बोली कविता – भाषा का आंचलिक रूप
मेरी प्यारी ‘बोली’,
इतना ज्यादा क्यों,
बोली,
तू तो है,भोली- भाली,
जीवन की संकीर्ण गलियों की,
तुमसे नहीं होगी रखवाली।
तू पागल- सी,दीवानी -मस्तानी,
अलबेली।
बोली,
तू तो है,भोली- भाली,
जीवन की संकीर्ण गलियों की,
तुमसे नहीं होगी रखवाली।
तू पागल- सी,दीवानी -मस्तानी,
अलबेली।
बोली कविता |
मेरी प्यारी ‘बोली’,
कभी मूक,कभी चूक,
होती रहती तुमसे,
उलझनें मतवाली।
मेरी प्यारी ‘बोली’,
घर,घर में समझी और
समझाने वाली।
इतना ज्यादा क्यों,
मुख खोली।
नाराज़ हो गए सब,
अपने भी,पराये भी,
तू तो है,बड़ी अकड़,
दिलवाली।
ना समझे,ना सुने,
अपनी ही अपनी,
बोली में तू बोले,
ख्याल नहीं किसी का,
तू तो है बड़ी नाखराली।
मेरी प्यारी ‘बोली’,
भेद सारा पल भर में,
खोली।
लगती कितनी मीठी,प्यारी,
बालक की तुतलाती ‘बोली’,
बड़ी हुई,तू अब,करती बातें,
निराली।
मेरी प्यारी ‘बोली’,
इतना कम क्यों बोली,
तू तो है,गजब की गोली।
क्यों करती हो,आंखमिचोली,
तू तो सब की है……….
सभ्य, असभ्य क्या,
छोटे और बड़े क्या……….
– डॉ. अनिल मीना(व्याख्याता-हिन्दी)
मोबाईल नम्बर-7891164635
राजकीय उच्च माध्यमिक विध्यालय,
कालाकोट (छोटी सादड़ी)प्रतापगढ़ , राजस्थान