भागी हुई लड़की | हिंदी कहानी

भागी हुई लड़की

“भैया! कुछ कम नहीं होगा?”
“नहीं दीदी! यहाँ का यही रेट है”
“फिर भी भैया, कुछ तो कम कर सकते हो”
“दीदी आप एडवांस भी नहीं दे रही है और आपको सिंगल रूम भी मिल रहा है… सिंगल रूम का रेट इतना ही होता है।”
“और डबल रूम का रेट क्या है?” यह सवाल वह पहले भी पूछ चुकी थी।
“आपको बताया न डबल रूम खाली नहीं है…”
यह सुनते ही फिर से उसका सिर नीचे झुक गया। वह अपने पीठ पर टंगी बैग की पट्टी को नाखुनों से खुरेदने लगी। उस खुरचन की दबी आवाज़ वह तो नहीं सुन पा रही थी मगर उस शांत और स्थिर रिसिप्शन रूम में बैठा युवक भलीभांति सुन सकता था। जितने रुपये युवक पीजी के सिंगल रूम के लिए मांग रहा था उससे थोड़े ही ज़्यादा पैसे लेकर वह गुड़गाँव आयी थी। अपना पूरा जेब अभी ही खाली कर देना उसे सही नहीं लग रहा था। 
वह रिसिप्शन काउंटर से वापस बाहर के दरवाज़े के पास आ जाती है। सुबह कब दुपहर में बदल चुकी थी उसे आभास ही नहीं हुई। जैसे अभी सुबह थी और फिर मुड़ कर देखा तो दुपहर हो गयी। बाहर का चीखता प्रकाश किसी भी तरीके से उसे अपनी तरफ़ नहीं बुला रहा था, उल्टा एक छत की तलाश की ओर प्रेरित कर रहा था। मानो कह रहा हो, यहाँ खुले में दिन बिता पाना असंभव है, जाओ अपने लिए एक कोठरी ढूँढो। वह अपनी हथेली देखने लगती है। सूखी गर्मी में हथेली के मुलायम चमड़े सफ़ेद होकर उखड़ने को है। उसके नाख़ुन पर लगी लाल पेंट, जो पिछले रविवार को उसके पिताजी ने बहुत प्यार से लगाए थे, अब वह भी लगभग मिट चुकी है; लाल पेंट के कुछ एक छीटे इधर उधर नाख़ुन पर बस चिपके पड़े है अपने इतिहास को ज़ाहिर किए हुए। उसके बालों में लगी नारियल की तेल अब पूरी की पूरी उन काले बालों में ही सूख गयी है। चेहरे पर पहले का घिसा क्रीम पसीने में बह चुका है। उसके गले के ऊपरी सतह पर पसीने के कुछ बुलबुले अभी भी उस क्रीम की सफ़ेदी लिए बैठे है। उस ख़ुशबू की निशानी भी अब उन कपड़ों में नहीं है जिसे वह अभी पहनी हुई है। लेकिन वह तेज जो उसके चेहरे पर थी वह अभी भी बरकरार है। वह निडरता जो उसे परिभाषित करती है वह अभी भी बरकरार है। वह दृढ़ता जिसे वह अपने संग लेकर चली थी वह अभी भी मौजूद है। उसे न धूप पिघला पाया है और न ही उमस बेचैन कर पायी है। इन सूखी हवाओं का उन पर ज़रा सा भी असर नहीं हुआ है। 
एक हौसला भरा गहरा गर्म साँस लेकर वह वापस उस युवक के पास आई।
“भैया! कुछ नहीं हो सकता क्या? अभी बता दीजिये नहीं तो मैं कहीं और ढूँढने जाऊँगी” सख्ती के साथ वह बोली। 
“दीदी, मुश्किल होगा” युवक ने कहा। 
वह युवक भी उसे बहुत देर से समझा रहा था। वह भी असमंजस में फसा हुआ था। कम पैसे में किसी को कमरा दे देने का निर्णय लेना उसके ऊपर नहीं है। पैसों से जुड़े मसलों पर निर्णय लेने का काम पीजी के मालीक का है। वह भी असहाय है, चाहकर भी मदद नहीं कर सकता और ख़ासकर एक ऐसे इंसान को जिससे वह पहली बार मिल रहा है।
वह थोड़ी देर और वहीं खड़ी रही। उस युवक को एक टक भरी आँखों से देखती रही। उसकी नज़रें युवक के हृदय को हर पल चीरे जा रही थी। मगर उस कठोर दिल युवक पर उसका कोई प्रत्यक्ष असर नहीं दिख रहा था। थोड़ी देर बाद अपने बैग का फीता कसकर वह वापस मुड़ गयी। 
“दीदी रुकिए…” अभी वह देहरी तक गयी ही थी कि युवक ने उसे रोक लिया। वह वहीं रुक गयी।
“देखिये मैं आपका रेंट कम नहीं कर सकता लेकिन एक काम हो सकता है…” युवक ने तसल्ली देते हुए कहा “…ऐसा कीजिये, आप अभी आधे पैसे ही दीजिये, बाकी के पैसे महीने के अंत में दे दीजिएगा…” 
वह युवक भी एक इंसान ही था जिससे एक मायूस चेहरा देखा नहीं गया। वह शायद उसके सामने खड़ी त्रासदी को समझ सकता था। 
वह वापस रिसिप्शन पर आ गयी। 
“थैंक यू भैया!” उसने मुस्कुराकर कहा। 
उसके चेहरे पर छायी उदासी की रेखाएँ जो उसके मुड़ने के बाद बनी थी अब वो उसी के गालों में कहीं गायब हो चुकी है। उनकी जगह एक खींची-खींची साफ सुथरी मुस्कुराहट ने ले ली है। गालों का रंग भी लाल से गुलाबी हो चुका है। 
“मालिक को समझाना थोड़ा मुश्किल होगा…” युवक ने चिंतित स्वर में कहा, “लेकिन आप चिंता मत कीजिये मैं किसी तरीके से उनको मना लूँगा। आप अभी आधे पैसे ही दीजिये… और हाँ, आपको एक आइड जमा करानी होगी, जब आप एडवांस दे देंगी तो वो आइड आपको वापस मिल जाएगी”
“ओके भैया!” 
उसकी ख़ुशी अब उसके पूरे शरीर में दिख रही है। वह ठिठका सिकुड़ा शरीर अब मचलने लगा है। उसमें एक नयी ऊर्जा आ चुकी है जो बीते हुए अभी तक के सभी कष्टों को अपने में कहीं घुला रही है। एक नयी उमंग उन आँखों में आ चुकी है जो कुछ देर पहले थके हुए से हो गए थे। उसके भीतर एक आवाज़ गूंजने लगी है, एक आवाज़ जो कह रही है कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा, यह दौर भी सहा जा सकता है।
“यहाँ पर साइन कर दीजिये” युवक ने एक बड़े रजिस्टर के किसी ख़ाने पर इशारा करते हुए कहा।पीजी का कमरा बिलकुल छोटा सा है। दस कदम लंबा होगा और आठ कदम चौड़ा। कमरे की आधे से भी ज़्यादा जगह पलंग ने खा रखी है। कमरे के एक कोने में लोहे की सात फूट ऊँची धूल से सनी अलमारी है जिसके किनारे पर जंग की पपड़ी झूल रही है। दूसरे कोने में प्लाई का पुराना सा स्टडि टेबल है जिसके सामने प्लास्टिक की नीली कुर्सी रखी हुई है। अभी उस टेबल पर गरिमा का बैग उल्टा पड़ा है। बैग की ज़िप खुली है और कुछ सामान इधर उधर बेतरतीब टेबल पर बिखरे हुए है। बिस्तर पर बिछी चादर एक तरफ़ फेंकी हुई है और फोम के मुलायम गद्दे पर गरिमा छाती के बल लेटकर सोयी हुई है। एक ऐसी नींद में गिरफ़्त जो बस शारीरिक परिश्रम करने वाले मज़दूरों को ही आती है। राँची से दिल्ली तक की रेल यात्रा और फिर दिल्ली से गुड़गाँव तक मेट्रो में खड़े होकर आने में गरिमा ने भी काफ़ी परिश्रम कर ली थी। उसके बैग, जिनमें बस कपड़े ठूसे हुए थे, वो तो उतने भारी नहीं थे मगर कंधों पर जो बोझ लेकर वह घर से भागी थी वह काफ़ी था किसी पहलवान को भी घुटनों के बल गिराने में।
दरवाज़े की अनवरत खटखटाहट के कारण गरिमा की नींद अचानक से टूट जाती है। एक पल के लिए उसे लगा वह अपने राँची के घर में सो रही है। नींद के अँधियारे और बिस्तर के नर्मी के आराम में उसे लगा अभी भी पुरानी जीवन की एक रात बीत रही है। लेकिन जैसे ही काँच के खिड़की पर नज़र पड़ी और लकड़ी का कोई पल्ला नहीं दिखा उसे मालूम हो गया वह राँची में नहीं है। नए जीवन की एक नयी रात बस शुरू हुई है। वह तुरंत उठ कर बैठ जाती है। 
दरवाज़े पर फिर से खटखटाहट होती है। इस बार थोड़ी तेज़। 
“कौन है?” गरिमा ने धीमे से पूछा।
“मैं सुरेश!” एक दबी आवाज़ उसे सुनायी दी।
गरिमा को कुछ पल लगे यह हिसाब लगाने में कि सुरेश कौन है। फिर उसे याद आया सुरेश वही है जिसके दरियादिली के कारण ही वह अभी एक छत के नीचे बिस्तर पर सो रही है।
“हाँ भैया! बताइये” गरिमा थोड़ी तेज़ मगर आत्मीय आवाज़ में बोली। भरे गले से पूरे पूरे शब्द नहीं निकल पाये।
“दीदी, दस मिनट में मेस बंद हो जाएगा…” 
गरिमा चुप रही। शायद कुछ गणना कर रही हो या फिर शायद अभी भी नींद के दहलीज़ पर खड़ी उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। 
“आपके लिए खाना भिजवा दूँ?” जवाब न मिलने पर सुरेश ने फिर से पूछा। 
बातें अभी भी दरवाज़ें के आड़ में हो रही है।
“नहीं रहने दीजिये भैया… मैं नहीं खाऊँगी” सीधे स्वर में गरिमा ने कहा।
“ठीक है। नाश्ता सात बजे सुबह से मिलेगा” बोलकर सुरेश वहाँ से चला गया बिना किसी जवाब का इंतज़ार किये।
