बसन्त आया – रघुवीर सहाय

जैसे बहन ‘दा’ कहती है

ऐसे किसी बँगले के किसी तरु( अशोक?) पर कोइ चिड़िया कुऊकी

चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराये पाँव तले

ऊँचे तरुवर से गिरे

बड़े-बड़े पियराये पत्ते

कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहायी हो-

खिली हुई हवा आयी फिरकी-सी आयी, चली गयी।

ऐसे, फ़ुटपाथ पर चलते-चलते-चलते

कल मैंने जाना कि बसन्त आया।

और यह कैलेण्डर से मालूम था

अमुक दिन वार मदनमहीने कि होवेगी पंचमी

दफ़्तर में छुट्टी थी- यह था प्रमाण

और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था

कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल

आम बौर आवेंगे

रंग-रस-गन्ध से लदे-फँदे दूर के विदेश के

वे नन्दनवन होंगे यशस्वी

मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व

अभ्यास करके दिखावेंगे

यही नहीं जाना था कि आज के नग्ण्य दिन जानूंगा

जैसे मैने जाना, कि बसन्त आया।

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