मज़े जहाँ के अपनी नज़र् में ख़ाक नहीं – मिर्ज़ा गालिब

मज़े जहाँ के अपनी नज़र् में ख़ाक नहीं
सिवाय ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुए पर हव उड़ा ले जाये
वगर्ना ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं

ये किस बहीश्तशमाइल की आमद-आमद है
के ग़ैर जल्वा-ए-गुल राहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं

ख़्याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मैकश
शराबख़ाने के दीवर-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा
सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं

हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के ‘असद’
खुला कि फ़ायेदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

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