रीतिकाल का वैशिष्ट्य
रीतिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास का तीसरा काल है I सन 1700 ई. से 1900 ई. तक के काल को नाम से जाना जाता है I इसे विद्वानो ने अलंकृत काल, उत्तरमध्य काल, शृंगार काल, कला काल जैसे आदि नाम भी दिए है I वास्तव में रीतिकाल नाम ही मान्यता प्राप्त है I
रीतिकालीन कवियों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है –
1 रीतिबद्ध कवि
2 रीतिमुक्त कवि
3 रीतिसिद्ध कवि
1 प्रबंध काव्य
2 मुक्तक काव्य
3 नाटक
रीति का अर्थ –
संस्कृत काव्यशास्त्र के अंतर्गत रीति शब्द उस काव्यांग विशेष के लिए रूढ है, जिसे काव्य की आत्मा के
रूप में घोषित कर आचार्य वामन ने तत्संबंधी पृथक संप्रदाय का प्रवर्तन किया I उनके अनुसार गुण,
विशिष्ट रचना अर्थात पदसंघटना पद्धती का नाम ‘रीति’ है I
रीतिकालीन कवियों के रीति-निरूपण की शैलियों का अध्ययन करने पर तीन दृष्टियाँ दिखाई देती है I प्रथम दृष्टि तो मात्र रीति कर्म की है I द्वितीय प्रवृति में रीति कर्म एवं कवि कर्म का समान महत्व रहा है I तीसरी प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्षणो को महत्व नही दिया गया है
रीतिकाल की दूसरी बडी विशेषता शृंगार रस की प्रधानता है I इस काल के कवियों ने नखशिख और राधाकृष्ण की प्रेमलीलाओ का वर्णन किया है I
राजप्रशस्ति
रीतिकाल के अधिकान्श कवि दरबारी कवि थे I उन्होने आत्मभिव्यक्ति को अपने काव्य में अभिव्यक्त किया है I कवि भूषण इसके लिए अपवाद है I
भक्ति और नीति
रीतिकाल में भक्ति और नीति से संबंधित ग्रंथ भी लिखे गए I राधाकृष्ण की लिलाओ में शृंगार के साथ-साथ भक्ति भावना भी विद्यमान है I इस युग में नीति संबंधी जो उक्तीयाँ लिखी गई वह एक नई देन है I
इस युग में अलंकारो का इतना अधिक प्रयोग हुआ की वह साधन न रहकर साध्य बन गए I बहुत सारे कवियों ने अलंकारो के लक्षण उदाहरण दिए है I
ब्रजभाषा की प्रधानता
रीतिकाल ब्रजभाषा का स्वर्णयुग रहा है I भाषा की मधुरता के कारण मुसलमान कवियों का भी इस ओर ध्यान गया I ध्वन्यात्मकता, शब्दसंगीत आदि इसकी विशेषता है I
प्रकृति-चित्रण
रीतिकाल में प्रकृति चित्रण उद्दीपन रूप में हुआ है I स्वतंत्र और आलंबन रूप में प्रकृति चित्रण बहुत कम मात्रा में हुआ है I इस समय काव्य का मुख्य विषय नारी केन्द्रित था I
काव्य-रूप
इस काल में मुक्तक काव्य रूप को प्रधानता मिली है I राजाओ की काम क्रीडा एवम मानसिक थकान को दूर करने हेतु कविता का आश्रय लिया गया ,वह मुक्तक ही है I
वीररस का प्रवाह
रीतिकालीन कवियों ने नारी के नखशिख वर्णन का चित्रण किया है I वह समय ही ऐसा था की नारी को भोग-विलास की वस्तु के रूप में देखा जाता था I पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “यहा नारी कोई व्यक्ति या समाज के संघटन की कोई इकाई नही है बल्कि सब प्रकार के विशेषताओ के बंधन से यथासंभव मुक्त विलास का एक उपकरण मात्र है I”
चमत्कार प्रदर्शन एवं बहुज्ञता
– डॉ. रोहिदास धोंडीबा गवारे