गरिमा वापस बिस्तर पर पसर गयी। उसे खाने की भूख नहीं थी, उसे बस नींद चाहिए थी। ढेर सारी नींद जिससे उठकर उसके शरीर और मन दोनों को हौसला मिले। इतना हौसला कि आने वाले दस दिन कट जाये। दस दिन बाद जब उसकी सबसे पुरानी और सबसे नज़दीकि दोस्त प्रिया गुड़गाँव वापस आ जाएगी तब कोई तो होगा अपना करीबी जो उसके हित में सोचेगा। तब शायद दिन काटने आसान हो जाएंगे। गनीमत है कि प्रिया ने इस पीजी का पता दे दिया था नहीं तो एक नए शहर में रहने का आसरा ढूँढना इतना आसान नहीं होता। होटल में रुकने के पैसे वह अपने साथ लेकर आयी थी मगर वो पैसे इतने भी नहीं थे कि महिना निकाल दिया जाये। ये पैसे उसने पिछले तीन सालों से बच्चों को कम्प्युटर की ट्यूशन दे कर एकत्रित किये थे। अब उसके वो पैसे उसके सही काम आएंगे, ऐसा वह सोचती है। 
खिड़की की ओर मुड़ी उसकी नज़रें काँच से आ रही अँधियारे को ताकते ताकते अँधियारे में ही डूब जाती है। उसका शरीर फिर से उस नींद में समर्पित हो जाती है जो सब कुछ ठीक कर देगी।
भाग जाने का निर्णय कोई अकस्मात निर्णय नहीं होता है। घुट घुट कर बिताए दिनों में जब कोई और रास्ता नहीं मिलता तब एक यही रास्ता बचता है। ऐसा नहीं है कि भागने वाला बस एक विद्रोह के मक़सद से भागता है। कुछ लोग ऐसे होते है जो भागते है कुछ साबित करने के लिए, कुछ मनवा लेने के लिए और फिर वापस लौट आते है। लेकिन ऐसे भगौड़ों की तादाद भी कम है और उनका मकसद भी बहुत छिछला।
भागने वाला पहले पहले समझाने की बहुत कोशिश करता है। उसे पूरा भरोसा होता है कि उसके तरक्कीपसंद घरवाले ज़रूर मान जाएंगे। वही लोग जो ख़ुद को नवीन ख़्याल के बतलाते है, उसे लगता है वो समझ जाएंगे। वही जिनमें स्वीकृति कूट कूट कर भरी हुई है ऐसा बाहर से देखकर जान पड़ता है, उसे लगता है वो मान जाएंगे। कितनी शामें, कितनी सुबहें और कितनी दुपहरें और रातें बीतती है जब एक भागने वाला अलग अलग तर्क और तरीकों से अपने मन की बात कहता है लेकिन जब वह बातें एक मूर्ति को कही बातों सी लगने लगती है तब जाकर कहीं हृदय में भाग जाने का निर्णय पनपने लगता है। तब भी कोई एक दम से नहीं भागता। और ख़ासकर गरिमा जैसी लड़की जो अपने परिवार से बहुत लगाव रखती है। जो लगाव का धागा है वह एक दम से नहीं टूट जाता। धीरे धीरे घिसता रहता है। दिन पर दिन उस धागे की तनाव कमज़ोर होते रहती है। और जब टूटती है तो किसी को उसकी भनक भी नहीं लगती। क्यूंकी कोई उस प्रेम के धागे की रखवाली नहीं कर रहा होता है। अगर असलियत में कोई रखवाला होता तो शायद ऐसी नौबत ही नहीं आती। 
धागे की अहमियत बस बांधे रखने मात्र में नहीं है। धागे की अहमियत उसके लचीलेपन में है। उसकी अहमियत इस तथ्य में है कि वह दो सिरे को जोड़ रहा है। एक ऐसा जोड़ जिसमें दूरियाँ नज़दीकियाँ बढ़ते घटते रहती है लेकिन धागा हमेशा सिरे से जुड़ा रहता है। गरिमा अपने घरवालों से प्रेम तो करती है लेकिन वह उस प्रेम में अंधी नहीं है। बलिदान देने जैसे पौराणिक सोच का वह तिरस्कार करती है। वह जानती है जीवन के उस मर्म को जिसके अंतर्गत इस धरती के सभी वासी आते है जो इस इंसानी समाज के बनाए सारे नियमों के परे है। वहीं नियम जिसे मनुष्यों को छोडकर सारे जीव जन्तु अपनाए हुए है – अपना देखभाल खुद करते हुए जीवन जीना। 
भागी हुई लड़की | हिंदी कहानी

राँची का मौसम सबसे ख़ुशनुमा बरसात के मौसम में होता है। बादलों का दोशाला ओढ़े राँची का माहौल किसी हिल स्टेशन से कम नहीं होता। खिड़कियाँ खोल कर रखो तो पंखे की ज़रूरत भी नहीं महसूस होती, उल्टा एक चादर साथ लेकर सोना पड़ता है; क्या पता कब रात को चुपके से ठंड लगे और शरीर गरमाई ढूँढने में खुद को उठा दे। ऐसे ही जून की एक शाम गरिमा खिड़की के पतले चौखट पर बैठ कर बाहर गिरते झीनीदार बारिश को देख रही थी। उसकी माँ रसोई में पालक की पुड़ियाँ तल रही थी जिसकी ख़ुशबू हवा में तैरते, मँडराते हुए गरिमा को छूकर बारिश के कणों में डूबते जा रही थी। उसके पापा और बड़े भाई हॉल में बैठे है। वे टीवी पर लगातार चैनलों को बदल बदल कर अपने मन को टीवी पर आ रहे कार्यक्रम से मेल कराने की कोशिश कर रहे है। गरिमा का छोटा भाई अपने कमरे में बैठा अपनी किताबों में खोया हुआ है, कहानियों की किताबों में। उसके छोटे भाई को दिखाये हुए दुनिया से ज़्यादा लिखी हुई दुनिया पसंद आती है। और गरिमा को उसकी माँ की तरह ही, न लिखी हुई दुनिया पसंद आती है और न ही दिखाई हुई दुनिया; उन्हें तो बस जो दुनिया उनके आस पास फैली है उसे देखना ज़्यादा रुचिकर लगता है। इसलिए माँ किचन की खिड़की से बारिश को देख रही है और बेटी हॉल के खिड़की से। उन गिरते बूंदों को देख कर एक पुड़ियाँ तलने में खोयी हुई है तो दूसरी अपने मन के संसार में विचर रही है, कंधे पर एक चिंता लिए हुए। 

ग्राजुएशन करने के बाद उसने पढ़ाई ज़ारी रखने के बजाए रुकने का निर्णय लिया था जिसे उसके माता पिता दोनों बिना किसी विरोध के मान गए थे। उसे भी हैरानी हुई थी मगर पिछले हफ्ते ही उसे उनके मान जाने के पीछे छिपी मंसूबे की भनक लगी, जब उसकी शादी करा देने की बात उसने सुन ली थी। उसके पिता पिछले दो तीन हफ्तों से कुछ ज़्यादा ही समय अंजान लोगों के साथ फोन पर बात करने में बिता रहे थे और हर बार फोन पर सुनी बातों में गरिमा को उसके पढ़ाई, उसकी खूबियाँ और उसके उम्र से जुड़ी खबर सुनने को ज़रूर मिल जाती थी। शंका यकीन में तब बदल गयी जब दो रात पहले उसकी माँ देर रात कभी उसके सिराहने आकार बैठ गयी और उसके बालों को सहलाने लगी। गरिमा ने जब अपना सिर माँ के गोद में रखा तो माँ भी खुद को रोक नहीं पायी। बेटी के घर से चले जाने के वियोग और खुशी में थोड़े आँसू ज़रूर छलके लेकिन गरिमा का शक यकीन में बदल गया। जब उसने शादी नहीं करने की इक्षा अपनी माँ को बताई तो उसे वहीं चुप करा दिया गया। बात बस शादी की नहीं थी, बात थी उन सब चीजों से वंचित करा देने की जो उसने अपने बड़े भाई को करते देखा था, अपने दोस्तों को करते देखा था। नौकरी करना, अकेले रहना, अपने खर्चे खुद निकालना, वह सब कुछ करना जो शायद सभी मनुष्यों को करनी चाहिए। एक ऐसी जीवन-शैली जीना जिसमें अपने से जुड़े हर चीज़ की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर हो, किसी के मुह ताकने की ज़रूरत न पड़े। अपना मालिक स्वयं होना।
अभी वह यह सोच ही रही थी कि पापा को अपनी नामंजूरी कैसे बताई जाये, उसके पापा ने उसे अपने पास बुला लिया। वह खिड़की से उतरकर पापा के पास आ गयी और इतने में पालक की पुड़ियाँ भी मेज़ पर आ गयी। घर के सभी लोग एक ही जगह इकट्ठा हो गए। पालक की गर्म पुड़ियों की एक ही थाली में पाँच हाथ बारी बारी से आते और कुछ टुकड़े लेकर चले जाते। ऐसे ही कुछ मिनटों में पुड़ियाँ भी ख़त्म हो गयी। अब बस एक खाली थाली और कुछ ताकते, इंतज़ार करते नज़रे हॉल के मेज़ के आस पास टिकी हुई है। कुछ नयी बात बताने के लिए यह माहौल ठीक भी है और नहीं भी, एक फिसलती ढलान के जैसी, जो किसी भी तरफ़ बहुत ही तेज़ी से मुड़ सकती है। अगर बात सही साबित हुई तो वह बहुत सही हो जाएगी और अगर गलत साबित हुई तो बहुत गलत हो जाएगी। इसी कस्मकस में गरिमा फसी हुई है…  
“कलाई कैसी है तुम्हारी?” गरिमा के पापा ने तेल से सनी अंगुलियों को चाटते हुए पूछा। सुबह वह जल्दबाज़ी के चक्कर में सीढ़ियों पर जमी काई में फिसल गयी थी और हाथो के बल गिरने के कारण उसके कलाई में हल्की सी चोट लग गयी थी। इतनी हल्की चोट कि अभी तो वह दर्द में है लेकिन शायद सो कर उठे तब तक दर्द गुम हो जाये।
“अभी भी दर्द है पापा” गरिमा कलाई की दर्द को नए सिरे से अनुभव करते हुए बोली। इतने देर से पुड़ियाँ खाते वक़्त वो दर्द कहीं गायब थी और सवाल पूछते ही वापस प्रकट हो गयी। उसने कलाई को घूमा कर फिर से दर्द को महसूस किया। टीस की लहर उसके कलाई से शुरू होकर समूचे हाथ में फैल गयी। शायद यह दर्द सुबह तक भी ठीक न हो, उसने सोचा।
