मेरे कदम
शूल प्रस्तर बिछे पथ पर
मेरे कदम चलते रहे।
पीर पर्वत सी उठी है,
कसक की कुछ फुनगियाँ हैं।
अनकही कुछ व्यथा मन की ,
मौन सी अभिव्यक्तियाँ हैं।
है अखंडित सत्य दुःख का
दर्द मन पलते रहे।
आस्तीनों में सांप भी,
अब ख़ुशी देते मुझे।
घृणा की बौछार में ,
नेह के दीपक बुझे।
आग रिश्तों में लगी है
और हम जलते रहे।
आज फिर से मैं छपा हूँ,
वेदना के अख़बार में।
मैं अकेला और तनहा,
दर्द के बाजार में।
हम बिके उनके लिए,
वो हमें छलते रहे।
(नवगीत)
-सुशील शर्मा