आज के प्रतियोगी दौर – रणजीत कुमार

आज के प्रतियोगी दौर में जन्म कहीं होता है शिक्षा दीक्षा घर से सुदूर होती है और नौकरी कहीं और. तो इस दौड़ के कुछ खट्टे मीठे अनुभव भी होते हैं इसे आप संघर्ष कहें या जीवन की उबड़खाबड़ पगडण्डी पर अग्रसर वर्तमान के युवा की रोचक यात्रा. मेरे यात्रा में कुछ पड़ाव ऐसे हैं जिसकी छाप मेरे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग है. डॉक्टर बनने की असफल प्रयास से निराश जब एक वैकल्पिक करियर की तलाश थी तब जैवप्रोद्योगिकी जैसे डूबते को तिनके के सहारे क तरह प्रतीत हुआ और फिर फँस गया मैं भी चूहे की दौड़ में. चूहे का दौड़ इसलिए की नया विषय था करियर की कोई दिशा निर्धारित नहीं थी परिणाम स्वरुप असमंजस की स्थिति में स्नातक की उपाधि अर्जित की. सवाल था आगे क्या स्नातकोतर के लिए केरला में चुना गया ऐसा लगा जैसे जीवन ने निरास होके काले पानी की सजा सुना दी. जहाँ खान पान में क्रांतिकारी बदलाव वहीँ हिंदी बोलने को तरस जाता था मन. मौन के गूँज में रचनात्मक गतिविधियों को बल मिला. दो वर्षों में सौ से ज्यादा परीक्षा में अवसर ही नहीं दिया की हम अनुभव कर सकें की इश्वर के अपने रमणीक छेत्र ( गोड्स ओन कंट्री ) में कभी हमारा प्रवास था. कहानी को संक्षिप्त करते हुए केरला से हमने सीखा प्रतिकूल परिस्थीती में काम करना.
आगे की यात्रा की बीज भी केरल में ही अंकुरित  हुई जब CSIR द्वारा आयोजित राष्ट्रीय शोध पात्रता परीक्षा में मैंने स्थान पाया. किंकर्त्तव्यविमूढ़ मैं समझ नहीं पा रहा था की शोध करूँ या नौकरी पर घर में पिताजी के ये शब्द की हमारे यहाँ कोई डॉक्टरेट नहीं ने मुझे शोध के क्षेत्र में पहुंचा दिया. मेरे मित्र जो इंजीनियर थे अब तक उनकी शादी हो चुकी थी पर मेरी पढ़ाई थी जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी. मेरा एक मित्र हमेशा कहता था की ये फेलोशिप एक पंच वर्षीय पेंसन योजना है सच ही था दोस्त पर बहुत देर में समझ आया की विज्ञान के जिस छेत्र को मैं धर्म मान बैठ था वो मात्र कमाने खाने का श्रोत था. जबतक भ्रम टूटा समय निकल चूका था और खोने को जायदा कुछ बचा नहीं था. इस पंच वर्षीय शोध की इतिश्री २०१० के जून माह में हो गयी. विज्ञान के साथ मनोविज्ञान पे भी शोध स्वतः जारी रहा असंतोष, घृणा , कुंठा और अहंकार का जो माहौल था उसमे खुल के हँसने और नयी सोंच रखने की कोई आजादी नहीं थी. समय निकल चूका था दोस्तों के बच्चे हो चुके थे मेरी पढाई यथावत जारी थी. ये हाल सिर्फ कोई एक रंजीत का नहीं ऐसे कई रंजीत आज भी विज्ञान के बेदी पर अपना बलि निरंतर दे रहे हैं. रैयत जमींदार जैसे सम्बन्ध से आजाद हुए अभी एक माह भी पूर्ण नहीं हुआ और नयी जिंदगी ने दस्तक दे दी .
स्थान के परिवर्तन से सोंच में बदलाव  मैंने पहली बार अनुभव  किया. स्वीडन मेरे लिए नया  अवश्य था पर मेरे केरल के अनुभव ने मुझे बल दिया. यहाँ पहली बार ऐसा लगा की हमारा भी सहयोग मूल्यवान है. विज्ञान धर्म जैसा लगने लगा कारण विचित्र था मुझे कहीं भीतर खुद का अस्तित्व महत्वहीन प्रतीत होता था एक आइडेंटिटी क्राइसिस झेल रहा था मैं. यहाँ रिश्ते नौकर मालिक वाले नहीं बल्कि मित्रता पूर्ण है . आजादी है अपनी बात रखने की और हम सब एक दूसरे के सहयोगी हैं  प्रतियोगी नहीं. वैचारिक विविधता है पर मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं. कोई छोटा या बड़ा नहीं आप सीखने और सिखाने की पद्धति का अभिन्न हिस्सा हैं. परिणाम मात्र लक्ष्य नहीं पर जो रास्ते परिणाम तक पहुँचने के लिए लिए गए वो भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं. मन कहता है क्या भारत में ऐसा नहीं हो सकता बोझ के तले स्रीजनात्मक पहल दम न तोड़े. नए विचारों का सम्मान हो एवं मार्गदर्शन भी मिले. भारत की धरती में अनेको तथागत हैं जरूरत है सही व्यवस्था की जो इन्हें दिशा और मजबूत आधार दे . क्या कारण है की सब सुविधा के वाबजूद हम कुछ भी नया करने में सक्षम नहीं. एक प्रतियोगी कुंठित वैज्ञानिक समाज को क्या दे पायेगा अगर ये पांच साल उसके बौद्धिक पतन एवं मानसिक दीवालियापन की गाथा हो. मेरा उद्देश्य मात्र समस्या की ओर संकेत करना है जिसका भुक्तभोगी समसामयिक शोध रत छात्रों का एक बड़ा समूह है.
मेरी अनसुलझे  रहस्यों को समझने की वैज्ञानिक  यात्रा यथावत जारी है …………..

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