‘प्रधूपिता से‘ अर्थात् दुखिया से। कविता एक ऐसी औरत को सम्बोधित है जो किसी कारणवश पथ–भ्रष्ट हो चुकी है — दकियानूस समाज द्वारा तिरस्कृत और बहिष्कृत है।
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ओ विपथगे !
जग–तिरस्कृत,
आ
माँग को
सिन्दूर से भर दूँ !
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सहचरी ओ !
मूक रोदन की —
कंठ को
नाना नये स्वर दूँ !
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ओ धनी !
अभिशप्त जीवन की —
आ
तुझे उल्लास का वर दूँ !
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ओ नमित निर्वासिता !
आ
आ
नील कमलों से
घिरा घर दूँ !
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वंचिता ओ !
उपहसित नारी —
अरे आ
रुक्ष केशों पर
विकंपित
स्नेह–पूरित
उँगलियाँ धर दूँ !
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