“कुछ लगाया उस पर?” वहीं के सोफ़े पर बैठे गरिमा के बड़े भाई ने पूछा।
“मलहम लगाया है…”
“कब लगाया था?” उसके पापा ने चिंता दिखाते हुए पूछा।
“दोपहर को”
“फिर से लगा लो” भैया ने कहा।
“सोते वक़्त लगा लूँगी”
“मलहम लगाकर एक कपड़ा भी लपेट लेना” बड़े भाई ने सुझाव देते हुए कहा।
“दीदी अब नेल पोलिश कैसे लगाओगी?” गरिमा के छोटे भाई ने मज़ाक में पूछा।
“कैसे लगाऊँगी का क्या मतलब है, दूसरे हाथ से लगा लूँगी” गरिमा ने फौरन जवाब दिया।
“एक हाथ में ही न लगा पाओगी। दूसरे हाथ में कैसे लगाओगी?” छोटा भाई हाज़िरजवाबी किस्म का था।
“फिर एक ही हाथ में लगाऊँगी, दूसरी में नहीं लगाऊँगी!” गरिमा खीज कर बोली।
“कोई नहीं, मैं लगा दूंगा” गरिमा के पापा ने बीच में टोककर कहा। 
तीनों भाई बहन आश्चर्य भाव में अपने पापा को देखने लगे जैसे कि उन्हें आशा ही नहीं थी कि उनके पापा कभी नेल पेंट लगा सकते है यानि एक जनाना हरकत में रुचि रख सकते है। 
“अरे! ये बहोत अच्छा लगाते है” गरिमा की मम्मी ने थोडा शर्माकर कहा। 
“ये तो एक दम नयी बात पता चली है” गरिमा के बड़े भाई ने चुटकी लेकर कहा।
“बेटा इसका नेल पेंट लेकर आओ मैं हाथ धो कर आता हूँ…” गरिमा के पापा ने उसके छोटे भाई से कहा। वो भागकर गरिमा के कमरे में गया और तुरंत वापस आ गया। उसे पता होता है गरिमा की हर चीज़ें कहाँ रखी होती है। आधे से भी ज़्यादा समय वह गरिमा के ही कमरे में बिताता है। कहानियों में मिले भारी शब्दों के मतलब जानने के लिए गरिमा ही उसका शब्दकोश है।
गाढ़े हरे रंग की नेल पेंट अपने पापा को देकर गरिमा का छोटा भाई वहीं फर्श पर बैठ गया। एक उत्सुक सिनेमची की तरह आगे होने वाली घटना को देखने के लिए वह तैयार था।
“कौन से हाथ में चोट लगा है बेटा?” गरिमा के पापा ने पूछा। 
“दाहिना” 
“फिर बायाँ हाथ पहले लाओ”
गरिमा ने अपने बाएँ हाथ के अंगुलियों को फैला कर अपने पापा के सामने हवा में स्थिर करके रख दिया। गरिमा के पापा ने ब्रुश से नेल पेंट निकाला, फिर सलीके से बोतल के मुह पर उसे पोछा और फिर गरिमा के तर्जनी उंगली पर एक पेंटर की तरह बहुत ही हल्के दबाव से एक स्ट्रोक मारा। उस स्ट्रोक पर दो गर्म हवा की फूँक मारी और फिर बहुत प्यार से दो और स्ट्रोक से पूरे नाख़ुन को हरे रंग से रंग दिया। 
“ठीक से लगा क्या?” गरिमा के पापा ने पूछा।
“एक दम प्रो!” गरिमा के बड़े भाई ने उछलकर जवाब दिया। हॉल में मौजूद सबकी दातें दिख रही थी।
“तुम्हें बड़ा पता है इसके बारे में” गरिमा की माँ एक व्यंग भरी नज़रों से बड़े भाई को देखी। वह शर्माकर नीचे देखने लगा। 
“थोड़ा गाढ़ा हो गया है” गरिमा के मम्मी ने फिर सही सही रिवियू दिया। 
“हाँ” गरिमा ने भी हामी भरी। 
अपनी गलतियों को समझ कर इस बार उसके पापा ने एक पर्फेक्ट तरीके से दूसरी नाख़ुन पर रंग लगायी। इस बार रंग लगाने में थोड़ा ज़्यादा समय लगा।
“अब?” उसके पापा ने पूछा।
“ये वाला ठीक है” गरिमा ने उत्तर दिया।
गरिमा के पापा उसके बायें हाथ के नाखुनों पर धीमे धीमे रंग लगाते गए और धीरे-धीरे दर्शकगण अपने-अपने पिछले कामों में व्यस्त होते गए। मम्मी किचन में चली गयी, बड़े भाई टीवी में उलझ गए और छोटा भाई सबसे दूर अपने किताब की दुनिया में खो गया। उनके लिए चल रही नाटक अब रोचक नहीं रही थी। 
यह सही मौका है, गरिमा ने दाहिना हाथ देने से पहले सोचा। 
“पापा!” भर्राये हुए से स्वर में गरिमा ने पुकारा।
“कुछ गलत कर रहा हूँ क्या बेटा?” 
“नहीं” बोलकर गरिमा चुप हो गयी। 
उसके पापा एक नाख़ुन समाप्त कर दूसरी पर चले गए। टीवी की आवाज़ भी थोड़ी बढ़ गयी है, ऐसा गरिमा को लग रहा था। एक बाहरी शोर में वह और उसके पापा घिरे हुए है उसे ऐसा आभास हो रहा था। एक भीतरी शोर भी उफ़ान पर आ रही थी, इसकी भनक भी छुपी नहीं थी। 
“पापा!” अकबकाहट में वह थोड़ी तेज़ बोल पड़ी।
“हाँ बोलो बेटा” पापा सिर झुकाये नाखुनों में खोये रहे। बाहरी शोर अभी भी घेरा बनाए मौजूद है।
“पापा मैं शादी नहीं करना चाहती” गरिमा ने धीमे से ऐलान किया। 
और तभी अचानक से उसे आने वाले सन्नाटे की पहली भनक मिली। बाहर का घिरा शोर फट चुका था। किचन से आ रही बर्तनों की आवाज़ रुक गयी थी। बड़े भाई ने टीवी बंद कर दी थी और नज़रें फेर वह अब गरिमा को ही देख रहे थे। उसके पापा भी रंग लगाते लगाते रुक गए थे और सिर ऊपर कर अपने बेटी को लगातार देखने लगे थे। छोटे भाई की नज़र किताब पर ज़रूर थी मगर उसके कान खड़े हो गए थे। पल भर में खुशनुमा माहौल संजीदा हो चुका था।
“पापा मैं अभी शादी नहीं करना चाहती” एक लंबी चुप्पी के बाद गरिमा ने अपनी बात फिर से दुहराई। 
“शादी क्यूँ नहीं करनी है तुम्हें?” उसकी मम्मी चिल्लाते हुए किचन से बाहर आ गयी। 
मम्मी भी गरिमा के फिर से बोलने का ही इंतज़ार कर रही थी। और शायद बाकी के जन भी यही इंतज़ार कर रहे थे। इस आशंका में कि पहली बार कही हुई बात शायद कुछ और थी और सुनाई कुछ और पड़ी थी। मगर अब कोई शक नहीं था। सबके सामने स्पष्ट शब्दों में बात दुहराई जा चुकी थी। और उस दुहराई बात का असर यह हुआ कि अब तीन लोग गरिमा को ही देख रहे है या ये कहे कि उसे घूर रहे है, सब नख़रा छोड़ हथियार डालने की उम्मीद में। 
वहीं गरिमा के भीतर का उफ़ान आज शाम कोई और ही रंग ले रहा था।
“मम्मी मुझे अभी शादी नहीं करनी है” हल्की तेज़ आवाज़ में वह फिर से बोली।
“अभी क्यूँ नहीं करनी है?” इस बार उसके मम्मी ने अपना सवाल कड़क अंदाज़ में पूछा। वह अब गरिमा के बिलकुल करीब खड़ी हो चुकी थी। 
मेज के एक तरफ गरिमा और दूसरी तरफ उसके माता-पिता और उसके बड़े भैया।
“मम्मी मैं पहले नौकरी करना चाहती हूँ, फिर मैं शादी करूंगी” गरिमा आख़िरी के शब्द बोलते बोलते रुक गयी थी। शायद इसलिए कि उसके भीतर शादी को लेकर अभी तक कोई कड़ा फैसला नहीं बना था।
“नौकरी करना है तो शादी के बाद कर लेना” गरिमा के बड़े भाई ने बड़े होने के अंदाज़ में कहा। मम्मी सिर हिलाते हुए बड़े पुत्र के थोड़े करीब खिसक आयी।
“नहीं भैया, मुझे शादी से पहले नौकरी करनी है, आपकी तरह…” 
बात अब उनसे जुड़ चुकी थी। गरिमा के बड़े भैया चुप हो गए, उनके पास बोलने को कुछ बचा नहीं था। उनके लब थिर हो गए जैसे किसी ने बोलते बोलते उनकी ज़बान काट ली हो। वह बिलकुल शून्य हो गए थे। 
“ये देखिये क्या नया भूत सवार हो गया है इसके ऊपर” गरिमा की माँ ने अपने पति को संबोधित करते हुए कहा। 
गरिमा के पापा चुपचाप सोफ़े पर गरिमा के बिलकुल सामने बैठे थे, खिड़की के बाहर रुकी बारिश में कुछ देख रहे थे या फिर देखने का नाटक कर रहे थे। 
“पापा क्या मैं नौकरी नहीं कर सकती, भैया की तरह” गरिमा ने सीधे अपने पिता से यह सवाल किया। 
“बेटा उसकी बात अलग है…” अपनी चुप्पी तोड़ गरिमा के पापा ने थोड़े सौम्य स्वर में उत्तर दिया। यह उत्तर पूरे चर्चा को समाप्त करने के मकसद से कहा गया था; बिना किसी विश्लेषण के बिना किसी सफ़ाई के क्यूँ अलग है, एक राजा के फ़रमान की तरह।
“कैसे पापा?” तभी गरिमा के छोटे भाई ने लपक कर यह सवाल पूछ लिया। वह भी पूरी घटना सुन रहा था। वह भी खुलती बातों को बारीकी से सुन रहा था।
“तुम चुप रहो और अपने कमरे में जाओ” गरिमा की माँ ने उसे डाट कर वहाँ से जाने को कह दिया।
राजा के फ़रमान की क्या हैसियत होती है उसका लड़कपन अभी तक यह समझ नहीं पाया था। उसे वहाँ से भगा दिया जा रहा है, शायद यह बात उसकी आँखें खोले। वह चुपचाप हाथों में किताब लिए भीतर के कमरे में चला गया। मगर उसने दरवाज़ा खुला रखा। उसका उत्सुक मन यह जानना चाहता था कि उसकी दीदी का नौकरी करना उसके भईया के नौकरी करने से अलग क्यूँ है? 
