बारिश के बाद
बारिश से पहले :
कुछ पंछी हैरान आ बैठे मेरी खिड़की पर
दिन भर चहकती रही मेरी पत्नी.
बारिश के बाद :
उठती है सड़कों से सागर की गंध
मेरे घर की बुनियादों पर टूटती है लहरें
बारिश के बाद |
और चक्कर लगाती हैं कुछ जादुई ईलें.
ईलों की चमक में दिखते हैं कुछ चेहरे तैरते-से.
लाशें, ट्रेन के पहियों से कटी,
लाशें, ट्रेन के डिब्बों में बंद,
एक ऐसी भी जो सड़ रही है
दो दिनों से ट्रेन के टॉयलट में.
हैं इनमें कुछ ऐसे भी जो दिखते थे मुझे
रोज़ सुबह मॉर्निंग वॉक पर,
इनकी बस्ती से होकर गुजरता था सुबह-सुबह
पत्नी के लाख मना करने पर भी.
दिन भर वहीं पड़े संडराते रहते थे
काम-काज कुछ था नहीं इनका,
ज़रूर ही चोरी-चकारी करते होंगे.
उनका नाम नहीं जानता मैं
बंद होती फैक्टरियों में कब तक जी पाते वे?
अच्छा हुआ चल पड़े घर लौटने को
सिर पर कोई स्नेह भरा हाथ तो होगा … होता –
सिर पर कोई स्नेह भरा हाथ तो होता
खुल पाते अगर घर के दरवाज़े.
सहर के दरवाज़े.
शहर के दरवाज़े, पूरा शहर ही
यों बंद था जैसे आँख मूँद ले कोई.
कुछ थे जो अब भी डटे हुए थे
शहर के दरवाज़ों के पीछे छिपते फिर रहे थे,
अक्षर से पहले सीखते थे उनके बच्चे छिपना,
आँखों से, और डंडों से, पुलिस के
वही डंडे वाले जब आए बचाने
तो और दुबक गए बच्चे.
तूफ़ान से पहले उठाकर बिठा दिया उन्हें
ख़ाली स्कूलों में.
और कुछ नहीं तो इस स्कूल ने
छिपने का नया ठिकाना दिया
वह भी फ़ीस लिए बिना!
टपकती छत के नीचे बारिश को कोसते कई दिन बिताए थे
स्कूल की छत ने सिखाया बारिश में भीगने का मज़ा.
जगा
बारिश रुक गई थी
आँख सूज गई थी
काली भी थी शायद.
सड़क के उस ओर
पानी भर गया था जगह जगह,
मटमैला पानी.
पानी में कूदने वाले
कीचड़ में पाँव सान मेरे पन्नों पर चलने वाले
सारे नन्हे आवारा गुम थे कहीं.
काँप रहा था बुखार से,
फटे होंठ नमकीन थे,
सात कदम दूर माँ खड़ी थीं,
उनकी ओर बढ़ा
पर फिर भी उतनी ही दूर.
होंठ अब भी नमकीन थे
फटी त्वचा दाँतों में आ नहीं रही थी.
कुछ कह रही थीं वे मुझसे
याद दिला रही थीं
उस बालक की जो रो रहा था, माँ के पास बैठा
उसकी रोटियों में गरमाहट भरने वाले हाथ
आज ठंडे थे.
– कुमार लव