फैसला – गर्ल्स हॉस्टल पर आधारित कहानी

फैसला हिंदी कहानी

स गाँव में अधिकतर किशोर – किशोरियाँ गाय, भैंस और बकरियाँ चराते. खेती के समय खेत पर हो रहे काम में हाथ बँटाते. जब फसल पक जाती तब लड़कियाँ अपनी माँओं के साथ खेतों में लावणी करने जातीं और लड़के ढाँढे – ढोर चराते. 

गाँव का सरकारी स्कूल उन्हें अपनी और खींच नहीं पाया तो क्या ? बाकायदा उनके नाम, रजिस्टर में उनकी उपस्थिति बताते थे. मिड – डे मील का रजिस्टर भी उनके नाम का भोजन पिछले दो साल से खा रहा था. उनके लिए ये जादू नहीं था कि वे बिना स्कूल गए ही कागजों में, आगे की कक्षाओं में बढ़ते जा रहे थे.

मीना मैडम को यह सब कुछ बहुत अखरता उन्होंने खूब सुना था कि जल में रहकर मगर से बैर कौन ले ? लेकिन जब एक बार आदमी, बैर लेने की ठान लेता है तो फिर वह मगर से नहीं डरता. इसलिए साथी शिक्षक से बिना किसी बहसा – बहसी के वह एक दिन उन किशोर – किशोरियों के घर पहुँच गईं और उनके माँ – बाप की समझाइश करते हुए कहने लगीं कि “ये जो तुम्हारे बच्चे भैंस चरा रहे हैं न, वो जिंदगीभर भैंस ही चराएँगे. तुमको पता है कि अपने ब्लॉक में लड़कियों के लिए एक सरकारी हॉस्टल है. उसमें रहकर तुम्हारी बेटियाँ वहाँ पढ़ सकती हैं. उस हॉस्टल में ही उनकी रहने, खाने – पीने, खेलने और पढ़ने की सारी व्यवस्थाएँ होती हैं और तुम लड़कों को हमारे स्कूल में क्यों नहीं भेजते” ?

उस दिन कई माँओं के स्वर एक साथ मैडम के कान से टकराए “काईं होए भेजबा सूं, घणा ही फडया एयाँ ही घूम रह्या छे और फिर म्हांका ढोर डंगर काईं थे चराओगा ? 

अजी, म्हेंह तो कोंण चराऊँ, पर पाछे थांका छोरा – छोरी एयाँ ही रुडता डोलेंगा.

अजी, म्हांका तो रुडबा द्यो.

यह बात इनके समझ में नहीं आएगी कि पढ़ा – लिखा आदमी, ढोर डंगर भी चरा सकता है और बाबू भी बन सकता है. एक पढ़ा – लिखा आदमी, दुनिया जहान की बातें ज्यादा देख समझ तो पाता ही है न ! अब  कैसे बताऊँ इनको कि इनके बच्चों के नाम की रोटी, रजिस्टर पिछले दो साल से खा रहा है. यह बात उस समय मीना मैडम होठों में बुदबुदाकर रह गईं.

फैसला - गर्ल्स हॉस्टल पर आधारित कहानी

मैडम कभी भैंस चरते बच्चों को, तो कभी स्कूल के हैण्डपम्प पर नहाने आईं औरतों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए टोकतीं. बात करते समय तो बच्चे स्कूल आने की ऐसी हामी भरते जैसे कल पढ़ने आ ही जाएँगे लेकिन आते नहीं. कुछ दिनों बाद तो वो मैडम को देखकर दूर से ही भाग जाते. हैण्डपम्प पर आईं औरतें भी कहतीं अजी भेजेंगां – भेजेंगां. पर बच्चों को स्कूल में पढ़ने भेजती नहीं. बच्चों को ये भान था कि अगर वे स्कूल में आएँगे तो उनके तितली जैसे उन्मुक्त जीवन से वे पिंजरे में आ जाएँगे.

