़ाहिर नहीं कर पाया। बस इतना ही कहा.‘‘काका, आपकी कौन-सी चीज़ खोई है?’’
काका ने जवाब देते हुए कहा.‘‘बेटे मैंने एक बहुमूल्य वस्तु गंवाई है।’’
‘‘ऐसी कौन सी चीज़ है वह?’’ मैंने दुबारा पूछा।
काका ने ठंडी सांस लेते हुए कहा.‘‘बेटा मैंने अपनी जन्मभूमि गंवाई है। जन्मभूमि जो स्वर्ग से भी महान होती है।’’
मेरी हंसी फूट पड़ने को थी, पर मैंने उसे दबाए रखा। कुछ पल रुककर कहा.‘‘काका, पर यह तो विभाजन के बाद की बात थी। अब तो 1971 चल रहा है। विभाजन को पूरे 24 साल होने को हैं, आप अभी तक सिन्ध को याद कर रहे हैं!’’
‘‘सच कहते हो बेटे, पर जहां आग लगती है वहीं तपिश महसूस की जाती है। किसी और को क्या पता कि पीड़ा क्या होती है।’’
ऐसा कहकर काका मेरे चेहरे की ओर देखते हुए कहने लगे.‘‘पता है; रात मैंने एक सपना देखा है। ऐसा सुन्दर सलोना सपना मैंने ज़िन्दगी में पहले कभी नहीं देखा है। क्या देखता हूं, मैं हैदराबाद स्टेशन पर जाकर उतरा हूं। स्टेशन देखकर जो खुशी मुझे हुई, मैं बयान नहीं कर सकता। एक-एक आते-जाते आदमी को ग़ौर से देखता हूं। ऐसे जैसे मैं पागल हो गया हूं। अचानक देखता हूं कि हमारे गांव का दुलारा ख़ान मेरे सामने खड़ा है; और वह मुझे घूरे जा रहा है। उसे देखते ही आँखें घूमती हुई उसपर ठहर गईं। खींच कर उसे गले से लगाया। फिर तो वह गले लगकर रोने लगा; ज़ोर-ज़ोर से सिसकियों के बीच जैसे उसकी आवाज़ बंध गई। मैं भी रोने लगा तो लोग जमा होने लगे। सभी पूछने लगे कि माजरा क्या है? क्या हुआ? मैं उन्हें क्या बताता कि क्या हुआ! आख़िर कहा.‘‘भाई बरसों बाद मिले हैं…इसी कारण आँखें भर आई हैं।’’ लोग तो चले गए; पर दुलारा भूली-बिसरी यादों के किस्से ले बैठा।
‘‘यार तुम्हारे जाने के बाद हम तो पीड़ाओं से घिर गए हैं। आप तो हमें नितांत अकेला करके चले गए। अब तो परदेसियों की ज़ोर-ज़बरदस्ती ने हमें चूर-चूर कर दिया है। हमारे साथ अपने ही देस में परदेसियों जैसा सुलुक किया जाता है। हमारा जीना हराम कर रखा है।
कुछ रुककर कहने लगा.‘‘मूरजमल, आपको यहाँ से जाना ही नहीं चाहिये था।’’
ऐसा कहकर काका कुछ पल रुके और फिर बात जारी रखते हुए कहा.‘‘बेटा, सच पूछो तो दुलारे की वह पहले सी प्रीत और लगाव देखकर मन खुश हो गया। इसी तरह बातें करते-करते हम गांव की दो टिकट लिये और आकर गाड़ी में बैठे, ‘‘काका बात करते-करते रुक गए।
‘‘फिर क्या हुआ काका…?’’ मैंने पूछ लिया।
काका ने मेरी ओर कुछ इस तरह देखा जैसे वे मेरा चेहरा पढ़ रहे हों। पल भर के पश्चात् ठंडी सांस लेते हुए कहा.‘‘फिर न जाने क्या हुआ बेटे। दुर्भाग्यपूर्ण नींद खुल गई। डायन नींद की प्रवृत्ति ही शायद ऐसी है। ससुई से पुन्हल को छीना और मुझसे मेरी जन्मभूमि का दीदार।’’
मैंने कहा.‘‘काका, कभी सपने भी सच होते हैं? सबसे बड़ी बात यह है कि हम जो यहाँ पैदा हुए हैं, पले-बढ़े हैं, अगर सिन्ध लौट भी जायें तो क्या हमें यह अपना वतन याद नहीं आएगा? और फिर, वहाँ जो हमारी तरह नई नस्ल पैदा हुई होगी, उनकी दिलों में क्या आपके लिये वही प्यार, मुहब्बत व इज़्ज़त होगी?’’
काका को मेरी बात न भाई, कहने लगे.‘‘छोड़ों बेटा इन बातों को। बताओ मुल्क का क्या ताज़ा समाचार है?’’ काका ने बात बदलने के लिए मेरी ओर एक नया सवाल उछाल दिया।
‘‘सब ठीक है काका। मुल्क ऐसे ही चल रहा है जैसे चलता है।’’ मैंने कहा।
काका सोच में पड़ गए कहने लगे.‘‘क्या तुम समझते हो कि फिर सिन्ध में लौट जाना होगा?’’
‘‘नहीं काका, मुझे तो नहीं लगता, फिर भी मौला जाने।’’ मैं काका के दिल को दुखाना नहीं चाहता था।
‘‘नहीं बेटा, ऐसे मत कहो। वक़्त बड़ा बलवान है, रब बड़ा मेहरबान है; वह चाहे तो क्या नहीं कर सकता। मेरी आत्मा कहती है कि जाएंगे ज़रूर।’’ ऐसे कहते हुए बाबा के चेहरे पर अनोखी रौनक छा गई।
मैंने उनकी ओर देखते हुए कहा.‘‘काका, इस बात की संभावना बहुत कम है।’’
यह सुनकर पहले तो वे विचार में पड़ गए, फिर सर उठाकर कहने लगे.‘‘सच कह रहे हो बेटा, मगर मेरा दिल नहीं मानता। मेरा मन कह रहा है कि हम सिन्धी एक दिन ज़रूर अपनी जन्मभूमि पर जाकर बस जाएंगे।’’
‘‘काका ये तो सब जज़्बाती बातें हैं। सच पूछिये तो आपको सिन्ध छोड़ना ही नहीं चाहिए था।’’
‘‘हां बेटा, पर मैंने जन्मभूमि अपनी मरज़ी से नहीं छोड़ी! हालात ही कुछ ऐसे बनते गए।’’ काका ने अपनी मजबूरी बताई।
‘‘हालात में तो ठहराव ज़रूर आ जाता! जल्दबाज़ी करने की क्या ज़रूरत थी?’’
‘‘अरे बेटे, मैंने सिन्ध सदा के लिए तो नहीं छोड़ी थी। पता है, सन् 1946 में, गांव में महल जैसा ही नया घर बनाया था। सभी रोक रहे थे कि क्यों बेकार का ख़र्च कर रहे हो। अब हमें हिन्दोस्तान चलना पड़ेगा। मैंने किसी की नहीं सुनी। सभी से यही कहा.‘‘पागल हो गए हो। कभी किसी ने अपना घर भी छोड़ा है? हम सदियों से यहाँ रह रहे,
देवी नागरानी
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पले-बढ़े हैं, फिर कैसे अपनी जन्मभूमि छोड़ेंगे? उस समय भी सभी मुझ पर हंसते थे; जैसे आज तुम हंस रहे हो?’’

