मानवता के बीज
राजनेताओ की अपनी
संतो की अपनी भीड़ है
ये मंदिर मस्जिदो की
या नफरतो की एक दौड़ है।
एक उठायेगा पत्थर गर
सौ झुंड पे खुद उठ जायेंगे
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम चिल्लायेगा
इसी उलझन में देश आंसू बहायेगा।
कौन सा अल्लाह
कौन से भगवान है
तुम्हारी अपनी कहानिया
तुम्हारे अपने फरमान है।
जरा उनसे भी पूछो
जो बेजारी लाचारी में जीते है
वो झूठन भी खाते है
और जहर भी पीते है।
तुम झगड़ लो
मन्दिर ओर मस्जिदो पर
दौर तुम्हारे साथ इनका भी खत्म होगा।
न फिर वहा अल्लाह
न रामलला विराजेंगे।
अरे! छोड़ो ये छोड़ो
ये धर्मार्थ की बातें
वहाँ एक वर्द्धाश्रम बना आओ
कुछ नन्हे से पौधों को गुलिस्ता में सजा आओ।
न भूले जिसे संसार कभी
वहाँ एक ऐसी मानवता के लगा आओ
थोड़े से संस्कार थोड़े से अपनत्व के बीज उगा आओ।