जहाँ स्कूल उनकी उपस्थिति बनाए रखते हुए अपना अस्तित्व बचा रहा था वहीं दूसरी ओर, उनके हिस्से की रोटी भी खा रहा था. बहुत रस्साकसी के बाद दो – तीन लड़के तो सप्ताह में एक दो दिन आने लगे लेकिन लड़कियाँ माँओं के साथ खेतों पर ही जाती रहीं. लड़कियों को स्कूल लाना बहुत मुश्किल काम था. कुछ दिनों तक माँ – बाप और बेटियों के बीच हाँ – हाँ, ना – ना चलती रही. मैडम ने भी सुबह – शाम चक्कर काट – काट कर स्कूल और बच्चों के घर एक कर डाले. अब कुछ लड़कियाँ हॉस्टल में जाने को तैयार हुईं तो माएँ अड़ गईं. 

छोरी जात नैं क्यां भेजां ? म्हाँकी छोरी तो कदे बारने गई ही कोने और अब जाणें कितरा दिन की छै बाप का घर में ? 

बड़ी जी – हुज्जत के बाद सुकन्या की माँ, बेटी को हॉस्टल में भेजने के लिए तैयार हो गई तो बाप अड़ गया. 

ओह ! छोरी काईं कलक्टरनी बणेगी ? म्हांके कोन फड़ायें छोरी नै. अब बरस, दो बरस पाछे तो परणाबा की सोचो. छोरी फड जाए तो छोरो भी फढो – लिखो ढूँढो ! 

मैडम का तो उनकी समझाइश करते – करते दम ही निकलने लगा. अब तो झुँझलाकर कभी – कभी वह कहने लगीं “भाड़ में जाएँ, ये तो ऐसे ही रहेंगे”. 

मैडम अब अपने स्कूल आतीं, बच्चों को पढ़ातीं और अपने घर चली जातीं. थोड़े दिनों के बाद कुछ लड़कियों और उनकी माँओं को मैडम की बात में अपना भला समझ आने लगा तो एक दिन गाँव की तीन औरतें और चार लड़कियाँ हॉस्टल के बारे में तहकीकात करने स्कूल में मैडम को ढूँढते – ढूँढते आईं. गाँवभर के घरों में अब बस लड़कियों को हॉस्टल में भेजने की बात होने लगी.

खूब ऊँच – नीच सोच लेने के बाद, गाँव से छह लड़कियाँ हॉस्टल में जाने के लिए तैयार हुईं. सुकन्या सबसे बड़ी थी. उसके साथ पाँच छोटी लड़कियाँ भी हॉस्टल में जाने के लिए तैयार गईं. किसी के माँ – बाप ने अपनी बेटी के लिए एक – एक जोड़ी कपड़े सिलवाए तो किसी ने जूते ला कर दिए. सोना ने जूते पहली बार पहने. हॉस्टल जाने वाले दिन लड़कियाँ बहुत उदास थीं लेकिन इस बात से ख़ुश भी थी कि अब वो भी अपने गाँव में स्कूल की मैडम की तरह पढ़ी – लिखी हो सकती हैं. 

रास्तेभर गाँव की छहों लड़कियों के संरक्षक बन कर गए जग्गू दादा और सोना की दादी. वे दोनों जुगाड़ में बैठे – बैठे उन बेटियों को अपनी इज्जत की ऊँच – नीच समझाते रहे. इस दौरान लड़कियाँ उनकी बातों को चुप रहकर अपनी गाँठ में बाँधती जा रही थीं. 

हॉस्टल आ गया तो जग्गू दादा जुगाड़ से उतर कर आगे – आगे चलने लगे और लड़कियाँ सोना की दादी के साथ पीछे – पीछे. हॉस्टल की वार्डन मैडम ने सबका एडमीशन फार्म भरा और दादा – दादी को आश्वस्त किया कि उनकी लड़कियाँ यहाँ सुरक्षित रह कर पढ़ेंगी. 

यह दिन उन छहों लड़कियों के जीवन में आए एक नए दिन की तरह था. 

हॉस्टल में शुरू – शुरू में तो लड़कियाँ डरी – डरी सी झुण्ड – सा बना कर रहतीं. उन्हें लगता कि और लड़कियाँ उनकी बोली और पहनावे को देखकर गँवार नहीं समझ लें. इसलिए चुप – चुप रहकर कोशिश करतीं कि और लड़कियों और मैडमों की भाषा और और उनके तौर – तरीके वो जल्दी से जल्दी सीख जाएँ. कुछ दिनों बाद तो उनका यहाँ मन भी लगने लग गया. धीरे – धीरे कुछ लड़कियाँ उनकी सहेली भी बन गईं. थोड़ा – थोड़ा पढ़ना – लिखना सीखने लगीं तो उनमें आत्मविश्वास भी आने लगा लेकिन उधर गाँव में मीना मैडम के स्कूल के रमेश मास्टर जी ने तूफ़ान मचा दिया. 