ऐसा कहते ही काका की आँखों में फिर से आँसू उमड़ आए; कुछ रुककर फिर जैसे ख़ुद से बतियाने लगे.‘‘अपना महल जैसा बसा-बसाया घर ऐसे ही छोड़ आया। ताला लगाकर, चाबियां अपने दोस्त बड़े गुल मुहम्मद को दी और कहा.‘‘हम तीर्थ करने हिन्दोस्तान जा रहे हैं, जल्द ही लौट आएंगे। तब तक ये चाबियां संभाल कर रखना।’’
‘‘फिर लौट कर क्यों नहीं गए?’’ मैंने पूछा।
‘‘मैं तो जाना चाहता था, पर नाते-रिश्तेदारों ने, घर वालों ने जाने ही नहीं दिया। कहने लगे, हालात अब भी ख़राब हैं, वहाँ जाकर क्या करोगे? बस ऐसे ही मजबूर हो गया।’’ काका कहकर चुप हो गए।
‘‘काका, इन बातों को अब दिल से निकाल ही दें।’’ मैंने सुझाव दिया।
काका ने एक लम्बी सांस ली, फिर मेरी ओर देखते हुए कहा.‘‘बेटे तुम मुझे लाख बार समझा लो, पर मेरा दिल भी तो माने न! बार-बार शाह के कलाम कानों में गूंजते रहते हैं।’’
मैंने काका के भीतर की पीड़ा को महसूस करते हुए उन्हें सांत्वना देने के इरादे से कहा.‘‘काका, सच कह रहे हैं आप, दिल की लगी बुरी बला है।’’
‘‘बेटे, तुम चाहे कैसी भी बातें कर लो, पर मुझे विश्वास है कि मैं मरूंगा तो अपने वतन में, अगर ऐसा नहीं हुआ तो मैं वसीयत बनवाऊंगा कि मेरी ख़ाक सिन्ध नदी में परवान की जाएं, तब तक मैं अपनी जन्म भूमि के बिछड़ने का दर्द सीने में संजोकर, उसके दीदार की प्रतीक्षा करता रहूंगा।’’
मैं चुपचाप काका के चेहरे को घूरता रहा; और उसके दिल के दर्द में खुद को डूबता हुआ महसूस करता रहा। मेरे मुंह से एक अक्षर भी नहीं निकल पाया।

 खीमन मूलाणी (१९४४-  ) रचनाकार 
जन्म: नवाबशाह के दर्स गाँव में। 1960 से लेखन कार्य सतत जारी है। उनके प्रकाशित 4 काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह ‘ओसीरो’। बाल साहित्य पर उनके दो संग्रह प्रकाशित हैं। अनुवाद के क्षेत्र में आप एक सिद्धस्त हस्ताक्षर हैं। 9 पुस्तकों का हिन्दी से सिंधी में अनुवाद। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजली’,  नॉवल ‘जल तू जलाल तू, और डॉ. अंबेडकर का सिंधी अनुवाद विशेष हैं। सिंधी के अनेक संग्रह हिन्दी में अनुवाद किए हैं जिनमें –‘स्वामी के श्लोक’ चर्चित है। देश के जाने माने हस्ताक्षर लेखकों के कहानी संग्रह व उपन्यास अनुवाद किए हैं, कुछ प्रेस में हैं। राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद की ओर से-‘उडुर-उडुर रे पोपटड़ा’ के लिए 1992 में पुरुसकार हासिल, फिर मुसलसल 1995, 2004, 2010 में केन्द्रीय साहित्य अकादेमी के ओर से ‘सुहिणा गुलड़ा बार’ के लिए पूरुस्कार।                                                                                                                   पता: A-14/134 बैरागढ़, भोपाल-462030, Ph: 09827343735

 अनुवादिका 
 देवी नागरानी जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।
संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ dnangrani@gmail.com

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