मिट्टी खाकर मेरा परिवार जिंदा है

भूख और जज्बात

किसी ने जब पूछा मुझसे
तुम्हारी ये मिट्टी की दीवार कैसे गिरी?
मैंने कहा भूख लगी थी साहब!
यह मिट्टी खाकर मेरा परिवार जिंदा है।
भूख और जज्बात
पेट भरता ही नही साहब!
अब खाना खाने से
इससे ज्यादा तो हम गालियां खा लेते है।
बातों का हिसाब कौन रखता है साहब!
यहां योहिं किसी की
हुकूमतें नही बदलती।
जलसे तो रोज होते है साहब!
इस शहर की गलियों में
काश कभी भूख पर
तकरीरें हो जाती तो अच्छा होता।
मेरी आंखों पर मत जाइए साहब!
यहां आंसुओं पर भी
कई मतलब निकाले जाते है।
यहां सब कुछ बिक जाता है साहब!
इंसान और इंसानियत भी
तो इस बाजार में 
हम गरीब हमारी भूख बहुत सस्ते सौदे हैं साहब!
कुछ आवाज़ें न सुनाई दे 
तो ही ठीक है साहब! 
वरना भूख की आवाजो से देश की खूबसूरती 
बदसूरत हो जाती साहब!
यही तो जज़्बात है अपने
एक गरीब का अपनें देश के लिए
वरना हम भी कब के
मुक्कमल मौत मर गये होते साहब!

-राहुल देव गौतम 

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