मंजूषा

मंजूषा

उसकी आँखें और मुस्कुराहट हमेशा से इतनी रहस्यमयी नहीं थी लेकिन जबसे उनके कमरे मे वह जड़ाऊ पिटारा आया था तब से वह खुद भी रहस्यमयी हो गयी थी ।सभी जानते थे वह उस पिटारे को खोल कर नहीं दिखाएंगी क्योंकि वह सभी के इस आग्रह को ठुकरा चुकी थी ।यहाँ तक की जिन पोते – पोतियों पर वह भरपूर स्नेह लूटाती थी और उनकी सभी बातें मुस्कराते हुए मान लेती थी , उनको भी उस पिटारे से दूर रहने को कहती ।वैसे भी नजदीक जाकर कोई कर भी क्या सकता था , उन्होंने उस पर ताला जो लगा रखा था वर्ना उनका रहस्य अभी तक रहस्य न रहता ।
                          वह तीन बेटों की माँ थी , अब यही उसकी पहचान थी ।जब तक उसके पति जिंदा थे , उसके नाम की गूँज उस घर मे सुनाई देती थी ।उसके पति उठते बैठते कल्याणी – कल्याणी पुकारते रहते थे ।उसके बिना उनका कोई काम नहीं होता था ।कल्याणी की दुनिया पति और बच्चों मे सिमटकर रहती थी ।
मंजूषा                             कल्याणी के पति विष्णुकांत जल विभाग मे कार्यरत थे ।उन्होंने तीनों बेटों को उच्चशिक्षा दिलवाई और उन्हें अपनी क्षमताओं के मुताबिक पद मिल गए ।फिर तीनों बेटों की शादी करवाकर अपनी इस जिम्मेदारी को भी उन्होंने निबटा दिया था ।विष्णुकांत जहाँ प्रत्येक कार्य मे कल्याणी के साथ – साथ बेटे बहुओं से भी सलाह – मशवरा करते थे तो दूसरी तरफ कल्याणी भी बहुओं को बेटियों जैसा स्नेह व सम्मान देती ।दोनों बुजुर्ग पोते – पोतियों के साथ व्यस्त रहते ।इसी तरह दिन परिवार के साथ हँसी – खुशी मे बित रहे थे लेकिन एक दिन अचानक सड़क दुर्घटना मे विष्णुकांत का देहांत हो गया ।
                          उसके बाद तो जैसे कल्याणी का जीवन ही बदल गया ।उसने समय के साथ अपने आपको सम्भाला व फिर से पोते – पोतियों के साथ मन लगाने की कोशिश करने लगी ।बहुओं के छोटे – मोटे कामों मे हाथ बटानें लगी लेकिन कल्याणी ने महसूस किया कि बेटों और बहुओं का रवैया अब बदल गया है ।अब ना तो कोई उससे सलाह लेना पसंद करता , न ही उससे बात करना ।सब अपने – अपने क्रिया – क्लापों मे लगे रहते ।
                     वह रोज सोचती कि उसके बेटे आॅफिस से आकर कुछ समय उसके पास बैठेंगे पर वे उसके कमरे मे झाकते तक नहीं थे ।जब कभी वह उनके पास जाकर बैठ जाती तो कोई उनसे मुखातिब नहीं होता था ।कल्याणी जिन बेटे बहुओं के दुख दर्द मे हमेशा साथ देती थी , वही लोग अब उससे सिधे मुँह बात तक नहीं करते थे ।
                          ऐसे ही अन्यमनसक्ता के साथ दिन बित रहे थे कि कल्याणी एक दिन अपने मायके जयपुर चली गई और जब लौटी तो वही जड़ाऊ पिटारा उसके साथ था ।रंग – बिरंगी मीनाकारी से वह पिटारा बहुत खुबसूरत दिखता था ।कल्याणी ने वह पिटारा अपने कमरे मे रखा व उस पर लगे ताले की चाबी हमेशा अपनी साड़ी के पल्लू से बाँधे रखती ।
            एक दिन वह अपने कमरे मे बैठी थी कि पोता सागर उसे बुलाने आया कि सभी उसे आंगन मे बुला रहे है ।सभी बैठकर बातें कर रहे थे ।
तब आदित्य ने कहा –   माँ आप बता क्यों नहीं देती उस बाॅक्स मे क्या है ।
पुष्पा सैनी
पुष्पा सैनी
कल्याणी ने मुस्कराते हुए कहा –  वो बाॅक्स नहीं , मंजूषा है ।
सागर ने हैरानी से पूछा –  दादी माँ , ये मंजूषा क्या होता है ।ये शब्द तो हमने कभी नहीं सुना ।
बड़ी बहू हँसते हुए बोली –  तुमने क्या बेटा , हमने भी कभी नहीं सुना ।
कल्याणी ने कहा –  जिसमें हम पत्र वगैरह समेटकर रखते है या कोई किमती वस्तु उस पिटारे को हम मंजूषा कहते है ।
छोटी बहु ने मुँह बनाते हुए कहा –  तो क्या है उसमें पत्र या किमती वस्तु ।