गरिमा को भी यही जानना था। 
“कैसे अलग है पापा?” गरिमा ने हिम्मत करके पूछा। 
इतने में उसके पापा उठ खड़े हुए, एक मीनार की तरह गरिमा को अपने ऊंचाई से दबाने के प्रयत्न में। यह एक बहुत ही पुरानी तरकीब है। पहाड़ जैसा रूप धारण कर लो तो सामने वाला ख़ुद-ब-ख़ुद हार मान लेता है। और कोई पहाड़ से क्यूँ ही टकराना चाहेगा?
गरिमा बैठी रही। अंदर के हिम्मत को पहाड़ के सामने डटाए वह अपने पापा के बोलने का इंतज़ार करने लगी। उसकी मम्मी और बड़े भैया भी चुप थे शायद वह भी अपने मुखिया के उत्तर का इंतज़ार कर रहे थे।
मुखिया बोले “अलग ऐसे है कि वह लड़का है, नौकरी करना उसका काम है। घर चलाना उसका काम है। और तुम्हारा काम घर पर रहना है…” 
गरिमा के पापा की आवाज़ अब सौम्य नहीं रही थी। पहाड़ की आकृति से अब पहाड़ जैसे ही कठोर स्वर निकल रहे थे, वह भी गूंज के साथ। यह भी एक पुरानी तरकीब है। इतना शोर कर दो कि सामने वाला विरोध में कुछ बोल ही ना पाये और दुबक कर सारी बातें मान ले, भले ही उसका चित्त उन बातों का तिरस्कार क्यूँ न करता हो। 
“परिवार ऐसे ही चलता है बेटी और हमारे समाज की यही पद्धति है…” गरिमा की माँ समझाते हुए कही, एक गुड कॉप बैड कॉप के रणनीति को अपनाते हुए “…मर्द बाहर जाकर कमाते है और औरतें घर पर रहती है। ऐसा ही सदियों से चला आ रहा है…”
“मम्मी मुझे घर पर नहीं रहना है। मुझे नौकरी करनी है और अपना पैसा ख़ुद कमाना है। किसी पर निर्भर नहीं रहना है मुझे, आपकी तरह” गरिमा खीज कर बोली। 
गरिमा की माँ गुस्से के देहरी पर ही खड़ी थी, वह सौम्य स्वर बस एक दिखावट था, मुखौटे के जैसा। और गरिमा का कहा पिछला वाक्य काफी था उस मुखौटे को ध्वस्त करने के लिए, क्यूंकी यह वाक्य सीधा उसके माँ के स्वाभिमान को ठेस पहुंचा रहा था। यह वाक्य सीधे सीधे उन्हें तुक्ष करार ठहरा रहा था।
वह गरिमा की ओर लपकी, पूरी तेज़ी में। अभी वह गरिमा पर हावी होती ही की उसके बड़े भाई ने रोक लिया। 
“मम्मी क्या कर रही हैं आप?” गरिमा के बड़े भाई ने उन्हें अपनी ओर खींचते हुए कहा।
“कुछ भी बकवास कर रही है यह लड़की। ये सब पढ़ाने लिखाने का ही नतीजा है” गरिमा की माँ झुँझला कर बोली और सोफ़े पर बैठ गयी। गरिमा का बड़ा भाई अपने माँ के करीब ही खड़ा रहा। वह भी यह दुविधा सुलझा नहीं पा रहा था। गरिमा की बातें उसे सही तो लग रही थी मगर माता-पिता के खिलाफ जाकर वह अपने मन में उमड़े विचार को स्वीकार नहीं करना चाहता था। 
“तो आप क्या चाहती है माँ, मैं जीवन भर के लिए किसी की पत्नी बनकर घर पर रहूँ। बच्चे पैदा करूँ और उनकी देखभाल करूँ। सुबह से लेकर रात तक एक ही घर में पूरा जीवन बिता दूँ, क्या आप यही चाहती हैं?” गरिमा यह बोलकर उठी ही थी कि फिर वापस बैठ गयी। 
“हाँ! तो क्या दिक्कत है इसमें? मैं भी तो कर रही हूँ न। सभी औरतें ऐसे ही रहती है, रहती हैं कि नहीं?” 
“मम्मी आप यह सब कर रहीं है क्यूंकी आप यह चाहती हैं। दिक्कत यही है कि मैं नहीं चाहती हूँ यह सब। और फिलहाल के लिए तो नहीं ही चाहती। आगे का मुझे नहीं पता मगर फिलहाल के लिए मैं शादी वादी नहीं करना चाहती…” अपना आख़िरी फैसला सुनाते हुए गरिमा ने कहा। 
उस छोटे से क्षण में गरिमा को लगा था कि महज़ फैसला सुना देने से काम बन जाएगा। मगर ऐसे फैसले लाखों लड़कियों ने पहले भी ज़ाहिर किए है जिनका परिणाम सही नहीं निकला है। ऐसे फैसले विरोध के नज़रिये से देखे जाते है, किसी ने अपने मन की बात कही है इस नज़रिये से नहीं देखे जाते। ऐसे फैसलों का स्वागत नहीं होता, ऐसे फैसले तिरस्कार किये जाते है। 
“ये बढ़िया है! नौकरी करो और फिर जब उम्र निकल जाएगी तो कोई शादी करने वाला भी नहीं मिलेगा। रहना कुंवारी बैठी। हम तो नहीं रखेंगे। रहना अपने किसी दोस्त के पास ही” गरिमा की माँ ने टौंट मारते हुए कहा।
“बेटा, सही तो कह रही है तुम्हारी माँ…” गरिमा के पापा ने अब समझाते हुए कहा, फिर से गुड कॉप बैड कॉप की रणनीति “…और कोई अभी थोड़े न कर रहे है तुम्हारी शादी। अभी तो बस बात चल रही है। शादी के लिए लड़का ही नहीं मिला है तो तारीख़ कहाँ से पक्की होगी। अच्छा लड़का ढूंढने में तो साल-दो लग जाता है, और अभी से ही ढूँढेंगे तभी न अच्छा रहेगा” 
“पापा आप नहीं समझ रहे है! बात साल दो साल की नहीं है। बात है वह सब करने की जिसे आप मुझे करने से रोक रहे है”
“नौकरी करना न?” 
“बस नौकरी करना नहीं पापा…” गरिमा झुँझलाकर चुप हो गयी। 
“नौकरी तुम शादी के बाद कर लेना न बेटा। और नौकरी करने की तब ज़रूरत ही क्यूँ होगी? जब एक काम कर रहा है तो दूसरे को काम करने की क्या ज़रूरत है, तुम्ही बताओ?” गरिमा के पापा परिवार ज्ञान बांटने लगे। 
“पापा, थोड़ा काम करना तो सभी को अच्छा लगता है। ऐसे खाली बैठना बहुत नीरस सा होता है” गरिमा के बड़े भाई ने कुछ आम शब्दों में विशेष मतलब की बात सबके सामेन रखी। उस शून्यता से कुछ गूढ मतलब की बात अब जाकर निकली। 
गरिमा के माता और पिता दोनों यह सुनकर अचंभित हो गए। बात की मूल्यता को समझने के बजाय उन्हें उनके पुत्र की कही बात एक आघात के जैसा लगा। खुद के बड़े लड़के से ऐसी बात सुन लेने की अपेक्षा शायद वो नहीं रखते थे। वह तो अपने बड़े लड़के को दाहिने हाथ की लाठी समझते थे और लाठी जिधर घुमाव उधर घूमती है, कभी खुद पर नहीं बरसती।  
“तुम हटो यहाँ से…” गरिमा के माँ ने बड़े भाई को अपने पास से दूर कर दिया। 
“अब तुम भी इसकी तरफ़दारी कर रहे हो” गरिमा के पापा कुंठित होकर बोले।
“ये तरफ़दारी कहाँ से हुआ पापा? बस एक बात कह रहा हूँ। जो मैंने देखी है वही कह रहा हूँ” बड़े भाई चिढ़ कर बोले।
“तो तुमने हमसे ज़्यादा दुनिया देखा है?” 
