शब्दों को कुछ कहने दो
शब्द का अहसास
चीख कर चुप होता है ।
उछलता है मचलता है और
फिर दिल के दालानों में
पसर कर बैठ जाता है।
भावों की उफनती नदी
जब मेरे अस्तित्व से होकर गुजरती है।
तो शब्दों की परछाइयां
तुम्हारी शक्ल सी
बहती है उस बाढ़ में।
ओस से गिरते हमारे अहसास
शब्दों की धूप में सूख जाते हैं।
चीखती चांदनी क्यों ढूंढती है शब्दों को।
सूरज सबेरे ही शब्दों की धूप से
कविता बुनता है।
वेदना के अखबार में
कल शब्दों के बाजार लगेंगे।
तुम भी कुछ खरीद लेना उन
शब्दों की मंडी से जहां विभिन्न
नाप और पैमाने के शब्द बिकते हैं।
और फिर लिखना उन उथले
ओने पोने शब्दों में अपनी
चुराई अभिव्यक्ति।
बाजार के शब्दों में तुम नही लिख सकते
कि तुम उसे कितना चाहते हो।
न ही लिख सकते हो
कि आज सूरज क्यों उदास है।
न ही लिख सकते हो उस भूख
की भाषा जो उस बच्चे के पेट
के कोने से उपजी है जो कचरे के डिब्बे में
माँ की रोटी ढूंढता है।
अगर तुम्हारे अंतर्मन से
शब्द उभरें तो लिखना कि
मैं अकेली और तुम तनहा से
तारों में कहीं अब दूर बैठे है।
लिखना कि मैं तारों में तुम्हे खोज लेती हूँ।
और चांद को बीच में रख कर
हम दोनों प्रेम करते है।
शब्द अगर तुम्हें मिलें तो
उन्हें बगैर ठोके पीटे एक
कविता लिखना जिसमें
मन के भाव,अर्थ की सार्थकता
और कविता होने की आस हो।
शब्द अगर तुम्हें किसी समंदर
या नदी के किनारे डले मिलें
तो उन्हें करीने से उठाना
प्यार से सहला कर अपने
मन के भावों से मिलने छोड़ देना।
तुमसे गुजारिश है प्यार भरी
शब्दों में तुकबंदी मत ढूंढो
तुकबंदी में सत्य सदा तुतलाता रहता है।
मन की वेदना की चीखें तुम्हारे
तोतले शब्दों से परिभाषित नही होंगी।
तुम्हारे शब्दों के सांचे
उन चीखों को निस्तेज बना देंगें।
सोचना तुकबंदी में तुतलाते शब्द
तर्क तथ्य और सत्य से कितने दूर खड़े हैं।
कुछ रहने दो कुछ बहने दो
शब्दों को भी कुछ कहने दो।
– सुशील शर्मा