मंझली बहु ने तपाक से कहा – जब ताला लगा है तो किमती वस्तु ही होगी ना कोई पत्र वगैरह को ताला क्यों लगाएंगा ।
कल्याणी ने कहा –  तुम ठीक कहती हो किमती वस्तु ही है ।
सरगम ने मचलते हुए कहा –  दादी माँ क्या किमती वस्तु है , वो आप किसे देंगी ।
कल्याणी ने उसे अपने पास बिठाते हुए कहा –  अक्सर लोग अपनी सबसे किमती वस्तु उसे देते है जिसे वो सबसे ज्यादा प्यार करते है लेकिन मैं उसे दूंगी जो मुझे प्यार करेगा ।आखिर मुझे अपने परिवार के सदस्यों के प्रेम और सम्मान के सिवा ओर चाहिए भी क्या ।
      उस दिन के बाद घर के प्रत्येक सदस्य का उनके प्रति व्यवहार और नजरिया ही बदल गया ।पहले जहाँ सब उससे कटे – कटे रहते थे , वहीं अब सब उनके साथ घुलमिल कर रहने लगे ।पहले तीनों बेटे आॅफिस से आते ही थकान का बहाना बनाकर अपने कमरे मे चले जाते थे ।वही अब उनका हाल – चाल पूछने उनके कमरे मे जाते व उनके साथ बैठकर खाना भी खाते ।
तीनों बहुओं मे भी होड़ लगी रहती कि सबसे ज्यादा उन्हें कौन खुश रख पाएँ ।कोई उनकी पसंद का खाना बनाती , कभी उनसे सलाह – मशवरा करती , कभी उनके साथ बैठकर पुरानी बातों व किस्से – कहानियों का लुफ्त उठाती ।
            कई साल ऐसे ही खुशहाली मे व्यतीत करने के बाद एक दिन वह भी आया जो कल्याणी के जीवन का अंतिम दिन था ।क्रिया क्रम करने के बाद जब सब रिश्तेदार चले गए तब बड़ी बहू ने कहा  – अब तो हमें उस पिटारे को खोलकर देख लेना चाहिए ।
सुधीर – हाँ माँ भी यही चाहती थी कि क्रिया कर्म के बाद उसे खोला जाए ।
छोटी बहु ने कहा – लेकिन उस पर तो ताला लगा है ? 
आदित्य – चलो चलकर देखते है चाबी कमरे मे ही होगी ।
               उन्हें चाबी वही पिटारे के पीछे मिल गई ।सभी वही बैठकर उसके खुलने की प्रतिक्षा कर रहे थे ।आदित्य ने वह पिटारा खोला तो सभी दंग रह गए ।उसमें एक पत्र रखा था जो कल्याणी ने परिवार के सदस्यों के लिए लिखा था ।
                          आदित्य पत्र पढ़ने लगा व सभी ध्यानपूर्वक सुनने लगे ।
कल्याणी ने लिखा – 
                           मेरे बच्चों तुम इस मंजूषा के खुलने के बाद हैरान हो गए होंगे पर परेशान मत होना क्योंकि मैं तुम लोगों को हमेशा खुश देखना चाहती हूँ ।मैं जानती थी मेरे जीवन के चंद साल बाकी बचे है , उन्हें मैं अपने परिवार के साथ खुशहाली से बिताना चाहती थी लेकिन मेरी तरफ देखने का किसी के पास वक्त ही नहीं था ।उन बेटों के पास भी नहीं जिन्हें अपने दूध से ही नहीं खून से भी सिंचा था और न ही उन बहुओं के पास जिनकी सास नहीं बल्कि माँ थी मैं ।मैं कुछ चाहती थी तो बस तुम लोगों का प्रेम लेकिन मैं अब अनचाही वस्तु बन गई थी , जिसकी किसी को जरूरत नहीं होती तब मैंने किमती वस्तु बनना जरूरी समझा ताकि तुम सब खुद ही मेरे करीब आ जाओ ।जहाँ तक धन दौलत की बात है वह सब तो तुम्हारे पिता जी जीते जी तुम सबको सौंप गए , जिसे तुम सबने बड़े प्रेम से सहेजा भी , एक मैं ही रह गई थी जिसे वह छोड कर गए और किसी ने सहेजना जरूरी नहीं समझा ।मेरे बच्चों परिवार मे प्रेम और अपनेपन से बड़ी कोई वस्तु नहीं होती , जिसे मैंने इस मंजूषा की वजह से पा लिया ।मेरा आशीर्वाद तुम सबके साथ रहेगा , तुम लोग हमेशा खुश रहना और दूसरों को भी खुश रखना ।
               
                                       तुम्हारी माँ 
पत्र सुनने के बाद सब एक दूसरे के मुँह की तरफ देख रहे थे ।वे कभी अपने आपको लज्जीत महसूस करते तो कभी ठगा हुआ ।

यह रचना पुष्पा सैनी जी द्वारा लिखी गयी है। आपने बी ए किया है व साहित्य मे विशेष रूची है।आपकी कुछ रचनाएँ साप्ताहिक अखबार मे छप चुकी हैं ।

You May Also Like