“नहीं पापा, आपसे ज़्यादा तो नहीं देखा है मगर आप के दुनिया से एक अलग दुनिया मैंने देखी है” 
“वाह! क्या दुनिया देखी है तुमने!” गरिमा के पापा सूखी ताली बजाते हुए व्यंग मुद्रा में बोले “ऐसी दुनिया देखी है जिसमें बड़ों की बातों को काटा जाता है, उनकी अवहेलना की जाती है, उनके नियत पर शक किया जाता है, परिवार के हित में लिए गए उनके निर्णयों को अस्वीकार किया जाता है…” 
“पापा आपको नहीं लगता आप अपना निर्णय दीदी के ऊपर थोप रहे है…” गरिमा का छोटा भाई कमरे की देहरी पर खड़ा खड़ा बोला।
“तुम्हें अंदर रहने को कहा है न? जाओ अंदर…” गरिमा की माँ ने छोटे भाई को फिर से डांटकर भगा दिया “…कहानी पढ़-पढ़ कर सब बच्चों का दिमाग ख़राब हो गया है।” 
छोटा भाई थोड़ा पीछे ज़रूर हटा लेकिन वहीं खड़ा रहा। उसे यह दृश्य किसी कहानी के जैसी नहीं लग रही थी। इतने पास से खुद के ऊपर बीतती बातें कहानी कैसे लग सकती है! कहानी तो औरों की होती है। खुद का जीवन कहानी नहीं होता। खुद के मसले कहानी नहीं होते। वह कहानी नहीं देख रहा था, वह उस कड़वे सच को ताज़ा-ताज़ा अनुभव कर रहा था जिसे उसने शायद कभी कहीं सुना था या पढ़ा था।
“गरिमा तुम भी अंदर जाओ। अब इस पर और कोई बात नहीं होगी…” 
गरिमा के पापा ने फ़ाइनल बात कह दी थी। राजा ने अपना निर्णय ले लिया था। प्रजा को बस बात माननी है। और प्रजा नहीं मानेगी तो राजा के पास सौ तरकीबें है जिससे वह अपनी बात मनवा सकता है। क्यूंकी राजा हर चीज़ पर नियंत्रण रखता है। 
गरिमा जाने को उठती है और हताश हो कर फिर से सोफ़े पर बैठ जाती है। कुछ था उसके भीतर जो उसे अंदर जाने से रोक रहा था। कुछ अभी भी बचा था जो उसे वहीं बिठाये रखना चाहता था। शायद कोई अनुभूति कोई भावी दृश्य अभी भी बचे थे जो उसे वहीं बाँधे हुई थी। शायद अभी कुछ और भी सपने बिखरने को बचे थे। कुछ और भी आशाएँ अभी टूटने को पड़े थे… 
“पापा आप बैठ जाइए” गरिमा के बड़े भाई ने पानी देते हुए माफी से स्वर में कहा। पिता की नज़र बड़े पुत्र से मिली। पानी का गिलास हाथ मे लिए वह सोचने लगे कि ऐसा क्या हो गया कि उनका पुत्र ही उनका साथ नहीं दे रहा और अब तो छोटा पुत्र भी सवाल करने लगा है। यह सोच वह और भी दुखी हो गए। पिता के दुखी चेहरे को देख, बड़े पुत्र की नज़र नीचे हो गयी और वह एक ग्लानि के बड़े गुब्बारे में घिर गए। फिर खुद को संतुलित और मन को निश्चित कर वह किचन से दो गिलास पानी और लाये, एक अपनी माँ को दिया जो स्तब्ध सोफ़े पर टांगों को ऊपर कर बैठी है और दूसरी गिलास गरिमा के सामने मेज पर रख दिया।
गरिमा की नज़रें जब छत से हटकर सामने की ओर पड़ी तो उसने बड़े भाई को पानी का गिलास रखते देखा। बड़े भाई गरिमा से नज़रें नहीं मिला पाये। वह एक टक स्टील के गिलास पर बनी पानी की सीधी पतली रेखा को देखती रह गयी – पानी के जमे बूंद गिलास के मुंह से शुरू होती और काँच के मेज तक पहुंच जाती। गरिमा निर्विकार बैठी यह हलचल देखती रही, उसने गिलास को छुआ तक नहीं। वह सन्नाटा जिसकी भनक उसे थोड़ी देर पहले अनुभव हुई थी अब वह चीखती हुई उसके चारों ओर फैली गयी थी। उस सन्नाटे के शोर में उसका मन शून्य हो चला था।
वह मुड़कर अपने छोटे भाई की तरफ़ देखती है – दो विचलित मायूस आँखें उसे बांधे हुई थी। उस बिचारे को तो भनक भी नहीं होगी कि यहाँ क्या चल रहा है। उसने अपने माता-पिता को देखा – वह किले की तरह अडिग थे। गरिमा को पता है उसके माता-पिता अब किले की दीवार से ही हो गए है जिसपर उसकी बातें एक तुक्ष तीर की तरह टकराएगी और निरर्थक हो कर नीचे गिरते जाएगी। अभी उसके मुख से कहा गया हरएक शब्द को बिना किसी सोच के ख़ारिज़ कर दिया जाएगा। वह अपने बड़े भाई को देखती है – एक असहाय आभा उनके मुखमण्डल के आलोक में है। वह वहीं अपने माता-पिता के बीच चुप चाप खड़े है। उनकी आकृति उन्हीं दोनों में कहीं घुल मिल सी गयी है। उनके चेहरे में वही भाव तैर रहें है जो भाव उसके माता और पिता के चेहरे पर छाई हुई है। शायद यही वह दृश्य था जो देखना रह गया था। यही एक आशा की किरण थी जिसे बुझता देख लेने की अनुभूति शेष रह गयी थी। और तभी उस छोटे से क्षण में गरिमा को उस अकेलेपन की अनुभूति हुई जो शायद अभिमन्यु को युद्ध के मैदान में हुई होगी – चक्रव्यूह के उस पार हार है और इस पार मृत्यु। लेकिन वो योद्धाओं का युग था जहाँ मृत्यु को वीरता का प्रतीक माना जाता था। यह जीवन का युद्ध है। यहाँ मृत्यु कायरता का प्रमाण है और चक्रव्यूह के उस पार जाना एक जीत। कितनी अजीब बात है न जो हॉर्मोन्स(अड्रेनलिन) हमे लड़ने के लिए उतारू बनाते है, वही हॉर्मोन्स हमे भाग जाने के लिए भी प्रेरित करते है। भाग जाना और लड़ते रहना दोनों का स्रोत एक ही है। तो फिर जो ना हारा वो वीर हुआ, चाहे भागे चाहे लड़े। जो जीवित रहा वो वीर हुआ, चाहे राजा या हो प्रजा। 
जब कोई घर छोड़कर भागता है तो क्या वह कभी वापस लौट आने के बारे में भी सोचता है? अगर सोचता भी है तो कितने अवधि के बाद लौट आने को सोचता है? तुरंत या महीनों बाद या सालों बाद या फिर तब जब वही परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाये जो एक समय स्वीकार करने लायक नहीं थी या फिर तब जब वो शर्तें वापस ले लिए जाये जो उसके ऊपर थोपे जा रहे थे या फिर तब जब भाग कर खड़ा किया हुआ संसार निर्वाह करने लायक नहीं रह जाता है। आख़िरी की बात गरिमा पर लागू नहीं होती थी। एक हिम्मत ही तो थी उसके भीतर जो अभी तक उसे खड़ा किए हुई थी। और उसकी यह हिम्मत कहीं बाहर से खरीदी हुई सामग्री नहीं थी कि एक दिन ख़त्म हो जाये। उस हिम्मत का स्रोत ठीक उस हॉर्मोन्स के जैसा भीतर कहीं था, जो हर पल बनते रहता था। जो हिम्मत रखते है, जिन्हें खुद पर भरोसा होता है उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों से डर नहीं लगता। खुद से खड़ा किया हुआ जीवन जैसा भी हो वह उसी में जीते है। हिम्मत रखने वाले लोग समझौते नहीं करते और शायद यही कारण था कि गुड़गाँव आने के चार दिन बाद भी गरिमा के भीतर घर वापस लौट जाने का एक बार भी ख़्याल नहीं आया। उसे घर वालों की याद आयी, घर की याद आयी क्यूंकी बीतें दिनों का याद आना स्वाभाविक है। लेकिन गरिमा ने खुद को उन यादों पर न्योछावर नहीं किया। यादें आयी और गयी। वह कमज़ोर नहीं पड़ी। गरिमा का मानना है कि हर चीज़ का एक समय होता है और इसलिए नोस्टाल्जिया का भी एक समय आएगा और वह समय अभी नहीं है। अभी बस वर्तमान में रहना है। एक नीव खड़ी करनी है जिसपर आने वाले दिन टीके होंगे। 
बीतें दिनों के यादों को पीछे सरकाये गरिमा एक नए छत के नीचे कुछ नए भावनाओं के साथ एक नए बिस्तर पर आराम फ़र्मा रही है – गरिमा प्रिया के बिस्तर पर लेटी हुई है। वह छत पर लगी धूल से सनी रुके हुए पंखें के तीन बाजुओं को देख रही है। पंखें रुके हुए है क्यूंकी पंखों का काम जून के इस मौसम में एसी को करना पड़ता है। विंडो एसी की ठंडी हवा पास में लेटी प्रिया के शरीर के ऊपर से होकर उसे छू जाती। 
“यार अब तू आ गयी है तो अच्छा लग रहा है” लेटे लेटे गरिमा ने कहा।
“हाँ यार! तू इधर थी और मैं घर पर, ये मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए जल्दी भाग आई!” ‘भाग आई’ को प्रिया ने रुककर और हल्का-सा हँसकर कहा। दोनों मुस्कुराए।
“थैंक यू जल्दी आने के लिए, नहीं तो मैं पीजी में रह रहकर पक जाती”
“अरे तू ‘थैंक यू’ ये सब रहने दे। इतना भी फॉर्मल होने की ज़रूरत नहीं है…” प्रिया ने हल्के में कहा। प्रिया को हल्के में रहना पसंद है। ज़बरदस्ती बातों को भारी करने में थकावट है, ऐसा वह मानती है। गरिमा की नज़रें पंखे से हट कर कमरे की दीवारों पर पड़ी।  
“तेरा कमरा कितना सुंदर है यार! टेबल लैम्प लगी हुई है, पौधे रखे हुए हैं और वो आईना जो दीवार पर टंगा हुआ है, वह कितना सुंदर है…” 
गरिमा उठ कर आईने के पास चली जाती है। आईने के चारों तरफ जुट की पतली रस्सी से गोलाकार बनाया हुआ है जिससे वह आईना भी गोल दिख रहा है। गरिमा खुद के चेहरे को गोल आईने में देखती है। आँखों पर गिर आए लटों को कानों के पीछे छिपा देती है। जब पूरा चेहरा आईने में प्रकट होता है तो वह अपने भीतर, बहुत भीतर, एक खुशी की लहर बनते महसूस करती है। मगर वह खुशी की लहर चेहरे तक आते आते नसों में ही कहीं खो जाती है। शायद वर्तमान की वास्तविकता ने उन खुशी की लहरों को सोख लिया था। 
वह अपना चेहरा आईने से हटा लेती है। वापस मुड़ कर प्रिया को देखने लगती है। प्रिया भी उसे ही देख रही थी।
“मेरे नौकरी का कुछ पता चला?” गंभीर से स्वर में गरिमा ने पूछा।
“अरे हाँ! मैं तो बताना भूल गयी…” प्रिया कुछ याद करके कहती है “…मैंने तेरी नौकरी की बात अपने मैनेजर से की थी। ‘डाटा एंट्री’ के रोल पर एक पोजीशन खाली है। तुझे कम्प्युटर चलाने तो आता ही है, तुझे कोडिंग भी थोड़ा बहुत आता है तो तेरे लिए ये सही रहेगा। पैसा ज़्यादा नहीं मिलेगा मगर शुरुवात करने के लिए सही है। चलेगा?”