तुम्हारे बच्चों का तो हमने अपने स्कूल के रजिस्टर में नाम लिख रखा है और तुम अपनी लड़कियों को वहाँ हॉस्टल में पढ़ने भेज रहे हो, बुलाओ उनको वापस. वहाँ क्या सीखेंगी वो ? गाँव की गाँव में स्कूल होने पर भी तुम अपनी बेटियों को बाहर भेज रहे हो, पता भी है जमाना कितना ख़राब है ?

अब स्कूल और गाँव में बस एक ही चर्चा कि लड़कियों को हॉस्टल में क्यों भेज दिया ? लोग कहे में आ गए हैं मैडम के, पागल है मैडम तो ! वो क्या जानें गाँववालों की इज्जत ? हमको तो नहीं पढ़ाना हॉस्टल में. बस ! अब ये ही एक मुद्दा गाँ भर के मुँह पर घूमने लगा. अब क्या था ? पंद्रह दिन बाद जग्गू दादा और सुकन्या के पिता उन सभी लड़कियों को वापस लेने चल पड़े. 

हॉस्टल की वार्डन मैडम ने खूब समझाया. 

“देखो, लोग तो ऐसे ही कहते हैं आप तो समझो, आपकी लड़कियाँ पढ़ – लिख जाएँगी तो उनका जीवन बदल जाएगा. आपको मुझ जैसी पढ़ी – लिखी को देखकर अच्छा नहीं लग रहा क्या ? बात तो सही थी पर उधर पूरा गाँव लड़कियों को वापस बुलाने पर तुला था. 

सुकन्या अपनी सहेलियों के गले लगकर फूट – फूट कर रोने लगी.

“दादा, म्हने अंडे ही फडबा द्यो न ! म्हें तो अंडे ही फडूगी”

जग्गू दादा का दिल पसीज गया. छोटी लड़कियों को थोड़ी – थोड़ी घर की याद भी आ रही थी सो वे भागकर घर वापस आने को तैयार हो गईं. पाँचों लड़कियों को ले कर दादा और सुकन्या का बाप वापस गाँव आ गए. 

रमेश मास्टर जी के कलेजे में ठंडक पड़ी. हॉस्टल से लौटी पाँचों लड़कियाँ एक – दो दिन तो स्कूल गईं और फिर सबने अपने – अपने घर के ढाँढे – ढोर संभाल लिए. 

हॉस्टल में सुकन्या की खूब सारी सहेलियाँ बन गईं. वो आपस में खूब – घुल मिलकर रहतीं, एकदूसरे की चोटी गूँथती, एकदूसरे के कपड़े पहन लेतीं, रात को एकदूसरे के कमरों में घुस – घुस कर खूब सारी बातें करतीं. किसको कौन लड़का अच्छा लगता है ? इन दिनों कौन – कौन डाउन है ? किसको आज कौनसा दिन चल रहा है ? गाँव में किस – किस को माताजी आती है ? कौनसी मैडम सुन्दर है ? मैडमें साड़ी में कितनी सुन्दर लगती हैं. किस मैडम के सबसे लम्बे बाल हैं ? ये दुनिया जहान की बातें उनकी खत्म ही नहीं होतीं. वार्डन मैडम के चिल्लाते रहने के बाद भी ये लड़कियाँ, लाईट बंद कर के देर रात तक गुटुर – गुटुर करती रहतीं. 

ये भी बातें होतीं कि वो जो अफसर सर हैं ना, जो मैडम को लेने आते हैं पता है, उनसे उनका चक्कर है. वो उन्हीं मैडम से ज्यादा गप्प ठोकते हैं. लड़कियाँ उनके इशारे पकड़तीं और फिर एकदूसरे को खूब हँस – हँस कर बतातीं. 

