रीतिकाल नामकरण की समस्या

रीतिकाल नामकरण की समस्या

रीतिकाल नामकरण की समस्या रीतिकाल के नामकरण की समस्या ritikal naamkaran ki samasya  रीतिकाल का नामकरण की समस्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास में उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल  की संज्ञा प्रदान की थी। आगे चलकर हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले दूसरे विद्वानों में  यह नाम रूढ़ि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। रीतिकाव्य अथवा काव्यरीति में ‘रीति” शब्द  अलंकारशास्त्र का वाचक है। भक्तिकाल के उपरान्त हिन्दी में ऐसे अनेक कवियों का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने संस्कृत-साहित्यशास्त्र के अनुकरण पर हिन्दी में पद्यबद्ध लक्षण-ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों को रीतिग्रन्थ कहा जाता है। ऐसे ही ग्रन्थों की प्रचुरता को ध्यान में रखकर शुक्ल जी ने उत्तर मध्यकाल को ‘रीतिकाल’ की संज्ञा प्रदान की थी। 

रीतिबद्ध और रीतिमुक्त

शुक्ल जी के वक्तव्य से संकेत मिलता है कि वे “रीतिकाल’ नाम से पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं थे। इसलिए उन्होंने उस कालखण्ड को एक अन्य नाम से अभिहित किये जाने का संकेत भी किया। उनके शब्दों में, “वास्तव में, शृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। इससे इस काल को रस के विचार से कोई शृंगार काल’ कहे तो कह सकता है।” शुक्ल जी के इस संकेत को ग्रहण करके उनके पश्चात् उन्हीं के शिष्य पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने रीतिकाल को ‘शृंगारकाल’ की संज्ञा से अभिहित किया। रीतिकाल नाम तत्कालीन लक्षण-ग्रन्थों की एक प्रमुख प्रवृत्ति को व्यक्त करता है, तथापि उससे इतर रचनाएँ इस नामकरण से उपेक्षित हो जाती हैं और इतिहासकार को ‘फुटकर खाते’ में रखकर उनका परिचय देना पड़ता है, क्योंकि रीतिबद्ध रचनाओं से उनका पार्थक्य है। शृंगार काल’ कहने से उस काल-खण्ड की उन सभी रचनाओं का भी ग्रहण हो जाता है और उसके भीतर रीतिबद्ध और रीतिमुक्त दो धाराएँ भी पृथक् हो आती हैं। इसलिए यह नाम अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। 

शृंगारकाल

उपर्युक्त दो प्रमुख नामों के अलावा रीतिकाल के दो और नाम सुझाये गये हैं, जो उतने प्रचलित और लोकप्रिय नहीं हुए। मिश्रबन्धओं ने उसे ‘अलंकृत काल’ और रसाल जी ने उसे ‘कलाकाल’ की संज्ञा दी थी। ये दोनों नाम काव्य में अलंकार अथवा कला की प्रधानता को ध्यान में रखकर दिये गये प्रतीत होते हैं।रीतिकाल के प्रथम आचार्य कविवर केशवदास अलंकारवादी थे और उनकी कृतियों में अलंकारों का प्रचुर प्रयोग भी हुआ है।किन्तु उनके पचास साल बाद चिन्तामणि के समय से आचार्यों की जो अविच्छिन्न परम्परा चली, उसमें प्रायः सबके सब रसवादी हुए। यह सच है कि रीतिकाल में किसी की कविता अनलंकृत नहीं है, फिर भी प्रधानता इसमें रस की है। इसलिए श्रृंगार काल की तुलना में अलंकृत काल और कलाकाल नाम भी ग्राह्य नहीं प्रतीत होते ।अत: विवेचन काल को’ शृंगारकाल’ कहना ही अधिक समीचीन होगा। 

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