“बिलकुल चलेगा…” 
नसों में खोयी खुशी की लहर भावी उम्मीद की बारिश में फिर से बह निकली थी और अब चेहरे के एक एक कोने पर छाने लगी है। 
गरिमा बिस्तर पर आकर प्रिया के बिलकुल सामने बैठ जाती है। वैसे ही जैसे नमाज़ अदा करते समय बैठा जाता है, घुटनों और पिंडलियों के ऊपर। फिर वह प्रिया के हाथों को पकड़ कर शुक्रिया अदा करने लगती है। यह देख प्रिया भी थोड़ी शर्मा सी गयी।
“…देख, बस एक जगह पर निर्भर नहीं रह सकते है। और भी जगहें कोशिश करनी होगी। तेरा ऑनलाइन जॉब पोर्टल पर प्रोफ़ाइल बनाते है और उससे पहले एक सीवी तैयार कर लेते है। तूने कभी सीवी बनायी है?” 
“सीवी मतलब?” 
“सीवी मतलब, तेरा और तेरे अभी तक के काम के बारे में एक पन्ने का बयान”
“नहीं यार! कभी नहीं बनाया। कभी नौकरी ही नहीं की है…”
“कोई नहीं। मैं तेरी मदद कर दूँगी… तू अपने साथ लपटॉप लायी है न?”
“हाँ लायीं हूँ।”
“ये तूने बहुत अच्छा किया”
“मैं तुझे कैसे ‘थैंक यू’ कहूँ” गरिमा फिर से कृतज्ञता के आवरण में लिपट गयी।
“अरे इतना तो बनता है!”
“फिर भी यार!”
“पहले नौकरी ले ले फिर थैंक यू कहते रहना…” इतमीनान दिलाते हुए गरिमा ने कहा।
“ठीक है!”
“वैसे भी तूने मेरा बहुत हेल्प किया है स्कूल टाइम में…” प्रिया पुराने दिनों को याद करके कहती है। बहुत कम ही लोग ऐसे होते है जो स्कूल के दिनों के मदद को आज भी तवज्जोह देते है, नहीं तो इतनी पुरानी बातों की अहमियत पलक झपकते खो जाती है। मन नए बातों को ज़्यादा याद रखता है, नए रिश्तों को ज़्यादा मान देता है।
“अच्छा सुन, मुझे भूख लगी है। कुछ अच्छा खाने का मन है। तूने डिनर कर लिया है?” प्रिया ने पूछा।
“पीजी से निकलने से पहले कुछ खायी थी। शायद कुछ देर में फिर से भूख लग जाये” गरिमा पेट छूकर बोली। दोनों मुस्कुराने लगे। 
“रुक कुछ मंगाती हूँ। क्या खाएगी? पिज़्ज़ा?”
“ठीक है!” गरिमा ने तुरंत हाँ कह दिया।
“पिज़्ज़ा इट इज़” बोलकर प्रिया अपने फोन में पिज़्ज़ा की जगहें ढूँढने लगती है। 
गरिमा बिस्तर से उतरकर वापस आईने के पास चली जाती है। ख़ुद के मुस्कुराते चेहरे से भेंट कर लेने के बाद वह अपने बालों को ठीक करती है और फिर कमरे में रखी बाकी चीज़ों को और भी गौर से देखने लगती है। 
ताड़ के झाड़ीदार पौधों को छूकर उसकी निगाह उस जगह पर रुकी जहाँ दीवार पर लकड़ी की बूकशेल्फ बनायी हुई थी। बूकशेल्फ में कविता की किताबें टेढ़े करके रखे हुए थे। कुछ किताबें अंग्रेज़ी में थी, कुछ हिन्दी में थी।
“तू अभी भी कवितायें लिखती है?” गरिमा आलोक धन्वा की एक पुस्तक उठाकर पूछती है।
“नहीं यार! अब बस पढ़ने का ही समय मिलता है…”
“अच्छा!… मेरा छोटा भाई भी बहुत पढ़ता है। हमेशा एक किताब हाथ में लिए घूमते रहता है। कविता नहीं पढ़ता है, कहानी पढ़ता है। कहानी जितनी छोटी हो उसे उतनी ही अच्छी लगती है। मेरे से पैसे मांग मांग कर उसने लाईब्रेरी बना ली है”
“बड़ा होगा तो कविता भी पढ़ने लगेगा” प्रिया ने मुस्कुराकर कहा। गरिमा भी मुसकुराई। शायद ऐसे बदलाव की सच्चाई से दोनों वाकिफ़ थे।
“मैं उसे लिखने के लिए भी कहती हूँ मगर वह कहता है – अभी बस पढ़ूँगा जब अंदर से लिखने की पुकार आएगी तो लिखने लगूँगा… मैंने भी उसे छोड़ ही दिया है। जो करना चाहे करे…” गरिमा बोलते बोलते रुक गयी। वह भी तो यही चाहती थी। 
मन में आए विषाद को किनारे कर वह आलोक धन्वा की किताब के पन्ने पलटने लगी। इधर उधर लिखे कुछ एक लाइन मन में पढ़ कर वह किताब वापस वहीं बूकशेल्फ पर रख देती है। बूकशेल्फ के किनारे, दिवार के पूरे उस भाग को छोटी छोटी पोलरोइड तस्वीरों ने घेर रखा था। सफ़ेद दीवार पर मोटी सफ़ेद बार्डर वाली ढेर सारी पोलरोइड तस्वीरें अपने अंदर इतिहास कैद किए हुए स्थिर टंगी गरिमा को ताक रही थी। धुंधली तस्वीरों में दूर से कुछ साफ नहीं दिखता था, पास जाओ तो एक राज़ उभर कर आती थी।  उन्हीं तसवीरों में एक तस्वीर पर गरिमा की निगाह पड़ी। औरों से अलग वह तस्वीर थोड़ी पुरानी थी और थोड़ी बड़ी भी, रील के ज़माने की। गरिमा को यह पुरानी तस्वीर जानी पहचानी सी लगी। झुककर वह और पास से उसे देखती है।
“अरे! ये तो मैं हूँ!” गरिमा आश्चर्य भाव से बोलती है। 
तस्वीर उनके बचपन की थी। दोनों गले में हाथ डाले खड़े है और उनके पीछे बस नीला पानी है और उस अनंत पानी के अंत में एक छोटी सी पानी में भीगी चमचमाती काली चट्टान।
“कितने बच्चे थे हम!” बोलकर गरिमा उस तस्वीर को हाथों से छूती है। पता नहीं क्यूँ लोग तस्वीर को हाथों से छूते है, जैसे उस तस्वीर को छू लेने भर से उस इंसान से भी स्पर्श हो जाएगी जिसे किसी पुराने समय में एक तस्वीर में कैद कर लिया गया था। गरिमा अपने ही पुराने रूप को छू रही है।
“ये दसवीं के परीक्षा के बाद की थी” प्रिया याद करके बतलाती है।
“हाँ। याद आया मुझे! भैया ने खींची थी… तुझे याद है भैया कैसे तेरे मम्मी-पापा को मनाये थे” 
“हाँ यार! तेरे भैया नहीं होते तो शायद उस दिन मैं नहीं जा पाती…” 
गरिमा के भैया ने हमेशा से ही गरिमा का साथ दिया था। जीवन के हर एक पड़ाव पर वह गरिमा के साथ रहे थे। उस शाम जब उसने सबके सामने शादी नहीं करने का फ़ैसला सुनाया था, उस शाम भी वह उसके साथ खड़े थे। लेकिन बस साथ खड़े रहने से तो काम नहीं चलता है। साथ-साथ आगे भी बढ़ना होता है। उन दीवारों को लाँघने में मदद करनी होती है जिन दीवारों का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा था। उनके लिए तो सेज पहले से ही तैयार थी, अड़चन तो गरिमा के जीवन में डाली जा रही थी। जल्दबाज़ी तो गरिमा के जीवन में लायी जा रही थी। उन्हें तो जितना छूट मिला था उतना ही समय भी। लेकिन उनका यह फर्ज़ बनता था कि वह गरिमा को भी उन आगामी देशों में लेकर जाये जहां की दुनिया देखकर वह लौटे थे। वही दुनिया जहां व्यक्ति को उसके कर्म से आँका जाता है। वह चाहतें तो किले के उस दीवार में एक छोटा सा दरवाज़ा बना सकते थे और तब शायद गरिमा को उन दीवारों में सेंध डालने की भी ज़रूरत न पड़ती। इतनी उम्मीद तो उनसे की जा सकती थी। मगर उन्हें भी माता-पिता का कर्ज़दार होना ज़्यादा सौभाग्यवान लगा, उन्हें उनका सेवक बने रहना श्रेष्ठ कर्म लगा। उन्हें नहीं पता सेवक और दास होने में कितना फर्क है। जहाँ सेवक अपने मालिक की सेवा स्वयं के मन से करता है वहीं एक दास अपने मालिक की सेवा अपने मालिक के कहने पर करता है। फर्क है दोनों में। जहां सेवक खुद से डरता है कि भूल चूक न हो जाये वहीं एक दास अपने मालिक से डरता है कि कहीं भूल चूक न हो जाये। फर्क तो है दोनों में… 
तस्वीरों को देखकर गरिमा आगे बढ़ी। कोने में लकड़ी की एक छोटी सी गोल मेज थी। मेज के ऊपर लकड़ी की एक ट्रे में गिलास की छोटी बोतल में मनी प्लांट रखा था और वहीं मनी प्लांट के पीछे वाइन की दो बोतलें रखी थी – एक लाल वाइन की और एक सफ़ेद वाइन की। दोनों लगभग आधी खाली थी। उसी ट्रे में, बोतलों के एक तरफ, वाइन की दो गिलासें भी रखी हुई थी। धूल की एक बहुत ही पतली परत उन गिलासों के ऊपर जम चुकी थी, देखकर लगता है वह गिलास भी किसी हाथ के तरसे है। 
गरिमा लाल वाइन की बोतल हाथ में उठा उस पर लिखे अंग्रेज़ी के शब्दों को पढ़ने लगी…
“तू वाइन पीती है?” तभी चुपके से प्रिया पूछती है। 
“नहीं यार! कभी नहीं पिया। भैया ने एक बार बीयर चखाई थी, बस।”
“बीयर तो बहुत कड़वी होती है। मैं नहीं पीती। वाइन अच्छी होती है। थोड़ी कड़वी थोड़ी मीठी… पिएगी?” 