कुछ दिनों के बाद मैडम का ट्रांसफर दूसरे जिले में हो गया पर अफसर सर का हॉस्टल में आना – जाना बदस्तूर जारी रहा. कुछ अक्खड़ किस्म के ये सर, अब कभी – कभी आ कर लड़कियों की क्लास भी लेने लगे.

लड़कियों को जब कुछ नहीं आता तो उन्हें समझाने के अंदाज़ में उनका हाथ लड़कियों की पीठ या कंधे पर जा कर ठहर जाता. उनकी पारखी नज़रें भाप जातीं कि इन सवालों के जवाब ये लड़कियाँ नहीं दे पाएँगीं. ऐसे में वे छुट्टी के बाद लड़कियों को कठिन सवाल समझाने के लिए अपने पास बुलाने लगे. सवाल समझने के लिए आज सुकन्या को बुलाया. सुकन्या सर के सामने जा कर खड़ी हो गई. सर ने स्टूल की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने के लिए कहा. स्टूल पर बैठी सुकन्या अपनी कॉपी में आँखें गड़ाए हुए थी लेकिन वह यह भाँप पा रही थी कि सर उसके चेहरे की ओर लगातार देख रहे हैं. सर ने कहा –

“देखो आज जो सवाल तुमने गलत किया वह मैं तुम्हें समझाता हूँ” सर, अपनी कुर्सी को पीछे धकेलते हुए सुकन्या के पास खड़े हो गए. उनका हाथ सुकन्या के कंधे से उतर कर उसके कुरते में फिसल गया. घबराकर सुकन्या बाहर भागी. सर पीछे – पीछे कमरे से बाहर कहते हुए निकले “क्या हुआ बेटा—, इधर आ”. 

सुकन्या भागकर अपने कमरे में घुस गई और फूट – फूट कर रोने लगी. क्या हुआ ? क्या हुआ ? सबकी आँखें बस यही सवाल कर रही थीं. सहेलियाँ लगातार कह रही थीं क्या हुआ, बता तो सही. इतने में वार्डन मैडम आ गईं. 

सर ने बाहर निकल कर चुपचाप गाड़ी अपने घर की ओर बढ़ा दी. 

बातों के पैर नहीं, पर होते हैं. खबर, विभाग के मुख्यालय में उड़ कर पहुँच गई. मुख्यालय से बड़ी मैडम, मामले की जाँच करने आईं. रेलवे स्टेशन पर ही सर, उनकी अगवानी करने पहुँच गए. मैडम को अपनी कार से गेस्ट हाउस पहुँचाया और फिर कार से ही हॉस्टल ले कर पहुँचे. रास्तेभर वे अपने शहर की खासियात बताते रहे. 

मैडम हमारे शहर का बंधेज बहुत प्रसिद्ध है शाम को आपको एक साड़ी दिलवाते हैं यहाँ की, और रसगुल्ले खाए हैं आपने हमारे यहाँ के ? ऐसी ही शहरभर की बातों में हॉस्टल तक का रास्ता पार हो गया. 

हॉस्टल में सामने कुर्सी पर सर बैठे थे. बड़ी मैडम ने सुकन्या को बुलाया. 

सुकन्या आ कर बड़ी मैडम और सर के सामने चुपचाप आ कर खड़ी हो गई.

मैडम ने कहा – 

शर्म नहीं आती तुमको, झूँठ बोलते हुए. क्या समझ रखा है तुमने अपने आप को ? ये एक पढ़े – लिखे  अधिकारी, तुम जैसी गँवार लड़की से छेड़खानी करेंगे ?

सुकन्या के होठ चिपक गए और आँसू गालों पर लुढ़क आए.

बाहर निकलकर मैडम ने फेंसला सुनाया.

अरे बाबा ! कोई बात ही नहीं है. ये गाँव की लड़कियाँ भी न, बहुत झूँठ बोलती हैं. 

अगले दिन सुकन्या के पिता को बुलाकर हॉस्टल की वार्डन मैडम ने कहा –

आपकी लड़की पढ़ाई में जरा कमजोर है, इसे अपने गाँव के स्कूल में ही पढ़ाओ. ये यहाँ चल नहीं पा रही है, अगले साल देखेंगे.

                   – अनुपमा तिवाड़ी, जयपुर  

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