बोतल को हाथ में उठाकर गरिमा एक पल के लिए सोचने लगी मानो अपने अंदर से पूछना चाहती हो कि पीना चाहिए या नहीं। यही जीवन तो उसे जीना था, जहाँ वह निर्णय स्वयं से पूछ कर ले; भले ही वह निर्णय छोटे से छोटा ही क्यूँ न हो। यही तो जीवन वह जीना चाहती थी जहां सामने वाला उसका निर्णय पूछे, अपना निर्णय उसपर थोपे नहीं।
“ओके!” फैसला लेकर गरिमा ने कहा “लेकिन खाने के बाद… थोड़ी सी ही पियूँगी”
“खाने के बाद नहीं, खाने के साथ साथ। तुझे नहीं पता पिज़्ज़ा के साथ वाइन पीने में कितना अच्छा लगता है” 
“तू बहुत वाइन पीती है क्या?” गरिमा कुछ जानने के मकसद से पूछी।
“बहुत नहीं, थोड़ा बहुत। कभी-कबार।”
“इतना वाइन पीना चाहिए क्या?” 
“क्यूँ नहीं? वाइन तो ख़ाने में भी पड़ता है”
“ऐसा क्या!” गरिमा अवाक सी रह गयी।
वाइन की बोतल वापस रख कर गरिमा बालकनी के खिड़की तक पहुँचती है। खिड़की के नीचे से एसी की ठंडी हवा उसके पैरों को छू जाती है। वह वहीं टंगे सफ़ेद झीनीदार पर्दों को एक तरफ़ समेट देती है। जब बाहर का नीला आसमान खिड़की में झलका तो वह यह देखकर फिर से अवाक-सी रह गयी। 
“तेरे बालकनी से आसमान कितना सुंदर दिखता है…” प्रफुल्लित होकर वह कहती है। 
दूर ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों के उस पार अंधेरे को चीरता हुआ पूर्व से पूरा चन्द्रमा लालिमा लिए निकला आ रहा था, तारों की टिमटिमाहट को फीका करता हुआ, बिल्डिंगों में लगी बत्तियों की रोशनियों को अपमानित करता हुआ। उस चाँद की चमकती रोशनी पूरे गुड़गाँव शहर पर झीनी बारिश के जैसी झर रही थी।
“चल बाहर बैठते है” गरिमा भावविभोर होकर बोली। 
“ये अच्छा आइडिया है। मैं एक और कुर्सी लेकर आती हूँ…”
बालकनी से देखो तो चारों तरफ़ इमारतें ही इमारतें है। हर इमारत पर पीली और सफ़ेद रोशनी तारों सी टिमटिमा रही है। हवा में एक भारीपन भी है और धूल की हल्की महक। ये धूल भी बारिश के इंतज़ार में बैठे है कि कब बरखा गिरे और वो वापस अपनों में जा मिले। 
“यहाँ कितना धूल है यार!” प्रिया अभी बैठी ही थी कि गरिमा ने शिकायत कर दी।
“इधर ऐसा ही है। कभी कभी धूल की आँधी भी आती है”
“हाँ! मैं जिस दिन आई थी उसके अगले शाम ही आँधी आई थी। आँधी राँची में भी आती है मगर ऐसी नहीं। यहाँ पर तो बस धूल धूल ही दिखता है। सब कुछ पीला पीला सा हो जाता है। मैं तो देख कर डर गयी थी। लेकिन फिर तुरंत सब कुछ साफ हो गया, पास की चीज़ें और भी पास दिखने लगी। ऐसा कभी मैंने रांची में अनुभव नहीं किया था…”
“देख अगर तुझे गुड़गाँव में रहना है तो धूल और धूल वाली आँधी की आदत बनानी पड़ेगी। यहाँ का क्लाइमेट राँची से एक दम ही अलग है”
“हाँ यार! धूप ऐसा लगता है जैसे चमड़े को जला देगा। सब कुछ सूखा सूखा सा। ये देख, मेरे हाथ कैसे फट रहे है” 
“मॉइस्चराइज़र लगा ले। वॉशरूम रखा होगा”
“नहीं ठीक है!” गरिमा कतराते हुए बोली।
“शर्मा क्यूँ रही है। लगा ले, अच्छा रहेगा” प्रिया विश्वास दिलाते हुए बोली।
“ठीक है” 
“सुन पिज़्ज़ा भी आ गया है” प्रिया फोन देखकर बोली “मैं लेकर आती हूँ” . गरिमा अकेले बैठे बैठे आसमान ताकने लगी। उसे छत पर लेटकर आसमान देखना बहुत अच्छा लगता था। रांची में अधिकतर गर्मियों की रातें उसकी ऐसे ही बीतती थी। कभी कबार उसके पापा भी उसके साथ होते थे। वो कभी रेडियो लेकर आते थे तो कभी ऐसे ही गाने गुनगुनाते रहते थे। कभी माँ भी आकर बैठती थी। और फिर गानों का डुएट चलता था – पुराने हिन्दी के दिली गानों का डुएट। गुड़गाँव का आसमान रांची के तुलना में उतना साफ तो नहीं है फिर भी आसमान देखने लायक है, ख़ासकर आज की पुर्णिमा की रात। अब चाँद पूरा ऊपर आ चुका है। उसकी लालिमा अब जा चुकी है बस एक पूरा गोल पीला चाँद आसमान में लटका है जिसे देखकर गरिमा अपने ही ख़यालों में डूबी हुई है, घर छोडकर भागने से पहले वाली रात… 
कितना ज़रूरी होता है अपने करीबियों को यह बतला देना कि आप भाग रहे है? बता कर भागना मनुष्य के उसके अच्छे नियत को दरसाता है। यह एक तरीक़े से आश्वासन देने के जैसा होता है कि मैं अपना ख़्याल रख सकता हूँ। और बताने का माध्यम क्या चुना जाये? आप सीधे मुँह यह कह कर नहीं भाग सकते कि मैं भाग रहा हूँ। इसमें एक ख़तरा यह है कि ज़ोर-ज़बरदस्ती का प्रयोग कर आपको बाँध लिया जाएगा। आपके सामने एक पूरी समाज खड़ी कर दी जाएगी जो आपकी जान ले सकती है लेकिन आपको अपने मन से कुछ करने नहीं दे सकती। क्यूंकी अपने सामने से उठकर किसी के भाग जाने का दृश्य सहन कर लेने की शक्ति शायद सभी में नहीं है। यदि फोन पर बताया जाये तो शायद दिखावटी आंसुओं के बल पर आपको रोकने की चेष्टा की जाएगी, रिश्तों का मान बतलाकर आपको भीतर से कमज़ोर करने का प्रयत्न किया जाएगा; और एक बार हिम्मत टूट गयी तो आराम के चकाचौंध में लौट आना ही सही लगने लगता है। वहीं पत्र लिखकर सूचित करना शायद अभी के इस इंटरनेट और फोन के युग में भी अपनी महत्ता खोया नहीं है। पत्र लिखा ही जाता है यह सोचकर कि पढ़ने वाला भावी समय में आपके लिखे अभी के भावों को पढ़ेगा, बिना किसी अवरोध के और बिना किसी दिखावे के। वह उसे बार-बार पढ़ेगा। इतनी बार पढ़ेगा कि लिखे हुए शब्द मन में अंकित हो जाएंगे। और वह पढ़कर कुछ कर भी नहीं सकता सिवाय गहण चिंतन के। वही चिंतन जो उन्हें उसके भाग जाने के पहले करनी चाहिए थी। 
गरिमा भी एक अच्छे नियत की लड़की थी। और इसी नाते वह एक आख़िरी पत्र अपने माता पिता के नाम घर पर छोड़ आयी थी। उस पत्र में उसने वह सब कुछ लिखा था जो उसने अभी तक उस टैंक से घर में रहकर महसूस किया था। उसमें क्यूँ का कोई जवाब नहीं था, बस क्या का विस्तार से वर्णन था। वही क्या जो उसे मंज़ूर नहीं थी, वही क्या जो उसे चाहिए थी मगर उसके माता-पिता समझना नहीं चाह रहे थे। क्यूँ के बारें में वह बता बता कर थक चुकी थी – “…पापा, अगर आप अपने टँक से बने हुए घर को ध्यान से देखेंगे तो शायद आपको यह समझ आ जाएगा कि वह टैंक रहने लायक जगह तो है लेकिन जीने लायक जगह नहीं है। आपको यह समझ आ जाएगा कि उस टँक में ऑक्सिजन तो है लेकिन हवा नहीं है। वहाँ धूप तो है लेकिन गरमाई नहीं है। वहाँ लोग ज़िंदा तो है लेकिन जी नहीं रहे हैं। उस टैंक से घर की एक एक दीवार आपकी पाखंडता का प्रमाण देती है…”  
“क्या सोच रही है?” पीछे से प्रिया अपने साथ एक हाथ में पिज़्ज़ा और दूसरी हाथ में धुली हुई वाइन की ग्लास में लाल वाइन लेकर आयी। एक गिलास गरिमा को दिया और दूसरा अपने पैरों के करीब रख दिया। फिर पिज़्ज़ा के डिब्बे में से एक फांक गरिमा को दिया और दूसरा फांक लेकर खुद खाने लगी। 
“कैसा है?” एक पूरा फांक निगल लेने के बाद प्रिया ने पूछा।
“ये तो बहुत मस्त है” गरिमा चीज़ के स्वाद में खोयी हुई बोली। 
“अब वाइन टेस्ट कर” प्रिया ने कहा।
गरिमा ने पहले वाइन को सूंघा इसलिए नहीं कि कहीं देखा हो कि वाइन ऐसे पीते है बल्कि इसलिए कि किसी नए चीज़ को पीने से पहले सूंघ लेना एक जानवरों का तरीका है। वाइन सूँघ कर उसे थोड़ा अजीब लगा मगर फिर भी उसने एक घूंट पिया। वाइन की कड़वी घूंट वह जैसे ही घोंटी, पीछे रह गया स्वाद अपना असर दिखाने लगा। 
“आफ्टर टेस्ट मीठा है” गरिमा ने प्रसन्न होकर कहा।
“चिंता मत कर धीरे-धीरे ‘ड्यूरिंग टेस्ट’ भी अच्छा लगने लगेगा” प्रिया हस कर बोली। 
गरिमा भी धीरे धीरे वाइन पीती रही। कभी चाँद को देखती तो कभी सामने किसी बिल्डिंग के बालकनी में खड़े लोगों को। ऐसे ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों में रहने वाली जीवन शैली उसने पहले कभी नहीं देखी थी। उसे थोड़ा आश्चर्य तो हो रहा था मगर “अब यही है” वाली बात भी समझ आ रही थी। वह मन ही मन सोचने लगी आने वाले दिनों में उसे ऐसे ही किसी ऊँची इमारत में रहनी पड़ेगी। ज़मीन और आसमान के बीच कहीं तैरता सा उसका एक घर होगा, जिसे वह अपना कह सकती है; उस घर से अलग जहां से वह भाग कर आई थी जहाँ की हवा बासी हो चुकी थी…
“तू फिर से सोच में पड़ गयी” प्रिया टोकती है “…इतना क्या सोच रही है। ज़्यादा मत सोच गरिमा। जो मन में चल रहा है बतालाते जा” प्रिया ने हौसला देते हुए कहा। 
गरिमा अपने सोच को शब्दों में ढालने का प्रयास करने लगती है। इतना सब कुछ उसके दिमाग में चल रहा था कि वह उन्हें कैसे इकट्ठा करे और कैसे व्यक्त करे। फिर वह वाइन की एक घूंट पीती है और प्रिया की सलाह को मानते हुए धीरे से बोलना प्रारम्भ करती है:
“यार! मुझे पूरा विश्वास था कि माँ मेरा साथ ज़रूर देंगी। मगर उन्होंने भी साथ नहीं दिया। कैसे वह पापा के तरफ़ हो गयी। यहाँ तक कि पापा से ज़्यादा ज़ोर वही डाल रही थी। उन्हें ही जल्दी पड़ी थी अपनी बेटी को विदा कर देने का। जैसे इतने सालों का जो रिश्ता चला आ रहा है वह बस इसी एक दिन के लिए है। जैसे कि कल को जाकर मेरा और उनका कोई संबंध ही नहीं रहेगा। इस बात ने मुझे बहुत दुखी किया है प्रिया। ये जो पंडित लोग कहते फिरते है कि कन्यादान दुनिया का सबसे बड़ा दान है, इन्हीं लोगों ने सत्य को पलट कर रख दिया है। कन्यादान सबसे बड़ा दान इसलिए है क्यूंकी उस दान के पीछे एक बहुत बड़ा वियोग छुपा होता है। सालों के प्रेम का बिछड़ जाने का वियोग। खुशी खुशी किया हुआ कन्यादान का क्या ही फल मिलेगा? और कन्या दान क्यूँ ही किया जाये? केवल कन्याओं का ही दान क्यूँ होता है? हम बस दान देने लायक है और कुछ भी नहीं हैं? वो जो प्यार से दुलार से एक बच्ची को गोद में उठाया जाता है, उसे लाड से बड़ा किया जाता है वह बस दान में देने के लिए है। उस प्यार का कोई और महत्व नहीं है। घिन आती है कभी कभी यह सब सोचकर। तरस आता है अपने माता पिता पर। और माँ? वो कैसे बर्दाश्त कर सकती है ये सब। पता है एक रात वो मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गयी। प्यार से मेरे माथे को सहला रही थी। उनकी आँखें भी भर आयी थी। मुझे लगा उनकी ममता जाग गयी होगी मगर ऐसा बिलकुल भी नहीं था। बल्कि वह मुझे मीठी-मीठी बातों से फसाने आयी थी। मुझे फुसलाकर बहलाकर आगे धकेलना चाहती थी। कभी उनकी नज़र से सोचती हूँ तो वो थोड़ी सही लगती है और जब अपनी नज़र से सोचती हूँ तो वह पूरी की पूरी गलत। मुझे न कभी कभी लगता है ये पेट्रिआरकी इसीलिए चली आ रही है क्यूंकी हम स्त्रियाँ ही दूसरे स्त्रियॉं का साथ नहीं देते। अगर दुनिया की सारी स्त्रियाँ इस पेट्रिआरकी को मानने से इंकार कर दे तो यह उसी वक़्त ख़त्म हो जाएगी, नहीं? लेकिन यहाँ पर तो एक माँ ही अपनी बेटी का साथ नहीं देती। हम लोग ही आराम के आदि हो गए है। और आराम कहाँ है उस घर बार की दुनिया में? मुझे तो नहीं दिखता। सुबह से शाम तक माँ घिसते रहती है, इधर उधर नौकरों की तरह और उन्हें एक पैसा का इज्ज़त नहीं मिलता है। कभी नहीं देखा मैंने कि मेरे पापा मम्मी को ‘थैंक यू’ कह रहे हो। और मम्मी भी बस हाँ में हाँ मिलाते रहती है। मैंने कभी उन्हें विरोध करते नहीं देखा है। ऐसा लगता है उन्होंने पहले से ही अपनी नियति को स्वीकार कर लिया है। यह कायरता नहीं हुई तो और क्या हुई? और पापा? खुद को ऐसे मॉडर्न बतलाते है जैसे विश्वगुरु हो। बदलते दौर के साथ अपनी सोच भी नहीं बदल रहे है। अपने ज़मीन से जुड़ा होना सही सोच है लेकिन खूंटा बाँध कर बैठे रहना यह कहाँ का सही सोच है? आँधी आए, तूफान आए, वहीं बैठे है, अडिग अपने असुलों को लेकर अपनी संस्कृति को लेकर अपनी पौराणिक परंपराओं को लेकर। ये मूर्खता नहीं है तो और क्या है? संस्कृति इन्सानों से बनती है, उनके रहन सहन उनके जीवन जीने की शैली से बनती है। संस्कृति से इंसान नहीं बनता। इस हिसाब से संस्कृतियाँ तो बदलते रहनी चाहिए, नए जीवन के साथ उसे बदलते रहनी चाहिए। सदियों पुरानी परंपराओं को पकड़े रहने में क्या फायदा है? जिस सदी की वह परंपरा है उस सदी में हम नहीं जी रहे है, यह बात उन्हें क्यूँ नहीं समझ आती। क्यूँ समझाने पर भी वह एक किले की तरह अडिग रहते है? क्यूँ उनके लिए उनके संतानों से ज़्यादा बहुमूल्य उनकी सामाजिक छवि है? यह कोई ऐसा दौर भी तो नहीं है जिसमें समाज के विरुद्ध जाना कष्टकारी साबित हो जाये। अगर संतानों के खुशी के लिए समाज के विरुद्ध जाना भी पड़े तो भी इसमें क्या गरज है। वह सुबह शाम उठते बैठते तो अपने संतानों के साथ ही है फिर उन्हें वह समाज, जिनसे उनका दूर का रिश्ता है, दूसरा रिश्ता है, वह समाज क्या कहेगा इससे उनको इतना फर्क क्यूँ पड़ता है? क्या वह इतने भी दृढ़ नहीं है कि वह जो करेंगे, जो सच और सही है, उसमें समाज उनका साथ दे या न दे क्या फर्क पड़ता है? यार जब बड़ी हो रही थी तो अपने पापा को इडोल मानती थी। दुनिया के सबसे अच्छे इन्सानों की सूची में उन्हें सबसे आगे रखती थी। अभी जाकर लग रहा है वह बस एक सपना था। एक सिनेमा की तरह, बस दिखाया हुआ सपना और कुछ भी नहीं। मुझे बहुत उम्मीद थी उनसे, लेकिन वो सारी उम्मीदें अब नष्ट हो गयी है। तुझे विश्वास नहीं होगा यह जानकर कि जब मैंने खुद को अकेला पाया तब जाकर मुझे लगा कि मैं अकेली नहीं हूँ…”
वाइन ख़त्म हो चुकी थी और बातें भी। अंदर दबा पड़ा सबकुछ बाहर आ चुका था। हवा थोड़ी और भारी हो चुकी थी मगर गरिमा हल्की हो गयी थी। प्रिया भी सुन्न पड़ चुकी थी। मगर उसे कुछ कहना चाहिए ऐसा उसे अंदर से महसूस हो रहा था। उसे भीतर ऐसा कुछ महसूस हो रहा था कि उसे वह हाथ आगे बढ़ाना चाहिए जिसे गरिमा तलाश रही है। 
“सुन, तू कुछ दिनों के लिए मेरे साथ रह ले। पीजी भूल जा” प्रिया से बस इतना ही कहा गया। 

इतना ही काफी था। इतना ही तो चाहिए होता है कि कोई बस हमे समझे और हम जैसे है वैसे ही हमे अपना ले, अपने से दूर न जाने दे। परिवार तो अपनाने से ही बनती है, समाज तो अपनाने से ही बनती है। 

– संजीव तिवारी 

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